गुरुवार, 1 जुलाई 2021

नवगीत-सुबह की गंध by विनय विक्रम सिंह

चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।

रख नहीं छोटे क़दम तू,
दूर उसका घर।
हर क़दम में लाँघ राही,
हाँफने के स्वर।
राह में काँटे बिछाते,
नींद के सागर।
खुम्भियों की छाँव बेचें,
चैन की भाँवर।
बाँध देते ये भुलावे, 
पाँव में बन्धन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।१।

हो रहा हर पाट चौड़ा,
धार नित कमतर।
वसन काले ढँक चुके हैं,
अंग उसका हर।
बुदबुदाकर भर रही वो,
बुदबुदों में स्वर।
मंत्र साबर साधती है,
रेत में धँसकर।
टोटके सी साँस सूखी,
ढो रही जीवन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।२।

लय अधूरे थाप लेती,
गद्य सी ढलकर।
भाव में लोहा मिलाकर,
वज़न पैदाकर।
लोच जीवन की थकी है,
सोच में मर कर।
पृष्ठ हैं पुस्तक नहीं हैं,
ठग रहे पोस्टर।
गेयता छुपकर वनों में,
लेपती चंदन।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।३।

गल रहे हिमशैल उजले,
दिख रही माटी।
नग्नता के ढोल बजते,
सिर धुने थाती।
बंजरों में दीप जलते,
खेत बिन बाती।
बिक रही हैं रोटियाँ,
दाँत से काटी।
अब नदी के पाँव जलते, 
रेत हर आँगन।।
चल सुबह की गंध सूँघें, 
थक रहा है तन।४।

- विनय विक्रम सिंह

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