सोमवार, 28 जून 2021

समीक्षा- मानवीय संवेदना और अनुभूतियों की सार्थक अभिव्यक्ति के गीत by अवनीश त्रिपाठी

कृति- 'अक्षर अक्षर गीत' (गीत संग्रह)
कवयित्री- Chhaya Tripathi Ojha
प्रकाशन- Subhanjali Prakashan कानपुर
वर्ष-2018 पृष्ठ-128
मूल्य- 200 सजिल्द
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                 "बनकर सुर संगीत
                 अधर पर आओ तुम
                 अक्षर-अक्षर गीतों के
                    बन जाओ तुम।"
     कविता क्या है?इसे परिभाषित करते हुए आचार्य विश्वनाथ कहते हैं- "रसात्मकं वाक्यं काव्यम्।" इससे कुछ आगे बढ़कर गीत के विषय में अमरकोश में परिभाषित किया गया - "सुस्वरं,सरसं चैव सरागं मधुराक्षरं/सालंकारं प्रमाणं च षडविधं गीतलक्षणं।" इन दोनों परिभाषाओं को मान तो लें लेकिन अवलोकनीय है कि गीत, कविता का अत्यंत निजी स्वर ही नहीं है वरन यह कविता का आद्य रूप है। इसके आदिम स्रोतों की कठिन खोज श्रमसाध्य रही है जिसमें पश्चिमी विद्वानों क्रिस्टोफर कॉडवेल, जॉर्ज थॉमसन आदि ने बहुत परिश्रम किया और इस निष्कर्ष पर आए कि कविता का आदिम उद्भव समाज में सामूहिक श्रम-प्रक्रिया के समय गीतों के रूप में हुआ था। लोग समूहों में संगीत,नृत्य आदि सांस्कृतिक क्रियाएँ समेकित रूप में किया करते थे और थकान दूर करने के लिए गीतों को सामूहिक स्वर भी देते थे और नई ऊर्जा से भर उठते थे।कॉडवेल कहते हैं-"गीतों की कलात्मक अंतर्वस्तु कार्यभार की आवश्यकता से जुड़ी होती है और उसके पीछे छिपे आवेग को व्यक्त करती है।" इससे थोड़ा और आगे जाकर आलोचक नचिकेता जी कहते हैं-"गीत संपूर्ण मानवीय संवेदना के सर्वोच्च निचोड़ की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है।" यह परिभाषा तर्कसंगत भी है और उचित भी। क्योंकि जब तक कविता में मानवीय संवेदनाओं का निचोड़ न सम्मिलित हो तब तक उसे गीत नहीं कह सकते।उमाकान्त मालवीय जी ने अपने एक नवगीत में गीत की अद्भुत व्याख्या दी है-"गीत एक अनवरत नदी है/कुठिला भर नेकी है/सूप भर बदी है"।कुल मिलाकर स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय हिंदी साहित्य में गीत के साथ बहुत से प्रयोग हुए लेकिन उनका प्रभाव गीत की मौलिकता पर नहीं पड़ने पाया।गीत लोक की भावनाओं का संवरण करता हुआ और उनकी समस्याओं का उल्लेख करने के साथ ही उन समस्याओं का हल खोजने का प्रयास भी करता हुआ अनवरत अपनी गति में है।
      जौनपुर में जन्मी,पली बढ़ीं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य विषय से  परास्नातक छाया त्रिपाठी ओझा भी इसी वर्तमान पीढ़ी की गीत-कवयित्री हैं। उनके मन में भी आज की सामाजिक स्थिति और राजनैतिक दशा-दिशा के प्रति क्षोभ व्याप्त है।वे परिवार की विसंगतियों, अशिक्षा एवं स्त्रीदशा के प्रति चिंता के साथ-साथ वियोग श्रृंगार को भी अपने गीतों का एक पक्ष स्वीकार करती हैं। 'अक्षर-अक्षर गीत' उनका प्रथम गीत संग्रह है। शीर्षक से स्पष्ट है कि कवयित्री ने मायके से लेकर,विद्यालय और ससुराल के साथ-साथ अपने कर्मक्षेत्र में भी जीवन के प्रत्येक अक्षर में गीत और कविता को ही महसूस किया है।संग्रह के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित गीताक्षर यही बयान भी कर रहे हैं। सच ही तो है कि कवि का हर अक्षर गीत ही होता है।छाया त्रिपाठी मानव मन की अनुभूतियों के गीत गाती हैं लेकिन उनके गीत आत्मपरक भर नहीं होते वे वस्तुपरक भी रहते हैं।अर्थात उनके गीत व्यष्टिगत न होकर समष्टिगत होते चले गए हैं।जो कि आजकल के नवगीतों में ही दिखाई देता है।
