शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

विनोद चन्द्र भट्ट की एक ग़ज़ल

'काव्य-शिल्पी' फिलबदीह - ०८
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ख्वाब था जो कभी अब समन्दर हुआ ।
जश्न  में  डूबा' हर  एक  मन्ज़र  हुआ ।
🌴🌴
देखता  मैं  रहा उनकी' दरिया दिली,
प्यार में लुट गया ऐसा' अक्सर हुआ।
💐💐
खुशनुमा  जिन्दगी  जो  मुझे  मिल गई,
अपने' दिल का मैं' देखो सिकन्दर हुआ।
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दोस्त बनकर दिया जिसने' मुझको जहर,
दिल  से'   मेरे  वही  आज  बेघर  हुआ।
🌲🌲
ख्वाहिशें थी बहुत जिन्दगी में मगर,
रूठ जो  वो  गईं तो मैं' बंजर हुआ।
🌴🌴
जिसने' अक्सर कहा खुद को अंगार है
मुश्किलें  देख  वो आज  कायर  हुआ।
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विनोद चन्द्र भट्ट,
गौचर(उत्तराखण्ड)

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