बुधवार, 30 जून 2021

ग्राम्य कथा का वर्तमान परिदृश्य और उपन्यास 'अँगूठे पर वसीयत' by अवनीश त्रिपाठी

समीक्षित पुस्तक: अँगूठे पर वसीयत (उपन्यास)
लेखक: शोभनाथ शुक्ल
प्रकाशक: साक्षी प्रकाशन संस्थान
1274/28 बढ़ैयावीर 
सिविल लाइन 2 सुलतानपुर उप्र
संस्करण: 2020 प्रथम
मूल्य:₹300 सजिल्द, पृष्ठ:252

   शोभनाथ शुक्ल के सद्यः प्रकाशित उपन्यास 'अँगूठे पर वसीयत' को पढ़ते हुए ग्राम्य कथा का वर्तमान परिदृश्य सचित्र आँखों के सामने जीवंत हो उठा।प्रेमचंद जैसे उपन्यासकार 'उपन्यास' को मानवचरित्र की प्रतिच्छवि के रूप में देखते थे।सच्चाई है कि यही उनका उद्देश्य भी रहा था।लेकिन इसका यह आशय नहीं था कि वे कथा की रोचकता की वकालत नहीं करते थे।उपन्यास में यथार्थवाद और यथार्थवाद का संगठनात्मक स्वरूप तो होना ही चाहिए लेकिन साथ ही कथा की रोचकता,प्रभावक्षमता और रसवत्ता आदि गुणों के प्रति भी लेखक को सजग रहने की आवश्यकता है।शोभनाथ शुक्ल के उपन्यास 'अँगूठे पर वसीयत' को इस रूप में भी कम अंक नहीं मिलते।यह उपन्यास आँचलिक ग्राम्य कथा पर केंद्रित है।जिसकी केंद्रीय कथावस्तु है फतेहपुर का एक गाँव।इसमें वही घटनायें और वही विचार हैं जिनसे कथा का माधुर्य बढ़ता जाता है और साथ ही प्लॉट भी विकसित होता जाता है।इससे यह बात हुई है कि उपन्यास के चरित्रों के गुप्त मनोभाव खुलकर प्रदर्शित होते गए हैं और गंभीर औपन्यासिक मंथन की परतें खुलती गईं हैं।लेखक ने केवल मनबहलाव की कथा के रूप इसे नहीं प्रस्तुत किया बल्कि सच्चा प्रभाव लाने के लिए भावयंत्र को सूक्ष्म और सजग बनाये रखा है। 'नवीनता' सापेक्ष शब्द है जिसकी जीवंतता बनी रहनी चाहिए।कुल्लीभाट,आधा गाँव,चाक और अँगूठे पर वसीयत को देखें तो निराला,राही मासूम रज़ा,मैत्रेयी पुष्पा में निश्चित ही कालसापेक्ष अंतर मिलेगा।इन सभी लेखकों से वही अंतर शोभनाथ शुक्ल में भी होगा।इसे हम चित्र के क्रमिक बदलाव की स्थिति कह सकते हैं।इसीलिए उक्त सभी उपन्यास अपने समय के प्रति जागरूक,कर्मचेतना या संघर्षचेतना के प्रति सजग रहे हैं और विस्फोटक यथार्थ का डटकर सामना करने हेतु पाठक को तैयार रहने के लिए भी कहते हैं।
         प्रयाग में एक कार्यक्रम में प्रगतिशील आलोचक प्रो. राजेन्द्र कुमार ने कहा कि 'प्रेमचंद के होरी की दशा तो विगत 80 वर्षों में काफी कुछ  बदली हुई है लेकिन हमें तलाश करनी चाहिए गोबर की,देखना होगा कि आजकल गोबर किस स्थिति में है और क्या कर रहा है।' अँगूठे पर वसीयत कहीं न कहीं उसी गोबर की जद्दोजहद से रूबरू है।बीसवीं सदी के आरम्भ में मराठी चिंतक विश्वनाथ राजवाड़े ने अपने आलेख में लिखा कि 'उपन्यास के मूल में यथार्थ की विचारधारा जरूर होनी चाहिए लेकिन उपन्यास की कलात्मकता में अद्भुत का स्पर्श भी होना चाहिए'।इस उपन्यास में रामबरन दुर्बल है यह यथार्थ है लेकिन जीवनी शक्ति और विलक्षण संघर्ष क्षमता अप्रत्याशित और अद्भुत है।उसकी पत्नी और सुमीता की भी वही दशा है।लेकिन जिजीविषा गज़ब की है इन तीनों में।लेखक ने इस उपन्यास में यथार्थ और अयथार्थ, यथार्थ और कल्पना, यथार्थ और अद्भुत, साधारण और अप्रत्याशित का योग किया है, इसे अपने अनुभव,आस्वाद और पाठ के अनुसार जाँचा-परखा जा सकता है।
