【ग़ज़ल-एक 】
जागते ही जागते निज चेतना को मारकर।
जी रहे हैं लोग अब संवेदना को मारकर।
एक पथ यदि बंद है तो दूसरा भी बंद है।
रुक गए हो तुम अगर संभावना को मारकर।
हम फ़कीरों के लिए तो ये धरा,आकाश है,
तुम कहां जाओगे अब सद्भावना को मारकर।
स्वार्थ की अट्टालिकाओं के अँधेरे पार्श्व में,
हम छुपे हैं लोक मंगल कामना को मारकर।
जानते तो हैं सभी पर मानता कोई नहीं,
मोक्ष जीवन को मिलेगा वासना को मारकर।
हो कहीं अन्याय तो प्रतिरोध मेरा धर्म है,
जी नहीं सकता ह्रदय की वेदना को मारकर।
【ग़ज़ल-दो】
हम यहां ग़म से हैं दो-चार कहीं और चलें।
आप भी दिखते हैं बीमार कहीं और चलें।
जान पहचान के जो चेहरे थे अनजान हुए,
हम रखें किससे सरोकार कहीं और चलें।
जिस बियाबान में मिलते थे कभी शामो-सहर,
सज गया है वहां बाज़ार कहीं और चलें।
कैसे कमरे में हवा आये दरीचा भी नहीं,
सांस लेना हुआ दुश्वार कहीं और चलें।
हादसा अपने मोहल्ले में हुआ है तो क्या?
पढ़ के देखेंगे कल अख़बार कहीं और चलें।
परिचय-----
कालीचरण सिंह'जौहर'
सुभाष नगर,नरैनी
जनपद--बांदा,उत्तर प्रदेश
शैक्षिक योग्यता---Bsc,Bed
पेशा---उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद में
सहायक अध्यापक
अभिरुचि---हिंदी कविताएं और शायरी
मोब--09721903281
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