गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर का आलेख

        अवनीश त्रिपाठी के गीतों से गुजरते हुए
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     आदरणीय रामकिशोर दहिया जी के सौजन्य से संवेदनात्मक आलोक नवगीत विमर्श के मंच पर अवनीश त्रिपाठी के गीतों से गुजरते हुए भावनाओं के जिस निर्झर के छोर पर खड़ा हूँ ,वह अछोर है। अनंतिम है। जहाँ तक मेरी भौतिक  दृष्टि पहुँच पा  रही है,कह सकता हूँ कि इस कवि के हृदय-प्रपात की कल-कल रागिनी किसी विजन वन की रागिनी नहीं है । वह उस अधर की ओर उन्मुख होकर प्रवाहित है जो--
''प्यास/
अधरों पर हमारे/
छलछलाई रात भर."
है।
      इनके गीत 'नवगीत की परंपरा' के केवल बिंबधर्मी गीत भर नहीं हैं। ये गीत अपनी परंपरा के साथ-साथ अपने परिवेश के गीत भी हैं।गीत में नई पीढ़ी की पीड़ाएँ अपने -अपने पीढ़े पर बैठी युगीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उद्यम-देव का आह्वान करती हुई मिलती हैं-

'प्यास लेकर/
जी रही हैं/
आज समिधाएँ नई.
कुंड में पड़ने लगी हैं/
क्षुब्ध आहुतियाँ कई.'  
                 प्रदीर्घ कविता के कथ्य को अपने छोटे-से कलेवर में समेटे हुए है यह गीत। तार-तार होते आज़ादी के स्वर्णिम स्वप्न हों या स्वराज के आगमन के बाद से लेकर आज तक का (समकालीन) यथार्थ सब  के सब परिदृश्य  इस गीत में इतने गाढ़े रूप में अंतर्गुंफित हैं कि ठहरकर और सावधानी से न देखने पर वे हमारी दृष्टि को चौंधिया देते हैं।
                'क्षुब्ध आहुतियाँ ',धुएँ का मंत्र', 'छांव  के भी पाँव में छाले','थोथे  मुखौटे','वस्त्र के झीने झरोखे 'और उन झरोखों को 'टाँकती अवहेलना' जैसे प्रयोग नवगीत को उसके 'बिंबधर्मी 'चरित्र के साथ-साथ  प्रगति धर्मी भी बनाते हैं। यह परंपरा का समृद्धीकरण और नवीनी करण  दोनों है।जीवन की विद्रूपताओं का इतना सुंदर मानवीकरण और रूपकीकरण एक साथ देखकर मैं तो कवि की प्रतिभा से चमत्कृत हूँ। मैं तो पहले गीत में ही अटक गया हूँ । इतने गहरे संवेदन से बुने गीत को बिना गुने कैसे आगे बढ़ जाऊं । गीतकार के नवोदित और युवा होने की बात उसकी सर्जनात्मकता को किसी  भी तरह बिल्कुल प्रभावित नहीं करती। जिस अर्थ में प्रभावित भी करती है, वहाँ वह उसे ऊर्जा से अभिसिञ्चित करती हुई दिखती है।इस परिप्रेक्ष्य में यही कहना उचित होगा---
'तेजसानाम् वयःन  समीक्ष्यते ।'
        अगले गीत में भी यथार्थ ही मुखर है। यहाँ जीवन में घुलते अँधेरों का एहसास देखा जा सकता है-

''अँधियारे का रिश्ता लेकर /
द्वार खड़ी रातें/
ड्योढ़ी पर /
जलते दीपक की /
आस हुई अब कम।"
                   इतना ही नहीं यह अंधेरा  आँखों की रोशनी को डरा भी रहा है,जिसकी कंपकंपी भीतर तक समाई जा रही है -----
,"भूख किताबी /
बाँच रही अब /
चूल्हे का संवाद /
देह बुढ़ापे की लाठी पर/
काँपे अंतर्तम।"
                   तीसरे गीत में बेमानी होते शब्दों के प्रति गीतकार की संवेदना आदिकवि की परंपरा से  जोड़ कर उसे सीधे करुणा के उत्स पर ही खड़ाकर देती है-

"अर्थ भी गंभीर/
संवेदन लिए/
शब्द की अर्थी /
उठाकर चल दिए ।"
                        कुछ गीत अपने रूप और गंध दोनों को ही दोनों हाथों में लिए हुए गीत और नवगीत की देहरी पर खड़े हैं ।ये अपने पूर्ववर्ती यानी पारंपरिक गीत की देहरी को पार किए बिना ही नवगीत का संधि पत्र लहराते हुए उसकी नई इबारत लिखते हुए मिलते हैं।ये गीत अपनी सरलता और सहजता से भी अपने सम्मोहन में अटकाते हैं -