        छायावादोत्तर काल में हिंदी साहित्य में उभरे प्रगति-प्रयोगवाद ने छंद को रिजेक्ट करने का भरसक प्रयास किया लेकिन इसका एक अच्छा प्रभाव यह भी रहा कि गीत अपनी परंपरा से बाहर निकल आया।1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु और 1967 में नक्सल किसान आंदोलन और 1970 के उपरांत कई प्रदेशों में कांग्रेस सरकारों का पतन होना हिंदी साहित्य की दिशा बदलने के लिए काफी था।यहीं से हिंदी गीत ने आत्मानुभूति के अतिरिक्त जन की बात कहते हुए दुःख, वियोग, सन्त्रास, विद्रूपता, समाज की पीड़ा, शोषित वर्ग के रहन-सहन और उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति का ताना बाना बुनना आरम्भ कर दिया। छाया जी इसी काल में जन्म लेती हैं और बीसवीं सदी के अंत में छात्र जीवन से ही कविताक्षेत्र में पाँव रखती हैं।तत्कालीन स्थिति से अवगत कराते हुए इस संग्रह के दो गीत 'घाव पर टाँका नहीं' और 'रात अँधेरी' समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आदिम युग से अद्यतन केवल पीड़ित है,खुशियाँ तो शायद कल्पनाओं में भी नहीं।कवयित्री शहर की चकाचौंध से बहुत दूर उस परिवेश को भली भाँति जानती हैं क्योंकि उनके जीवन का आरम्भिक समय उसी घुटनभरे माहौल में बीता हुआ है---
"हैं दुखों के पाँव विह्वल
घाव पर टाँका नहीं
हो गईं सदियाँ सुखों ने 
आज तक झाँका नहीं।"
        इस गीत की ये पंक्तियाँ मार्क्सवादियों, समाजवादियों और राष्ट्रभक्तों सभी के मुँह पर तमाचा जड़ने के लिए काफ़ी हैं जो देश के हर कोने में सुख की कल्पना में तल्लीन हैं---
"सिर्फ दुखाने दिल को मेरे
रात अँधेरी आती है 
कैसे करूँ उजाला आखिर
दीया और न बाती है
दिन भर बिटिया भूली रहती
दिन ढलते चिल्लाती है !
भूख लगी है अम्मा मुझको
कहकर शोर मचाती है !
क्या उसको दूँ खाने को मैं
सोच आँख भर जाती है।"
        लयसंपृक्ति के विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए भी गीत से निरन्तर लय का प्रस्फुटन होते रहना ही गीत का वैशिष्ट्य रहा है। उसका आत्मप्राण रहा है। गीत ने प्रयोग-प्रकारांतर से अपने रूप और स्वरूप दोनों में परिवर्तन स्वीकार किया।प्रतीकों और बिम्बों के प्रयोग के लिए गीत विधा का प्रयोगधर्मी होना समय की प्रासंगिकता भी है और गीत का नव होना भी। सच मानिये तो आरम्भ के दिनों से आज का गीत नई पीढ़ी का गीतभर नहीं है बल्कि अब वह अपनी युवावस्था को जी रहा है।इसी परंपरा में छाया त्रिपाठी बिम्बों के अनूठे प्रयोग करती हैं।आज के थोथे परिवेश में देश के प्रधान प्रहरी से प्रश्न करने के लिए उन्होंने सीधे संवाद की जगह बिम्बात्मकता को प्रश्रय दिया--
"हीरे मोती नवरत्नों से 
भरे हुए हो मान लिया !
