सोमवार, 26 जुलाई 2021

रामानुज त्रिपाठी के गीतों में नव-मानवतावाद by सत्यम भारती

               रामानुज त्रिपाठी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं। इनके गीतों में विषयों का विस्तार, कला का सुंदर नमूना, नवीन प्रयोग, संवेदना की साफगोई और नव मानवतावाद एक साथ दृष्टिगोचर होता है। गीतकार अपने गीतों में लोक में प्रचलित संज्ञाओं का मानवीकरण कर भावों को नवीनता प्रदान करते हैं तो वहीं समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाकर समाज के हर वर्ग को साहित्य में उसकी समान उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वे नगरीय संस्कृति एवं आधुनिकता के दुष्प्रभाव के चित्रण करने के साथ-साथ ठेठ गंवई संस्कृति का भी चित्रण प्रस्तुत करते हैं। उनके गीतों में प्रेम के विविध रूप देखने को मिलता हैं, यहाँ देशप्रेम, वात्सल्य प्रेम, प्रकृति प्रेम ,मर्यादित प्रेम आदि एक साथ दृष्टिगोचर होता है। वे मर्यादित प्रेम के पक्षधर हैं, उनके गीतों में मर्यादित प्रणय संबंधों का सुंदर निर्वाहन मिलता है-

 नेह के उपवन में
 महके जब पारिजात
 शरमा के पूनम का
 चांद जब तमाम रात
 बादलों की ओट में
 हो जाए गुम
 चले आना तुम। 

सामान्यवादी दृष्टिकोण वही अपना सकता है जिसके पास मानवों से प्रेम करने की अपार क्षमता हो, सच को सच कहने और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने की शक्ति हो। इनके गीतों में निर्धनों के प्रति संवेदना है, किसानों के प्रति आशा है, निम्न जातियों के लिए सहयोग की भावना है-

सिसक कर 
दीवट पे जलता हर चिराग 
रोशनी का वहम केवल ढो रहा है। 

"भूख " देखने में तो बहुत छोटा शब्द लगता है, लेकिन इसके चपेट में आकर कितने लोग अब तक जान गवा चुके हैं। आजादी के इतने साल बाद भी यहाँ भूख से मरने वालों की संख्या अधिक है  । गीतकार गरीबी की कोढ़ "  भूख " का करूण चित्रण अपने गीतों में प्रस्तुत करते हैं-

 बर्तन में
 अदहन का पानी
 गया खौल कर सूख
 बैठी है
 चूल्हे के आगे
 आस लगाए भूख।

आज का मानव, संक्रमण काल से गुजर रहा है । एक तरफ वह समाज की कुरीति, ऑफिस ,बाजार ,सत्ता एवं पूंजी के गठजोड़ आदि से उत्पन्न हुई समस्याओं से जूझ रहा है तो वहीं दूसरी तरफ वह अपने मन के भीतर की व्याधियों से भी दो - दो हाथ कर रहा है। कुंठा, संत्रास, प्यास, वासना एकाकीपन आदि वह व्याधि है जो मानव को लघुमानव की ओर ले जा रहा है -

न ही कोई आहट
न हुई पदचाप 
घुस आया अंतस में 
कहाँ से संताप। 

मन पर नियंत्रण नहीं होने से अतृप्त इच्छाएँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि उसे तृप्त करने के लिए हमें सैकड़ों कुर्बानियां देनी पड़ती है। क्षण- क्षण बदलते मानवों के मन उसे कमजोर करता जा रहा है और वह किसी चीज पर फोकस नहीं कर पा रहा। इनके गीतों में "क्षणवाद" का सुंदर उदाहरण मिल जाता है जो आधुनिक मानव के मन - मस्तिष्क की अस्पष्ट नियति बन चुकी है-

क्षण में याद आया कुछ 
भूल गया फिर क्षण में 
सुबह से शाम तक
बस केवल दर्पण में
निरख-निरख रूप
शरमाने के। 

