'काव्य-शिल्पी' फिलबदीह - ०८
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ख्वाब था जो कभी अब समन्दर हुआ ।
जश्न में डूबा' हर एक मन्ज़र हुआ ।
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देखता मैं रहा उनकी' दरिया दिली,
प्यार में लुट गया ऐसा' अक्सर हुआ।
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खुशनुमा जिन्दगी जो मुझे मिल गई,
अपने' दिल का मैं' देखो सिकन्दर हुआ।
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दोस्त बनकर दिया जिसने' मुझको जहर,
दिल से' मेरे वही आज बेघर हुआ।
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ख्वाहिशें थी बहुत जिन्दगी में मगर,
रूठ जो वो गईं तो मैं' बंजर हुआ।
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जिसने' अक्सर कहा खुद को अंगार है
मुश्किलें देख वो आज कायर हुआ।
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विनोद चन्द्र भट्ट,
गौचर(उत्तराखण्ड)
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