सोमवार, 15 अगस्त 2016

नज़र द्विवेदी की एक उम्दा ग़ज़ल

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ज़ीस्त में तेरी बता फिर क्या मज़ा रह जाएगा ।
तू अगर इक शख़्स को ही सोचता रह जाएगा ।।
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मंज़िलें पा कर मुसाफ़िर भूल जाएंगे उसे ।
शाम होते ही अकेला रास्ता रह जाएगा ।।
🍂🍂
दफ़्अतन तर्क़े तअल्लुक़ का असर होगा ज़रूर ।
उम्र भर सीने में इक कांटा चुभा रह जाएगा ।।
🔻🔻
पढ़ न पाये आप जो होंठों की ये ख़ामोशियां ।
अनकहे लफ़्ज़ों का मतलब गुमशुदा रह जाएगा ।।
🍁🍁
भूल जाएगा तू इक दिन अपने होने का सबूत ।
दूसरों के ऐब ही गर देखता रह जाएगा ।।
🐚🐚
मुद्दतों लिखता रहा जिसको लहू से, अश्क से ।
क्या ख़बर थी ख़त वो मेरा अनपढ़ा रह जाएगा ।।
🌱🌲
बादशाहत इन रिवाज़ों की डराती है मुझे ।
क़ैद इनमें ही रहा तो क्या नया रह जाएगा ।।
🌷🌷
दफ़्न तू ने कर दिया बेशक "नज़र" के जिस्म को ।
खाक बन कर हश्र तक वह फैलता रह जाएगा ।।
🍀🌿🌾🍀🍁

Nazar Dwivedi
नज़र द्विवेदी

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