बहुत कुछ की चाह और मशीनीकरण ने हमें स्वार्थी बना दिया है। हम निज स्वार्थ के लिए रिश्ते, नाते, मां-बाप सब को भूलते जा रहे हैं। रिश्तों  में बिखराव वर्तमान समय की प्रधान समस्या है। संयुक्त परिवार की अवधारणा अब बिल्कुल विलुप्त होने लगी है। संवाद के अभाव में अच्छे - अच्छे रिश्ते टूट जा रहे हैं। गीतकार के गीतों में रिश्तोंं केे टुटन, संवाद का अभाव, नेह का महावर आदि का सुंदर वर्णन मिलता है-

अनंतिम
संवाद -
तो पीछे पड़े हैं
प्रश्नचिन्ह
तमाम
सिरहाने खड़े हैं  ।

जब कोई दोस्ती, रिश्ता या व्यापार स्वार्थ की बुनियाद पर टिकी हो तथा लाभ - हानि का परस्पर अन्योन्याश्रय  संबंध हो, तब "समझौता " की उत्पत्ति होती है। समझौता में हमारा तन तो आपस में साथ रहता है लेकिन मन कोसों दूर चला जाता है।  आजकल राजनीति से लेकर रिश्ते तक सब जगह समझौता ही चल रहा है, इनके गीत समझौतों के गीत हैं-

परिभाषित होने से पहले
टूट गए सपने
और अचीन्हे समीकरण ही
हुए आज अपने 
समझौते पर प्रत्याशाएं
हुईं बहुत मजबूर  । 

अपने समाज से अब तप, दया, करूणा, प्रेम, सद्भाव , सहयोग, मर्यादा आदि जो मानवीय गुण कहा जाता था अब विलुप्त होने की कगार पर है  । मानवों में दानवी गुण दिनों - दिन घर करता जा रहा है  । रामानुज जी के गीत गिरते नैतिक मूल्य के विरूद्ध प्रतिरोध करता  है -

कहिए! किसको कहें आदमी
सिर्फ खड़े हैं ढाँचे जी।
बीच सड़क पर मरे हुओं की
पड़ी हुईं लावारिश लाशें
सब मुंह फेर चले जा रहे
मानवता को कहाँ तलाशें  । 

आधुनिक मानवों को जितना डर दुश्मनों से नहीं है उतना डर उसके अपनों से है  । वे हमारे अपने ही हमारे लिए चक्रव्यूह बनाते हैं और षड्यंत्र में शामिल  भी होते हैं , कहते हैं - "  घर का भेदी लंका ढाए "  ।  इनके गीत  हमें सचेत करता है ,आस्तीन के सांपों को पहचानने की सलाह देता है तथा षड्यंत्र के शिकार होने से बचने का नुस्खा भी प्रदान करता है -

झूठला कर हर नाते
अपनों से बार-बार बच रहे
आए दिन कितने ही व्यूह
विद्रोही अब रच रहे
अभिमन्यु कौन-कौन 
चक्रव्यूह तोड़े। 
नफरत का विष मानव में बचपन से ही भरा जाता है  । बचपन में घरवाले तो युवावस्था में मीडिया, सोशल साइट ,अराजक तत्व और राजनीति नफरत की आग भड़का कर उन्हें दिग्भ्रमित करते हैं । हम आज बारूद के पेड़  पर चढ़े बैठे हैं जिसे वर्षों से नफरत पोषित करती आई है  । गीतकार के गीत नफरत की मायावी पेड़ से वापस उतरने का मार्ग बताते हैं-

आंधियाँ नफरत की 
इतनी बहीं तेज
उड़ गए हर संहिता
के पेज-पेज 
रह गए अवशिष्ट पन्ने
रक्त-रंजित पाठ के । 

नफरत की आग में सबसे ज्यादा जनता ही जलती है। जनता को इस लोकतंत्र में सिर्फ वोट डालने के लिए रखा गया है। नेता हर बार कुछ नया जुमला फेक कर हमें बेवकूफ बना जाते हैं और फिर अगले चुनाव में ही वो अपना मुंह  दिखाते हैं। इनके गीतों में लोकतंत्र के गिरते स्तर, चुनावी हथकंडा, राजनेताओं का दोहरा चरित्र, कागज पर विकास ,कथनी करनी में फर्क तथा जनता की स्थिति का जीवंत चित्रण है-