         यह उपन्यास विभिन्न पात्रों के चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है।जिसमें सामाजिक चरित्र और प्रातिनिधिक चरित्र उपस्थित हैं।इसमें लेखक ने व्यक्तिवाद चरित्र से बचने का प्रयास किया है।इस तरह के पात्रों को वर्ग (Type) कहना ही उचित होगा।गोदान का होरी एक सामाजिक और प्रातिनिधिक चरित्र है तो रामबरन गरीब भी उसी प्रकार का है।होरी के चरित्र से पाठकों को भारतीय किसान की झलक मिलती है तो रामबरन गरीब का दुःख समाज के एक बड़े वर्ग का दुःख है।केंद्रीय पात्र के साथ ही अन्य पात्र भी वर्गीय चेतना के साथ साथ व्यक्ति चेतना के प्रतिनिधि बन गए हैं।सामाजिक और प्रातिनिधिक चरित्र औपन्यासिक रचनात्मकता का महत्वपूर्ण पक्ष हैं।उपन्यास एक साहित्यिक रूप है और जाहिर है कि उसका स्वरूप ऐतिहासिक मात्र नहीं होगा बल्कि उसके निर्माण में पूँजीवाद से प्रभावित अथवा युक्त दोनों प्रकार के वर्गीय मूल्यों की भूमिका भी होगी ही।इसीलिए उपन्यासों में चरित्र 'टाइप' (Type) या वर्गीय होते हैं। इस उपन्यास में भी रामबरन, परधानिन बुआ, चौबे, सुमीता ये सभी वर्ग विशेष के प्रतीक हैं।बल्लू का भी समाज में अपना ही एक अलग वर्ग है। अँगूठे पर वसीयत में हम समाज की वर्गीय संरचना और उसकी जटिलताओं को सहजता से देख-समझ सकते हैं।
        अँगूठे पर वसीयत जिस भूगोल पर केंद्रित है उसकी विशेषता ही इसके कथानक का रूप और अंतर्वस्तु निर्धारण कर रही है।कथानक के महत्वपूर्ण घटकों में देशकाल का उल्लेख होता चला गया है।यहाँ स्थान और समय दोनों महत्वपूर्ण है।इसमें कालविपर्यय और कथासमय का त्वरण महत्वपूर्ण है।रामबरन,बलराम,चौबे,सुमित्रा और सुमीता के अपने-अपने संघर्ष हैं जो कि ख़ास स्थान और समय के भीतर ही घटित हो रहे हैं जो कि इस उपन्यास का एक परिप्रेक्ष्य या फलक तैयार कर रहे हैं।
      उपन्यास की रचना प्रक्रिया में आचरण-सिद्धांतों और सौन्दर्य-सिद्धान्तों के मध्य एक जैसा सम्बन्ध होता है।जार्ज लुकाच के शब्दों में-"जहाँ तक उपन्यास का सम्बंध है,आचरण सिद्धांत अर्थात 'आचरण सिद्धांत से सम्बंधित आशय' प्रत्येक विवरण की बुनावट में दिखलाई पड़ता है,इसलिए वह अपनी अधिकतम मूर्त वस्तु में स्वयं कृति का एक संरचनात्मक तत्व होता है।" उपन्यासकार शोभनाथ शुक्ल की सृजन चेतना में आभ्यन्तरिकता विकसित रूप में है जो बाह्य जगत के शक्ति संगठनों का विरोध करते हुए अपनी ललक में व्याप्त विषयों की छाप बाहरी संसार पर छोड़ने की सफल चेष्टा कर रही है।यही कारण है कि यह उपन्यास चेतना और वस्तु के परस्पर असम्बन्धित परिवेशों की अमूर्त और सीमित प्रकृति को पहचान रहा है।साथ ही उक्त परिवेश के अस्तित्व की आवश्यक शर्तों के रूप को देख समझकर उसके मूल चरित्र को प्रस्तुत कर रहा है।
