दुःख की पाती पढ़ते पढ़ते
सुख आया कब पता नहीं।
अक्षर अक्षर जीवन का मैं
पढ़ पाया कब पता नहीं।
अपनी ढपली पर हरदम ही
अपने दुखड़े गाता हूँ,
राग बेसुरा बुरा भले हो
फिर भी गीत सुनाता हूँ।
सम्मोहन की बातें कैसी
होतीं मुझको समझ नहीं,
खिली कुमुदिनी,चाँद हँसा भी
शरमाया कब पता नहीं।।
गालों पर आया गुलाल कब
फागुन रीता,रंग बिरंगा,
सावन के झूलों पर कजरी
किसने गायी, नहीं पता।
वर्षा ऋतु बीती मेंड़ों पर
खिचड़ी होती खेतों में,
जीवन का कोरा बसन्त भी
इठलाया कब पता नहीं।।
गीत,कहानी नहीं लिखा पर
भूख प्यास का अनुवादक हूँ,
गेहूँ, धान, तेल दालों का
मैं किसान हूँ, उत्पादक हूँ।
मैं हूँ गंवई रीति पुरानी
मोहित हूँ परिपाटी पर,
कभी नहीं बातें घमण्ड की
इतराया कब पता नहीं।।
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