"सिसक रहा मन की सूली पर /
मृगछौना यह संवेदन /
कैसे दूर करे मृगतृष्णा /
कैसे त्यागे सम्मोहन।"
और ,
"रेत  भरे आँचल में अपने/
सावन की बेटी /
सूखे खेतों से कहती है /
अब खैरात नहीं ............
द्वार देहरी/
सुबह साँझ सब/
लगते हैं रूठे/
दिन का /
थोड़ा दर्द समझती/
ऐसी रात नहीं।"
                    दिनोंदिन संवेदन शून्य होते जाते समय में संवाद के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं। हर ओर विवाद बढ़ रहे हैं।इसीलिए तो,---

"छलते संधि-समास पीर में/
रस के गाँव नहीं जुटते हैं।"

संवाद नहीं होगा तो विवाद बढ़ेगा ही। अतः उसकी चिंता को अक्षर-अक्षर समेटे छठे गीत में कवि मन सिर्फ उद्वेलित  भर ही  नहीं  है, वह यह उद्घोषणा भी करता है कि,---
"संवादों की अर्थी लेकर /आई नई सदी।"
              समकालीन जीवन सपनों और यथार्थ के संधि द्वार पर खड़ा है। लेकिन जिस संक्रांति द्वार पर वह खड़ा है उसकी दीवारें तक दुरभिसंधि  में संलग्न हैं। सपनों की  दूधिया चाँदनी की सुधा से नहलाने वाला सुधाकर ही चोर हो गया है-

अब चुराकर/
रात के सपने सजीले /
चाँद भी चुपचाप सोना चाहता है।
              यहाँ सपनों की हत्याएँ करने वाला क्रूर समय अपने रक्त रंजित हाथ लेकर बड़े निर्लज्ज भाव से हमारे स्वागत में खड़ा है---

सहज नहीं /
उद्बोधन जिनके  
टूट गईं सारी सीमाएं..............
फिर हठीला/
ज्ञान रसवंती नदी में/
रक्तरंजित हाथ धोना चाहता है।"
          यथार्थ के अँधेरों से लगातार हाथापाई करता हुआ गीतकार इस गीत तक आते-आते आखिरकार उस  दमघोंटू धुंध और धुएँ से बाहर निकल ही आता है। इस गीत में चोरी हो गए सपनों वाली रात से निजात पाकर वह ऐसी सुहानी रात तक सफर तय कर लेता है जहाँ आशाओं की पुष्पगंधा महमहाती महक है-----
***
झूमती/
डाली लता की/
महमहाई रात भर.........
नेह में
गुलदाउदी
रह-रह नहाई रात भर।"  
              इस गीत पर आकर  मुझे जो सबसे बड़ी खुशी मिली वह ये है कि यथार्थ के बीहड़ को  पार करने वाला कवि न तो निराश है और न ही समय की लहरों के थपेड़ों से टूट और कटकर बूढ़ा या  जर्जर हुआ है। वह युवा है।उसमें रोमांस भर का मांस अब भी शेष है। इसी  बल पर वह उस प्यास को संतृप्त कर सका है कि----
"प्यास/ अधरों पर हमारे/छलछलाई रात भर।"
          सभी गीतों में शिल्प की कसावट और शब्दों की बुनावट सम्मोहित करती है। रूपक ,प्रतीक और बिंब एकाध स्थलों को छोड़कर घसीटकर लाए हुए नहीं मिलते।इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि गीतकार ने सायास कुछ भी नहीं किया है। कहीं-कहीं घिसटन साफ़-साफ़ दिखती है।लेकिन वह ऐसी नहीं कि पूरे गीत को भोंड़ी कर दे । कुछेक स्थलों पर आंतरिक लय भी  टूटती हुई-सी प्रतीत होती  है।लेकिन जहाँ -जहाँ और जब-जब इनको इंगित करने का मन हुआ। उल्लेख का मन बनाकर ठिठका भी तो थोड़ी ही देर में आगे बढ़ गया। चाह कर भी कुछ कर ही नहीं पाया । वह इसलिए कि ये त्रुटियाँ लगी ही  नहीं ।  इन अनदेखी की जा सकने  वाली  त्रुटियों को हमने प्रायः डिठौने की तरह ही पाया है।  
           यह सुखद ही है कि गीतकार की सामाजिक चेतना के भार के नीचे दबकर उसकी निजता दफ्न  नहीं हुई है।इसी कारण से उसके यहाँ सामाजिक चेतना की उद्दीप्त प्रतीति  के साथ -साथ निजी प्रीति भी उन्मुक्त भाव से अठखेलियाँ करती हुई मिल सकी  है-"प्रीति /अवगुंठन उठाकर /खिलखिलाई रात भर ।"
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              डॉ.  गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
              प्रोफेसर एवं अध्यक्ष (हिन्दी पीठ),
              एशियाई संस्कृति ,भाषा एवं दर्शन विभाग ,
              क्वाङ्ग्चौ वैदेशिक अध्ययन विश्व विद्यालय ,
                                   क्वाङ्ग्चौ,चीन।

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