श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित दोहा संग्रह ‘सिसक रहा उपसर्ग’ श्री अवनीश त्रिपाठी का प्रथम दोहा संग्रह है। यद्यपि इससे पूर्व उनका एक नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुका है। वे सम्वेत् प्रकाशनों में भी छप चुके हैं। लेकिन ‘सिसक रहा उपसर्ग’ अपने नाम को चरितार्थ करता है। समीक्ष्य कृति पर भूमिका के रूप में भास्कर दृष्टि वरेण्य साहित्यकार रामबाबू रस्तोगी (रायबरेली ) की है तथा विस्तार से लिखा है नवगीतकार व ‘दोहों के सौ रंग’ की सम्पादक गरिमा सक्सेनाजी (बैंगलोर) ने।
एक लम्बे समय के बाद कथ्य और शिल्प की दृष्टि से सशक्त और विशुद्ध दोहा संग्रह देखने-पढ़ने को मिला। रचनाकार ने विषय-वैविध्य के साथ छंद-शास्त्र का पूर्णरूपेण परिपालन किया है। उनकी तत्सम् शब्दावली कथ्य को तीक्ष्ण व्यंजना प्रदान करती है। वे कबीर-रहीम-बिहारी की परम्परा से इतर अत्याधुनिक संदर्भों के साथ विषंगतियों पर प्रहार करते हैं। उनके दोहे अर्थगर्भी होकर पूर्ण संप्रेषणीयता के साथ मारक व भेदक हैं। भाषायी दृष्टि से उनके सृजन में कोई परहेज नहीं है। उन्होंने विजातीय शब्दों का भी प्रयोग किया है। लेकिन ऐसा करते समय दोहे का दोहापन जीवित रखा है। अन्त्यानुप्रास के प्रयोग पर उनकी सावधानियाँ उन्हें विशिष्टता प्रदान करती हैं। नवीन बिम्ब प्रयोग उनका नवगीतकार मन दोहों में भी ले आता है। ये समस्त विशेषताएँ उन्हें अन्य दोहाकारों से अलग पहचान देती हैं। यथार्थ से जोड़ता उनका एक भावपूर्ण दोहा पढ़ियेगा कि बूढ़ी माँ जब बोलती हैं, तो उनके हर शब्द के साथ साँस की भी आवाज़ आती है:-
बूढ़ी आँखों में नहीं, सन्दर्भों का स्वर्ग।
अम्मा के हर शब्द में, साँसों का उपसर्ग।।
आज समाज में सोशल मीडिया का बोलबाला है। यही आपसी व्यवहार और भावी रणनीति तय करता है। किस तरह शब्द हिंसक बनकर आग पैदा कर देते हैं। इस पर एक दोहा पढें :---
भाषा मरुथल-सी हुई, शब्द हो गये नाग।
बिन तीली के जल रही, हर समाज में आग।।
सामाजिक समानता और समान अधिकार के नाम पर हमारी आधुनिकता ने पारिवारिक अवसाद को जन्मा है। अनेक बार सामाजिकता को निगला है। पारिवारिक सौहार्द्र भंग किया है। ऐसे में गृहलक्ष्मी का गरिमापूर्ण चित्र उभर आता है। निम्न दोहा यही कह रहा है:----
तक्षशीला की पुस्तकें, नालंदा का ज्ञान।
गृहिणी के विज्ञान पर, ये सब हैं कुर्बान।।
ऐसे अनेक दोहे, जो समकालीन संदर्भों को अभिव्यक्त करते हैं, संग्रह में यत्र-तत्र भरे पड़े हैं। जिन्हें पढ़े बिना पाठक रह नहीं सकता। प्रांजल भाषा के साथ व्यंजनापूर्ण सुकोमल भावाभिव्यक्ति और पिंगल के प्रति सतर्क व सन्नद्ध रचनाकार श्री अवनीश त्रिपाठीजी इस संग्रह द्वारा साहित्यिक समाज में यश अर्जित करें, यह कृति समादृत हो, उन्हें बधाई।
समीक्षक- प्रभु त्रिवेदी
पुस्तक----
श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित 104 पृष्ठ का 430 दोहों वाला यह पैपर बैक संस्करण वर्तनी की अशुद्धियों से मुक्त होकर, मात्र 125/-रुपये मूल्य का है। सम्पर्क :- 8447540078
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