देख रहा सपने रोटी के 
भूखा प्यासा मतदाता है 
पाकर चुपड़ी का आश्वासन 
वह लालच में फंस जाता है
देकर  मत  फिर भस्मासुर को
बन बैठा है औघड़दानी। 

 समाज धीरे-धीरे  बदल रहा है, एक वर्ग  जो बरसों से शोषित होता आया है उसमें भी अब जागृति आने लगी है, कीचड़ में ही कमल खिलने लगा है और अंधेरी बस्ती में भी अब चिराग जलने लगे हैं। इनके गीतों में इस परिवर्तन को सकारात्मक रूप से वर्णित किया गया है।प्राचीन परंपरा, वर्जना और रूढ़ियों के टूटने से गीतकार खुश नजर आ रहे हैं क्योंकि कहा गया है- "परिवर्तन ही संसार का नियम है।"

टूटा हवाओं का सिलसिला 
लहरों का एक पृष्ठ फिर खुला
सागर की नादान बेटियों ने 
चुपके से लिख दिया नाम।

जब बच्चों का सही से परवरिश नहीं हो पाता है तब वह अंधकार से हाथ मिला लेता है  । सही परवरिश के अभाव में समाज में न जाने कितने चोर, उचक्के, आतंकवादी पैदा हो रहे हैं  । रामानुज जी के गीत इस समस्या से भी हमें रूबरू कराता है-

अरमानों के पारिजात पर 
अंगारों के फूल खिले
रोशनीयों के बालिग बेटे 
अंधकार से गले मिले। 

इनके गीतों में एक कलाकार का सूखा जीवन, संघर्ष, स्वाभिमान आदि का भी जिक्र मिलता है  । एक कवि या साहित्यकार  कैसे एकाकी होकर साहित्य की सर्जना करता है, आम जन की आवाज बनता है ,लोगों के चेहरे पर खुशी लाता है; लेकिन उसके जीवन में क्या चल रहा है उसके बारे में कोई पूछने वाला नहीं है-

आहिस्ता खोलता है
डायरी के पन्ने 
कलम के कान जब 
हो जाते हैं चौकन्ने
फिर कुछ लिखता है 
लिख-लिख कर खोता है 
जब गांव सोता है। 

साहित्य में सब नाम नहीं कमा सकता, सब अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाते । साहित्य में आलोचकों की कलम, नेताओं की सिफारिश ,क्षेत्र का प्रभाव तथा चाटुकारिता भी हावी है  । परिणामतः अच्छी -अच्छी प्रतिभा जमींदोज हो जाती हैं, उसे फलने से पहले ही कुचल दिया जाता है ;रामानुज जी के गीत इस तरफ भी इशारा करता है -

सर्जना तो हुई है आज तक गगनचुंबी
किंतु पक्षधरता की गंध आ समाई है  ।

भाव पक्ष की ही तरह शिल्प पक्ष भी इनके गीतों में लाजवाब है। भाषा तत्सम प्रधान और लोकाधर्मी है, प्रतीकों का सुंदर प्रयोग यहाँ मिलता है - शबनम, पारिजात, शब्द ,तूलिका, रेत,दर्पण ,अहेरी, शिलालेख आदि इनके प्रिय प्रतीक हैं। प्रतीक उनके गीतों को सजीवता प्रदान कर भाव का नया मार्ग  खोलते हैं-

समेटे चुप्पी नियति की खिड़कियाँ
सह रहीं रुठे समय की झिड़कियाँ
घुन गए तकदीर के अमृत किवाड़े
कौन सांकल खटखटाए 
कौन खोले?

