रविवार, 24 जनवरी 2016

शैलेन्द्र शर्मा का सामयिक नवगीत

साहित्य मठाधीशों के लिए
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काव्य-जगत के महामहिम हैं ,
इनको जानो जी
देखो योग्य-अयोग्य नही ,
इनको सम्मानो जी

रहे गर्भ में पिंगल सीखा,
और छठी में गीत
इनके मुख से जो भी निकले,
होता वही पुनीत

ईश्वर को मानो ना मानो,
इनको मानो जी

ये दिन को कहते रात अगर,
और रात को दिन
हाँ में हाँ तुम रहो मिलाते,
प्रतिदिन ,प्रति पल-छिन

सुल्फा भंग संग में इनके ,
तुम भी छानो जी

इनकी गिद्ध-दृष्टि से बचना,
सम्भव नही कभी
ऐसे-ऐसे टुटके करते
होते चित्त सभी

इनकी जडे बहुत गहरीं,
कम मत अनुमानो जी

इनकी खुन्नस के क्या कहने,
धोबी-पाट लगे
इनका डसा न माँगे पानी,
कहते सभी सगे

सुर में कब बजता है ,
बिगडा हुआ पियानो जी

जो दे जितना भाव,
उसी पर नमदा ये कसते
आँखें टंगतीं,जीभ निकलती,
बचता मरते-मरते

तिल को ताड़ बना देते,
इनको पहचानो जी .

© शैलेन्द्र शर्मा

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