तुम विशाल हो तुम महान हो
जलधि नाम है जान लिया !
किन्तु पथिक घनघोर प्यास से
तट पर ही जीवन हारा।"
      समाज का आर्थिक अंतर स्पष्ट करने को छाया जी की ये पंक्तियाँ ही काफी हैं जिनमें कर्म-भाग्य का अंतर्द्वंद्व तो है ही उच्चवर्ग के उस चश्मे को भी हम महसूस सकते हैं जिस पर निम्न वर्ग के लिए पट्टी लगी हुई है.....
"कहीं दीप से रोशन घर है
कहीं अँधेरे में छप्पर है !
कहीं हँसें बारिश की बूँदें 
कहीं खुशी है आँखें मूँदें !
कर्म भाग्य में जगह जगह बस
जारी केवल खींचातानी।"
         नामवर सिंह जब यह कहते हैं -"गीत और liric में आप दुख, दर्द, वियोग की वेदना को और जीवनदर्शन को अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं और मिलनोच्छवास की भावना को भी अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं किंतु उसमें गरीबी,उत्पीड़न और आक्रोश की बात करने पर उसकी गेयता नष्ट हो जाती है और वह song बन जाता है।" आश्चर्य होता है यह पढ़कर कि song गाया नहीं जा सकता। उनकी इस विचारधारा से मैं क्या कोई भी सहमत नहीं होना चाहेगा।यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा गीतकार धीरज श्रीवास्तव के गीत संग्रह 'मेरे गाँव की चिनमुनकी' और छाया त्रिपाठी ओझा के इस गीत संकलन का, जिनमें लगभग गीत song ही हैं और उनकी लय और गेयता में कोई कमी नहीं आई है---
" कौन कहता है कि मेरा 
देश विकसित हो रहा
आदमी ही आदमी के 
भार को जब ढो रहा।
धन मिला धनवान को ही 
सभ्य ही विकसित हुए
थी जिन्हें इसकी जरूरत
पाँव उनके दुख छुए
कब जगेगा देश यह
जो आज भी है सो रहा?" 
         या फिर 
"जीवन भर करते मजदूरी 
इच्छाएँ पर रहीं अधूरी 
गिरवी रख कर सब कुछ अपना 
देखा था कुछ माँ ने सपना 
सोच सोच भर आती आँखें 
कैसे मुझको पाला पोसा !" 
     अब इससे अच्छी लय और गेयता क्या मात्र लिरिक में ही होती है? आलोचक और नवगीतकार नचिकेता कहते हैं-"अनुभूतिक संरचना, भाषा,शिल्प,लय, छंद, विषयवस्तु और संवेदना के धरातल पर गीत रचना की शैली एक जैसी ही रही है।" तात्पर्य यह कि गीत का कोई भी प्रकार हो गेयता रहती ही है।
         आधुनिक दौर में छाया जी के गीतों में व्यंग्य का पुट भी गहनता से व्याप्त है।इनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों के प्रति मन में उपजे हुए रोष को व्यंग्य के जरिये प्रकट किया गया।छाया जी ने सरकारी विभागों के दफ्तरों को बहुत करीब से देखा है और वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान परिवारों की दुर्दशा को सलीके से इंगित करते हुए उनके आक्रोश को सहज ही महसूस किया जा जा सकता है--
"खाँसे बापू बिना दवाई 
भाई बैठा  छोड़ पढ़ाई 
करके कर्म बहुत है देखा 
किन्तु न बदली अब तक रेखा 
भ्रष्ट बाबुओं के घर चाँदी 
दिन भर चलता चाय समोसा !"
