रविवार, 14 फ़रवरी 2016

शिरीष नाईक की तीन ग़ज़लें

          ग़ज़ल--1

आज जो मुझको दिखा है आईना
खूब मुश्किल में पड़ा है आईना

सच कहाँ दिखला रहा है आईना
अब नकाबों से सजा है आईना

अक्स की मेरे थी मुझको ही तलाश
उसका चेहरा ही दिखा है आईना

जब से रूठे है मेरे दिलदार भी
मुझसे मेरा ही रूठा है आईना

जब कभी ये हुस्न को निहारता
दीवाना आशिक लगा है आईना

जब कभी तन्हाई में रहता हूँ मैं
बन के मैं मुझको मिला है आईना

जब कभी होने लगे तुझको गुरुर
इक निगाह देख लेना आईना

रोती हँसती और संवरती जिस्त में
उम्रभर बस साथ देता आईना

                ग़ज़ल--2

इस क़दर बनके सबा आप मुझे छू निकले....
अब तो हर सांस से बस आप कि खुशबू निकले....

तू नहीं है तो मेरे घर में है उदासी कुछ....
ढूंढने तुझको मेरे चश्म के जुगनू निकले....

मेरा तो सब्र भी हद से ही गुजर जाता है
तहज्जुल की अजाँ से कोई जादू निकले

इल्तिज़ा मेरी हमेशा ही रही मौला से
जिस्त से कोई मुकम्मल तो आरजू निकले

क्या जमीं पर है सितारा कोई रौशन तो हुआ
चाँद सूरज यूँ फलक पर जो दूबदू निकले

ज़ेर-ए-आसमाँ क्या कोई ला-ज़वाल रहा
बे-इंतिहा क्यों बशर की यूँ जुस्तजू निकले

शौक़-ए-आस्ताँ कोई मेरा बाकी न रहा
अब मोजेजा हो दिल से न तू निकले

         
          ग़ज़ल--3

कितने किरदार है कहानी में
वक्त की उलझी इस रवानी में।

इन सवालों का फायदा अब क्या
फूल कितने मिले जवानी में।

जब मैं निकला हूँ घर से बाहर तो
चाँद सूरज थे मेजबानी में।

आशिकी में तो ये रिवायत है
जख्म उसने दिया निशानी में।

मेरी मुरझा गई है यादे वो
मैं था जिनके ही बागबानी में।

©शिरीष नाईक

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