सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

संजीव मिश्र जी के मनभावन 6 गीत 【काव्य शिल्पी】


           ऋतुराज
आमंत्रण ऋतुराज का प्रिय स्वीकार करो।
धूल हटा दर्पण की फिर श्रंगार करो।
महको जैसे सुमन,कि तुम पर गीत लिखूं॥
पवन वसंती लालायित तन छूने को,
कांधे से अपने आंचल को ढलका दो।
तृषित नयन मेरे देखें अपलक तुम को,
रूप की गागर से मधुरस को छलका दो।
पी मतवाला हो जाऊं इक प्याला दो।
प्रण प्रिये अपने अधरों की हाला दो।
मिटे प्रीत की अगन,कि तुम पर गीत लिखूं॥
रंग फागुनी बिखरे भू से अंबर तक,
इन रंगों को अपने आंचल में भर लो।
हथेलियों पर रंग सजाकर मेंहदी के,
माथे अपने सिंदूरी सूरज धर लो।
नीरस जीवन को अपना आलिंगन दो।
जागे एक उमंग प्रियतमे फागुन दो।
रंग भरी दो छुअन,कि तुमपर गीत लिखूं॥"
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  गाय बेंच हम आये
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"गौमाता कह कह कर जिसके,
    चरणों शीश नवाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
सागर मंथन से निकलीं वह,
    कामधेनु कहलायीं।
जन जन की वह पूज्या हो कर,
ऋषियों के मन भायीं।
जिसके अंग अंग में आकर,
    सारे देव समाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
जसुदा नंदन किशन कन्हैया,
   माखन के मतवाले।
नंद बबा के अगनित गैय्या,
  वह उनके रखवाले।
गौसेवा करके मनमोहन,
   हैं गोपाल कहाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये॥
दूध दही माखन देकर भी,
     हमसे क्या है पाया।
बृद्ध हुयीं जब गौमाता तब,
     हमने है बिसराया।
चिल्लाये फिर गली गली हम,
   गौहत्या रुक जाये।
फिर क्यों गाय बेंच हम आये।
    अन्न प्रदाता
         *********
     
"सरकारों की बाजारों की,
      हर मनमानी को सहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
कितने ही स्वप्न संजोये जब,
    लेकर अनाज बाज़ार गया।
आधे दामों में बिकी फसल,
     वह अपना सबकुछ हार गया।
हर स्वप्न द्रवित हो कर उस के,
      दोनों नयनों से बहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
मन ही मन अपने सोंच रहा,
      क्या अपनों को बतलायेगा।
कैसे ब्याहेगा बिटिया को,
       बेटा कैसे पढ़ पायेगा।
जब जब देखे वह अपनों को,
       उस के अंतर कुछ ढहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥
धीरे धीरे सब भूल गया,
      फिर से जा पहुँचा खेतों पर।
फिर मेहनत वह दिनरात करे,
      कुछ स्वप्न नये नयनों में धर।
हर बार छला जाता फिरभी,
       सपनों में जीता रहता है।
जग अन्न प्रदाता कहता है॥"
      **************
       
     बेटियां
    :::::::::::::::::::::
"कोमल पंखों से छू लेंगी,
       ये अंवर उड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर॥
भाग्यवान वह जिसके घर में,
  गूंजे बेटी की किलकारी।
बेटा है यदि घर का दीपक,
   बेटी आंगन की फुलवारी।
हरपल रहतीं साथ हमारे,
         सुख दुख से जुड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर॥
इनमें भी है अंश हमारा,
   इनको मत कम करके जानो।
लता साइना किरन सरीखे,
    इनके सपनों को पहचानो।
सच कर सकतीं हैं हर सपना,
      ये भी लिख पढ़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर ॥
जग जननी ये शक्ति स्वरूपा,
    इनके अंतर मातु भवानी।
सीता अनसुइया सी पावन,
   लक्ष्मी बाई सी मर्दानी।
सावित्री बन छीनें पति को,
       ये यम से लड़ कर।
बेटियां बेटों से बढ़ कर ॥"