       दुर्भाग्यवश गीतकार के सर से पिता का साया जल्दी उठ गया इस कारण से उनके कविमन में पिता के प्रति समर्पण का भाव स्फूर्त रूप में बना हुआ है जो उन्हें एक अलौकिक ऊर्जा भी देता है और पाठकों को एक सन्देश भी भेजता है-
"मैं तुम्हारे नाम को रोशन करूँगी
इस जमाने से नहीं किंचित डरूँगी,
आस्था,विश्वास,श्रद्धा ज्ञान हो तुम
आत्मबल हो मान हो सम्मान हो तुम
तुम सुखद नेहिल मधुर अहसास मेरे
आज भी हो तुम पिता विश्वास मेरे।"
     एक स्त्री के ससुराल में होने पर अपनी उस माँ की स्मृतियाँ हरदम कचोटती ही रहती हैं जो जन्म से लेकर विवाह तक हर क्षण एक मार्गदर्शक की भूमिका में रही-
"जग के निष्ठुर रिश्ते नाते 
हरदम ही हमको छलते,
प्रश्न बहुत से पड़े निरुत्तर
अवसादों में हम पलते,
तब आकर वह सपनों में भी
बालों को सहलाती है 
याद बहुत माँ आती है।"
     प्रेम की पराकाष्ठा में गीतकार ने भले ही अपने को सुरक्षित कर लिया हो लेकिन विछोह की चरम सीमा की कठिन स्थिति से वे पूर्णतः अवगत हैं और पारंपरिक ही सही लेकिन मौसम के माध्यम से सिन्होरा उलटने की अभिव्यक्ति करना बखूबी जानती हैं.....
"हर तरफ जेठ की निठुर धूप 
है कहीं दूर तक छाँव नहीं!
फैली कुछ है यूँ वीरानी 
ज्यों दूर दूर तक गाँव नहीं!
जल रहा प्रेम में सब कुछ है
संसार दुखों का सावन है।"
        कुल मिलाकर छाया त्रिपाठी ने प्रेम,स्नेह,वात्सल्य,वियोग,करुणा रस का पूर्ण निर्वहन किया है।प्रकृति का मानवीकरण और अर्थान्तरन्यास अलंकारों के साथ ही कुछेक स्थलों पर अनुप्रास का नियोजन भी बखूबी किया हुआ है। उन्होंने गाँव-गिरांव से लेकर शहर तक के दुःखों को करीब से देखा बूझा है इसलिए उनके गीतों में पीड़ा की अभिव्यक्ति का अतिरेक दिख जाता है और सामाजिक व्यवस्था पर आक्रोश भी आता दिखाई देता है।
     अंततः यहाँ गीत से संबंधित एक तथ्य का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ -"गीत के प्रति अज्ञेय ने इतना अधिक उकसा दिया था कि भाववादी और आधुनिकतावादी आलोचकों के साथ ही मार्क्सवादी आलोचकों ने भी गीत का विरोध ही किया। स्थिति यह रही कि नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय दोनों ने ही गीत के प्रति दोगला रवैया अपनाया। एक ओर तो वे गीत को कविता से अलग नहीं मानते हैं और कहते हैं कि "गीत कविता ही है,बल्कि कहना उचित होगा कि कविता की उत्पत्ति ही गीत से हुई है।" दूसरी ओर वे समकालीन कविता का मूल्यांकन करते हुए गीत की जितनी उपेक्षा कर सकते हैं करते ही रहते हैं।जबकि मार्क्स और लेनिन इस विचारधारा के विरोधी रहे थे।
      फ़िलहाल इन्हीं आलोचकों की तानाशाही के बीच गीत अपनी पूर्ण उपस्थिति दर्ज करा रहा है।गीत का प्रेम के भावात्मक स्तर पर एकांगी चोले को त्यागना और आमजन की पीड़ा,हम उसे संवेदना कहें तो और अच्छा होगा, को स्वीकार करते हुए सामाजिक विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति को संपादित करने का बीड़ा उठाकर सामयिक वार्तालाप करते हुए उसका उद्देश्य लोकहित में जन की समस्याओं,पीड़ाओं को उद्घाटित करते हुए विकल्पों को तलाशना है।शब्द,अर्थ के साथ साथ ध्वनि की निरंतरता शब्द विन्यास की उत्कृष्ट कला द्वारा प्रस्तुत करते हुए ही गीत को पाठकों से जोड़ा जा सकता है।जिसमें इस संकलन के गीत पूर्णतः समर्थ हैं।

समीक्षक-अवनीश त्रिपाठी
सुलतानपुर, उ.प्र.
मो.9451554243 

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