असल में नवगीत की ताकत यही अक्षय पांडेय सरीखे ही स्वर बनेंगे। सत्ता के चरणों में लुढ़के उन महात्माओं को नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर, जिन को बुद्धि तक से दुश्मनी है. जुमलों से सत्ता पर काबिज़ होकर क्रूरता की हदें लांघना जिनकी विशेषता हो, उनके प्रशंसक भी जुमला-जीवी ही होंगे। लेकिन हमें इन्हीं कील-काँटों को भोथरा करते हुए रचनारत रहना है - प्रो.राजेन्द्र गौतम, नई दिल्ली
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साधो ! यह कैसी सरकार
बीच सड़क पर बिछा रही है कील-कंटकित तार।
अन्धा भी अब देख रहा है
'राजा की दाढ़ी में तिनका',
'परजा' बैठी है धरने पर
डूब गया रवि 'अच्छे दिन' का,
घोर निशा है दिशा न सूझे नाव पड़ी मझधार।
आँधी ने सब तोड़ दिया अब
टूट-फूट बिखराव गिन रहे,
भगत बोस अशफ़ाक राजगुरु
अपने-अपने घाव गिन रहे,
बेघर हुए सपन आँखों के आंगन में दीवार।
न्यायालय की नींव हिल रही
सबके भीतर डर बैठा है,
किससे जन फ़रियाद करें अब
जज मुज़रिम के घर बैठा है,
सच के सहचर बिके हुए हैं टीवी 'औ' अख़बार।
मिट्टी की मरजाद बेच कर
इसने सीखा जीने का ढब,
मुरझाये सब फूल डाल के
झड़ने लगे हरे पत्ते अब,
फैली ऐसी हवा विषैली देश हुआ बीमार।
अक्षय पाण्डेय
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