   पति परमेश्वर
       ***********
       
"बाहर घूमें सीना ताने,
      घर में सहमे  से रहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
पत्नी के कहने पर बैठें,
    पत्नी कह दे तो उठ जायें।
पत्नी कह दे तो व्रत रखलें,
    पत्नी के कहने पर खायें।
अधरों पर हैं मुस्कान लिये,
     अंदर से आंसू बहते हैं।
ऐसे प्राणी को ही जग में,
   पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
इतनी औकात कहां इनमें,
    टीवी का चैनल बदल सकें।
कब इतना साहस मर्जी से,
    घर के बाहर भी निकल सकें।
कितने ही स्वप्न सलौने से,
     इनकी आंखों से ढहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
काला सफेद उल्टा सीधा,
   जो होता हो वो होने दे।
चाहें सूरज सर चढ़ आये,
    पत्नी सोयी हो सोने दे।
चुपचाप बिचारे जीवन भर,
     हर जुल्मोसितम को सहते हैं।
ऐसे ही प्राणी को जग में,
     पति परमेश्वर जी कहते हैं॥
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      नारी जीवन
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"युग बदले पर बदल न पाया,
     नारी का इतिहास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥
युगों युगों से जो घेरे थीं,
     अब भी वही व्यथायें हैं।
कदम कदम पर बेबस करतीं,
    अगनित कुटिल प्रथायें हैं।
जब आगे बढना चाहे तो,
    मिलता है उपहास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
    हर युग में बनबास॥
अनजाने भय को लेकर वह,
     सहम सहम जीती पल पल।
कौन कहां कब मैला करदे,
     गंगा सा पावन आंचल।
गांव गांव में शहर शहर में,
     टूट रहा विश्वास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥
मातृशक्ति हो निर्भय जग में,
      हम सबसे सम्मान मिले।
उसके नयनों के सपनों को,
     एक नयी पहचान मिले।
मुरझाये अब फूल न कोई,
      मिलकर करें प्रयास।
हर युग होती अग्निपरीक्षा,
     हर युग में बनबास॥"

"परिचय"----
नाम - संजीव मिश्रा
पिता - स्व. श्री कृष्ण चन्द्र मिश्रा
माता- स्व. श्रीमती रामगुनी
पत्नी - श्रीमती शशि मिश्रा
पुत्री- कु. सोनाक्षी मिश्रा
पता - 359 - नयी बस्ती -G G I C के पीछे - पीलीभीत(उ. प्र.) पिनकोड - 262001
संप्रति मोदी नेचुरल्स लि. मे कर्यरत।
गीत विधा में लेखन।
गीतसंग्रह " राजदुलारी" प्रकाशनाधीन।
बिभिन्न पत्रिकाओं में गीतों का प्रकाशन।
दूरदर्शन एवं आकाशवाणी गीतों का प्रसारण।
विशेष टिप्पणियाँ------
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राहुल द्विवेदी स्मित:--------
आज आदरणीय संजीव मिश्र जी के गीतों से परिचय प्राप्त करने का समय है ।
आदरणीय संजीव जी मेरे पसंदीदा गीतकारों में हैं । आप के गीत आपके व्यक्तित्व का स्पष्ट प्रदर्शन करते हैं ।
आपके गीतों पर कुछ भी लिखना सूरज को दिया दिखाने सा होगा ।
बस आपको गीतों का आनंद लेना चाहता हूँ ।
नमन आपको व आपकी लेखनी को
विजय नारायण सिंह:-----
आदरणीय संजीव मिश्र सर के गीतों का रसास्वादन किया, बड़ा आनन्द आया ।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपसे व्यक्तिगत रूप से परिचित होने का अवसर मिला ।
मिश्र सर के गीतों मे भाव, लय, सुर और काव्य के अलावा जो मिठास भरी रहती है, वो एक परिपक्व गीतकार में ही हो सकती है ।
नमन आपकी प्रतिभा को, आपकी लेखनी को और ढेरों शुभकामनायें ॥
- विजय नारायण सिंह "बेरुका"
दिनेश पाण्डेय बरौंसा:-------
वाह्ह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह्ह्  आहा आपके गीतों के तो क्या कहने आदरणीय श्री आपके समस्त गीत उम्दा एवं सटीक शिल्पयुक्त भावों से भरपूर हैं जिन्हें पढ़कर मन भावबिभोर हो गया। आपको एवं सहृदय बधाई संग सादर नमन 
विनोद चन्द्र भट्ट गौचर: ------------

वाह्ह्ह्ह्ह्ह!!!
बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति।  बेहतरीन गीत!भाव सम्प्रेषण लाजवाब है।
वाह!आदरणीय संजीव मिश्रा जी
आपकी भावाभिव्यक्ति को नमन!आपके गीतों से निश्चित ही मुझ जैसे नवागत रचनाकार को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
वाह्ह्ह्ह्ह!!!
आपको हार्दिक बधाई व मंगलकामनाएं।
     सादर नमन
अलोक मित्तल :--------
बहुत ही सुन्दर गीत कहे है आपने संजीव जी अलग अलग भावो को पिरोया है आपने
गऊ माता हम बेच आये .. बेहतरीन है
पतिपरमेश्वर क्या कहे सब का हाल एक जैसा है कोई कह देता कोई चुप सहन कर लेता ...लाजवाब
ऋतुराज ..बहुत सुन्दर
अन्न प्रदाता बहुत सुन्दर गीत किसानो का दर्द बखूबी लिखा आपने वाहह
बधाई आपको

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