शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

नवगीत-तप कर हम कुंदन निकलेंगे by संध्या सिंह

मुस्कानों को अगर हटाया 
दबे हुए क्रंदन निकलेंगे 
अभी मौन की भट्टी में है 
तपकर हम कुंदन निकलेंगे

भरसक शब्द दिये चिंतन को 
लेकिन बचा बहुत कुछ बाकी 
भीग भीग कर भी नामुमकिन 
बूँद बूँद पढ़ना बरखा की

ज़रा झुर्रियों में झांको तो 
छुपे हुए बचपन निकलेंगे

हवा छुपी पत्तों के पीछे 
धूप बादलों में दुबकी है 
दिन को कैसे पता चलेगा 
रात कहाँ कितनी सुबकी है 

उत्सव के महलों के भीतर 
पीड़ा के आंगन निकलेंगे 

यायावरी बहुत की बाहर
अब अंदर का सफ़र ज़रूरी 
जाने कितना समय लगेगा 
खुद से खुद की मीलों दूरी 

भीतर एक मथानी चलती 
बनकर हम मक्खन निकलेंगे

--- संध्या सिंह, लखनऊ

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