रविवार, 17 जनवरी 2016

अरविन्द उनियाल 'अनजान' की गीतिका

                  "पलायन"

पलायन से हमें अपने, पहाड़ों को बचाना है ।
कभी भी जन्मभूमी को, नहीं यारों भुलाना है ।

जड़े अपनी कभी मत छोड़ देना तुम शहर जाकर ,
अभी भी गाँव में इक वृक्ष पीपल का पुराना है ।

जो' अंदर है वही बाहर, यहाँ के लोग होते हैं ,
हमारे गाँव का जीवन, सरल, सादा, सुहाना है ।

कभी मत बेचना सुन लीजिये पुरखों का बूढ़ा घर ,
यहाँ बचपन की यादों का बड़ा भारी खजाना है ।

परिन्दा आसमानों में, उड़े दिन भर भले जितना ,
मगर हर शाम उसको वृक्ष पर ही लौट आना है ।

पके बेड़ू , पके हीसर, लदे हैं वृक्ष  काफल से ,
कभी भी लौट आ जाना, अगर किनगोड़ खाना है ।

कभी 'अनजान' मत रहना, पहाड़ी सभ्यता से तुम,
सदा खुशहाल अपनी मातृभूमी को बनाना है ।

*किनगोड़,हीसर, बेड़ू, काफल=पहाड़ी फ़ल

अरविन्द उनियाल 'अनजान',
श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड ।

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