अगर अलंकार की बात करें तो यहाँ उपमा, रूपक, अनुप्रास, मानवीकरण का सुंदर प्रयोग मिलता है। 
 प्रकृति का मानवीकरण इनके गीतों में सुंदर तरीके से अभिव्यक्त होता है। चांद के मानवीकरण का सुंदर उदाहरण देखें-

 सांझ हुई अवसन्न 
 पत्थरों पर चुप्पी बोकर।

 रातों की आजानुबाह में
 सिमटी दसों दिशाएँ
 शायद छप्पन भोग लिए
 शशि की बालाएं आएं। 

अभिधा में कम , लक्षणा और व्यंजना में इनके गीत अधिकतर हैं। लक्षणा एवं व्यंजना का सुंदर प्रयोग व्यंग्य और प्रस्तुत-अप्रस्तुत योजना के लिए किया गया है-

 सुना, तुम्हारी मटकी में
 कुल सात - समुंदर हैं!

अंततः यह कहा जा सकता है कि रामानुज जी मानवीय संघर्ष और उल्लास  के गीतकार हैं। इनके गीत आधुनिक मानव की नियति एवं नियत का जीवंत दस्तावेज है। इनके गीतों में नव मानवतावाद के विविध पक्षों का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। वीरेंद्र मिश्र के शब्दों में कहें तो इनके नवगीत "आस्थाशील अनुभूतियों का निर्बंध समवेत स्वर हैं।" 

सत्यम भारती
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली, 110067
मो. - 8677056002.

सोमवार, 5 जुलाई 2021

नवगीत-भरा हुआ संत्रास by आशुतोष कुमार आशू

जटा बढ़ाए बंजारा मन 
ढूढ़ रहा नित ठौर..!!

बना रहा है आज उजालों पर अँधियारा धाक,
डाँट पिलाता है हाथों को कुम्भकार का चाक,
छूटा जाता है हाथों से 
मुँह तक आया कौर..!!

सुख-जीवन चल रहे रात-दिन जैसे रेल पटरियाँ,
दुःख-जीवन इस तरह घुले हैं ज्यों धागे में लड़ियाँ,
जितना ऊब गया जीवन से
उतना जीना और..!!

सब होठों की एक शिकायत, भरा हुआ संत्रास,
किन्तु मूल में कारण ढूढें, है किसको अवकाश,
बस हर मानव कोस रहा है 
वर्तमान का दौर..!!

आज गर्त में गिरा पड़ा है यह अपना परिवेश,
मूल्य रखे हैं गिरवी सारे भरा हुआ बस क्लेश,
इठलाते हैं कि अतीत में,
हम सब थे सिरमौर..!!

- आशुतोष कुमार आशू

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

नवगीत-तप कर हम कुंदन निकलेंगे by संध्या सिंह

मुस्कानों को अगर हटाया 
दबे हुए क्रंदन निकलेंगे 
अभी मौन की भट्टी में है 
तपकर हम कुंदन निकलेंगे

भरसक शब्द दिये चिंतन को 
लेकिन बचा बहुत कुछ बाकी 
भीग भीग कर भी नामुमकिन 
बूँद बूँद पढ़ना बरखा की

ज़रा झुर्रियों में झांको तो 
छुपे हुए बचपन निकलेंगे

हवा छुपी पत्तों के पीछे 
धूप बादलों में दुबकी है 
दिन को कैसे पता चलेगा 
रात कहाँ कितनी सुबकी है 

उत्सव के महलों के भीतर 
पीड़ा के आंगन निकलेंगे 

यायावरी बहुत की बाहर
अब अंदर का सफ़र ज़रूरी 
जाने कितना समय लगेगा 
खुद से खुद की मीलों दूरी 

भीतर एक मथानी चलती 
बनकर हम मक्खन निकलेंगे

--- संध्या सिंह, लखनऊ

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

नवगीत-सुबह की गंध by विनय विक्रम सिंह

चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।

रख नहीं छोटे क़दम तू,
दूर उसका घर।
हर क़दम में लाँघ राही,
हाँफने के स्वर।
राह में काँटे बिछाते,
नींद के सागर।
खुम्भियों की छाँव बेचें,
चैन की भाँवर।
बाँध देते ये भुलावे, 
पाँव में बन्धन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।१।

