बुधवार, 24 अगस्त 2016

विजय बागरी जी की उम्दा ग़ज़ल

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बड़ी अजीब है इस क़ायनात की महफ़िल।
कहीँ निजात कहीँ मुश्किलात की महफ़िल।।
🌵🌺
कहीँ रोती हुई खुशियों की सहर और कहीं।
मुस्कुराती हुई दर्दो की रात की महफ़िल।।
🌿🍀
वो फ़रेबों की नुमाइश वो मखमली सूरत।
वो गुलबदन है किसी वारदात की महफ़िल।।
🌳🌲
ये  बहारें  ये  नज़ारे  तो  चार  दिन  के  हैं।
आख़िरश ज़िंदगी जश्ने वफ़ात की महफ़िल।।
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यूँ समझ लो कि बिसातें बिछीं अदावत की।
नज़र आती है फ़क़त इख़्तलात की महफ़िल।।
🌼🌺
शक़्ल  इंसान  की  करतूत  दरिंदों  जैसी।
कंकरीटों के शहर जंगलात की महफ़िल।।
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बदगुमानी  के  नशे  में  हसीन  रातों  को।
कौन कहता है"विजय"एहतियात की महफ़िल।
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विजय बागरी"विजय"

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