हो रहा हर पाट चौड़ा,
धार नित कमतर।
वसन काले ढँक चुके हैं,
अंग उसका हर।
बुदबुदाकर भर रही वो,
बुदबुदों में स्वर।
मंत्र साबर साधती है,
रेत में धँसकर।
टोटके सी साँस सूखी,
ढो रही जीवन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।२।

लय अधूरे थाप लेती,
गद्य सी ढलकर।
भाव में लोहा मिलाकर,
वज़न पैदाकर।
लोच जीवन की थकी है,
सोच में मर कर।
पृष्ठ हैं पुस्तक नहीं हैं,
ठग रहे पोस्टर।
गेयता छुपकर वनों में,
लेपती चंदन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।३।

गल रहे हिमशैल उजले,
दिख रही माटी।
नग्नता के ढोल बजते,
सिर धुने थाती।
बंजरों में दीप जलते,
खेत बिन बाती।
बिक रही हैं रोटियाँ,
दाँत से काटी।
अब नदी के पाँव जलते, 
रेत हर आँगन।।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।४।

- विनय विक्रम सिंह

सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश by राज खन्ना

तब ऐसा था सुल्तानपुर
                       ■ राज खन्ना
                       ब्यौरे बहुत पुराने हैं लेकिन उनकी दिलचस्पी हो सकती है , जिन्हें सुल्तानपुर के अतीत को लेकर जिज्ञासा रहती है। 1857 की क्रांति में बढ़चढ़कर हिस्सेदारी की बहुत बड़ी कीमत सुल्तानपुर ने चुकाई थी। गोमतीं के उत्तर बसा शहर अंग्रेजों ने पूरी तौर पर नष्ट कर दिया था। वहां चिराग जलाने तक की इजाजत नहीं थी। शांति स्थापित होने के बाद अंग्रेजों ने 1858 - 59 में गोमतीं के दक्षिणी किनारे पर मौजूदा शहर और जिले का मुख्यालय स्थापित किया । शहर बसने के पहले यह स्थान गिरगिट नामक गांव था। चूंकि पहले इस स्थान पर अंग्रेजी फौज कैम्प करती थी , इसलिए आम लोग इसे कम्पू भी कहते थे। मिस्टर पार्किन्स पहले डिप्टी कमिश्नर थे। शहर का पार्किंसगंज मोहल्ला उन्हीं के नाम पर है। मेजरगंज और गोरा बारिक ( गोरा बैरक) जैसे नाम इस स्थान पर फौज की मौजूदगी की याद दिलाते हैं।
                 1903 में छपा सुल्तानपुर का गजेटियर इन दिनों पढ़ रहा हूँ। एच. आर.नेविल्स आई.सी.एस. ने इसे तैयार किया था। जिले के इतिहास के अलावा जनजीवन और साथ ही प्रशासनिक और बुनियादी जरूरतों के इंतजाम की कोशिशों के शुरुआती ढांचे से जुड़े तमाम पहलुओं से जुड़ी जानकारियां यह गजेटियर समेटे हुए है। 1863 -70 के मध्य जिले का प्रथम भूमि बंदोबस्त मिस्टर मिलेट ने किया। 1869 में जिले का पुनर्गठन किया गया। उसके पहले जिले में 12 परगने थे। नए सीमांकन में इसौली,बरौंसा और अलदेमऊ को फैजाबाद से हटाकर सुल्तानपुर से जोड़ा गया। उधर सुल्तानपुर से निकाल कर इन्हौना,जायस , सिमरौता और मोहनलाल गंज को रायबरेली में तथा सुबेहा को बाराबंकी में शामिल कर दिया गया।
             1869 में जिले में पहली जनगणना हुई। आबादी थी 9,30,023। सीमाओं के परिवर्तन के बाद आबादी बढ़कर 10,40,227 हो गई। प्रति वर्गमील 593 लोग रहते थे। 1881 में आबादी घटकर 9,57,912 रह गई। आबादी घटने का कारण 1873 और 1877 का भयंकर अकाल था जिसमें बड़ी संख्यां में मौतें हुईं और पलायन भी हुआ। 1891 की जनगणना में आबादी 10,75,851 थी। इस जनगणना में पास-पड़ोस के जिलों में भी जनसंख्या में वृद्धि हुई थी।
            1901की जनगणना में पिछली की तुलना में जनसंख्या में मामूली वृद्धि हुई। कुल जनसंख्या 10,83,904 थी। प्रतिवर्ग मील 637 लोग निवास करते थे। कुल आबादी में हिंदुओं की संख्या 9,63,879 और मुसलमान 1,19,740 थे। यह जनगणना इस मिथ को तोड़ती है कि सिख विभाजन के बाद ही यहां बसे। उस समय 151 सिख यहाँ आबाद थे। दो जैनी और एक पारसी भी थे। 25 हिंदुओं ने स्वयं को ' आर्य ' के तौर पर दर्ज कराया था। इस जनगणना में जातिवार ब्यौरे दर्ज हुए। इसमें ब्राह्मण 1,60,000 , राजपूत 86,561, जाटव 1,40,000 , यादव 1,28,000 ,वैश्य 22,970 ,कायस्थ 12,832, मुराई 4,244 तथा कुर्मी 28,455 थे। अन्य आबादी में कलवार,केवट, कुम्हार,पासी,कोरी,गड़रिया,तेली और कहांर आदि का उल्लेख है लेकिन उनकी अलग-अलग संख्या दर्ज नहीं  हैं। मुसलमानों की कुल आबादी में 25,800 ऐसे मुसलमान थे जो राजपूतों के विभिन्न वर्गों से धर्मांतरित हुए थे। आबादी में कम हिस्सेदारी के बाद भी जिले की कृषियोग्य भूमि के 76 फीसद हिस्से के मालिक राजपूत थे। उनके पास 1633 मौजे थे। मुसलमानों के पास 175, ब्राह्मणों के पास 75 और कायस्थों के पास 67 मौजे थे। शेष भूमि अन्य जातियों के पास थी।
            लगभग पूरी आबादी खेती पर निर्भर थी। पूरे जिले में इकलौता शहर सुल्तानपुर था। उसकी आबादी दस हजार से भी कम थी। 1890 में उसे म्युनिस्पिलिटी
    का दर्जा हासिल हो चुका था। इसके तेरह सदस्यों में दस निर्वाचन से चुने जाते थे। दो का नामांकन होता था। डिप्टी कमिश्नर इसके पदेन अध्यक्ष होते थे। 1871 में डिस्ट्रिक्ट कमेटी बनाई गई। इसे 1884 में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड (आज की जिला पंचायत ) नाम दिया गया। इसकी सत्रह सदस्यीय कमेटी में 12 का निर्वाचन होता था। चार तहसीलें थीं। प्रत्येक तहसील से तीन प्रतिनिधि चुने जाते थे। चारों तहसीलों के एस. डी. एम. इसके पदेन सदस्य जबकि डिप्टी कमिश्नर अध्यक्ष होते थे। 
          अपने बुजुर्गों से उनके दौर के किस्से सुनते या उन्होंने जो अपने बड़ों से सुन रखा था , उसे जब वे दोहराते थे तो हमारी पीढ़ी हंसती थी। खासतौर पर जब गुजरे जमाने की कीमतों का जिक्र होता था। दिलचस्प है कि गजेटियर में भी इनमें बहुत कुछ पढ़ा जा सकता है। उन दिनों तौल के लिए ' सेर ' का इस्तेमाल होता था। प्रति सेर लगभग आठ सौ ग्राम का होता था। ब्यौरों के मुताबिक 1861 में गेहूं एक रुपये का 28 सेर मिलता था। अगले तीन सालों में सूखे के कारण दाम बढ़े। इन वर्षों में एक रुपये का दस सेर गेहूं बिका। 1869 में पौने तेरह सेर जबकि 1867 से 1872 का औसत दाम 19 सेर था। 1877 के अकाल में गेहूं की भारी किल्लत हुई। लेकिन 1880 से 1886 के सात वर्षों में एक रुपये में गेहूं का औसत दाम 21.4 सेर था। 1887 से 1896 के सात वर्षों में गेहूं एक रुपये में 15.2 सेर की दर से बिका। बाद के सात वर्षों यानी 1902 तक गेहूं का औसत दाम 16.5 सेर था। कोदों, ज्वार, चना की कमजोर वर्गों में सबसे ज्यादा खपत थी। उनमें चना सबसे ज्यादा पसंद किया जाता था। 1861 में एक रुपये में ज्वार-चना 32 सेर उपलब्ध था। अगले चालीस वर्षों में इन जिसों का औसत मूल्य प्रति रुपया 22.5 सेर था।
                  20 वीं सदी की शुरुआत तक सुल्तानपुर में नकद मजदूरी का चलन नहीं था। आमतौर पर एवज में अनाज ही दिया जाता था , यद्यपि मजदूरी का निर्धारण पैसे में होता और फिर उस मूल्य का अनाज दिया जाता था। कम परिश्रम के काम जो महिलाओं और बच्चों के जिम्मे होते , उसकी मजदूरी इकन्नी थी। ज्यादा परिश्रम के कामों की मजदूरी छह पाई थी। बढई की मजदूरी उसके हुनर के मुताबिक तीन से पांच आने के बीच थी। हल को साल भर दुरुस्त रखने के लिए लोहार को आठ सेर अनाज दिया जाता था। सबसे कीमती माने जाने जाने वाले ' सोने ' के दाम तो गजेटियर में नहीं दिए गए हैं लेकिन सुनार की मजदूरी का जिक्र जरूर है। इसके मुताबिक सुनार सोने के मूल्य के प्रति रुपये में एक आना मजदूरी लेते थे। जिले के लगभग सभी मकान कच्चे थे। पक्की ईंटें बनती थीं लेकिन उनका इस्तेमाल सिर्फ ताल्लुकेदारों-जमींदारों और सम्पन्न और सबल लोगों के मकानों में ही होता था। उस समय तक मकानों में पत्थर का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं हुआ था।  अमीर जानकर लुटने के डर से भी लोग पक्के मकान बनवाने से बचते थे। ईंटों का दाम चार से नौ रुपये प्रति हजार था। कच्चे मकानों में इस्तेमाल होने वाला खपड़ा का दाम एक रुपया प्रति हजार था। दस क्यूबिक फीट कच्ची दीवार की लागत बारह आना थी।  कीमती लकड़ी यहां उपलब्ध नहीं थी। आम-,महुआ-नीम बहुतायत में था। आम की लकड़ी का प्रति क्यूबिक फीट दाम पांच आना था। बांस एक रुपये के अट्ठारह थे। तब यहां बैंक नही थे। गांव के साहूकार प्रति रुपया पर इकन्नी ब्याज लेते थे। ब्याज की दरें आमतौर पर एक से दो फीसद महीना थीं। हालांकि शर्तें कर्जदार की 
जरूरतों पर बदलती रहती थीं। हसनपुर और निहालगढ़ के सेठ सबसे ज्यादा सम्पन्न थे। 4 अप्रैल 1893 को सुल्तानपुर से होकर गुजरी लखनऊ-फैजाबाद-बनारस रेल लाइन पर पहली गाड़ी चली लेकिन सुल्तानपुर में कोई स्टेशन नहीं बना। जौनपुर के अरगुपुर गांव में बने स्टेशन का नाम बिलवाई रखा गया। बिलवाई सुल्तानपुर जिले का राजस्व गांव है। दो साल बाद लखनऊ-प्रतापगढ़ रेल लाइन शुरू होने के बाद अमेठी, गौरीगंज और मिश्रौली में स्टेशन बन गए। जिला मुख्यालय को रेल सुविधा की शुरुआत के लिए 1901 तक इंतजार करना पड़ा। इस साल इलाहाबाद-सुल्तानपुर -फैजाबाद रेल लाइन चालू हुई थी।
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