          इस उपन्यास की कथा कितनी ही स्वाभाविक,सहज और यथार्थपरक क्यों न लगे,अंततः उपन्यासकार ने एक परियोजना के अनुरूप ही उसे ढाल दिया है।उन्होंने कथावस्तु का एक यथार्थ ढाँचा कल्पित किया होगा, पात्रों की चयनप्रक्रिया के विषय में सोचा होगा और फिर देशकाल को तय करके उसे सम्बद्ध करते हुए इस उपन्यास को प्रस्तुत किया होगा।एक ऋणग्रस्त किसान रामबरन गरीब को गाँव गिरांव से ही सम्बद्ध कर सकते हैं, इसलिए ग्रामीणांचल का चुनाव किया गया। लेकिन वहीं चौबे और बल्लू हैं तो उसी अंचल के किंतु शहरी परिवेश से जुड़े हैं इसलिए वे उस झोपड़ी में रहना पसंद नहीं करते हैं।यद्यपि वे वहाँ रह सकते हैं जैसे कि धनाढ्य परधानिन बुआ सुमित्रा गाँव में रह रही हैं,जिसके यहाँ रहने के विषय में लेखक ने समुचित वजह बताया है।अँगूठे पर वसीयत की कथा काल्पनिक न होकर यथार्थपरक, स्वाभाविक और विश्वसनीय लग रही है।उसमें बनावटीपन नहीं है।नाटकीयता नहीं है।आख़िर में अस्पताल में बेड पर कोमा में पड़ा हुआ रामबरन, बल्लू द्वारा उपेक्षित होते हुए अतिउत्तेजना की अवस्था में अचानक से उठकर वसीयत को फाड़ देता है और चीखकर अस्पताल से बाहर चला जाता है।चिकित्सा विज्ञान में इस तरह की घटना अविश्वसनीय और अकल्पनीय जैसी लगेगी।लेकिन उक्त क्षण में उपन्यास का आंतरिक तर्क इस संभावना को भी स्वाभाविक बना दे रहा है।उपन्यासकार ने कथा विकास और चरित्र निर्माण के सारे सूत्रों को अपने हाथ में लिया हुआ है और कथा के कलात्मक संयम को बरकरार रखते हुए पात्रों को उनके मनोविज्ञान के अनुसार तथा अपनी भावनाओं और विचारों के अनुसार बहने दिया है।लेकिन कथा में झोल और दरारें नहीं आने दी हैं।जबकि लेखन के समय नये विकल्पों की परतें खूब खुली होंगी और उन्हें चुनौतीपूर्ण फैसले करने पड़े होंगे।
         उपन्यासों के विषय में एक वास्तविकता यह भी है कि भावों और विश्लेषण की उपेक्षा तथा व्यक्ति के अंतर्मुखी पक्ष को न देख सकने के कारण उपन्यास सूझबूझ और कल्पना दोनों ही स्थितियों से वंचित रह जाता है।शायद इसीलिए शोभनाथ शुक्ल ने समूचे कार्यक्षेत्र को व्यक्ति की चेतना में केंद्रित नहीं किया है बल्कि सच्चाई के साथ मानव हृदय की अत्यंत गहनतम भावनाओं की परतें खोलने का सराहनीय कार्य किया है।यही कारण है कि आलोचकीय दृष्टि से इस उपन्यास में 'क्यों' का उत्तर भी है और 'कैसे' का उत्तर भी।अठारहवीं सदी में डेफो 'कैसे' पर अधिक ध्यान केंद्रित करके उपन्यास लिखता था लेकिन वहीं दोस्तोवस्की छोटी घटना के चारों ओर 'क्यों' का उत्तर खोजते हुए पूरा उपन्यास गढ़ देता था।अँगूठे पर वसीयत दोनों रूपों में प्रस्तुत हुआ है।
         गद्य की भाषा में वर्णन और विश्लेषण की क्षमता होती है और उपन्यास में इन क्षमताओं का उपयोग अवश्य होना चाहिए।यह उपन्यास वर्णन (Narration),विवरण (Description)और विश्लेषण (Analysis) तीनों विशेषताओं से युक्त है।साथ ही इसमें विस्तार (Details) भी है।लेखक ने बाह्य स्थितियों के साथ ही पात्रों के आंतरिक मनोभावों का वर्णन भी समुचित रूप से करने का प्रयास किया है। उपन्यास में बिम्बों को यथावत प्रस्तुत किया गया है।इसमें फिल्मों की तरह के दृश्य-बिम्ब 'रूप' (Morph) में निर्मित किये गए हैं,खासतौर पर बाहरी स्थितियों के वर्णन में दृश्यात्मकता को शब्दबद्ध करते हुए गतिशीलता और रूप रंग की विशिष्टता को अभिव्यक्त किया गया है।उपन्यास पढ़ते हुए आंचलिक भाषा-बोली का नितांत अभाव खटक रहा है।ऐसा नहीं है कि इस उपन्यास में बोलचाल की भाषा नहीं है,वह है, लेकिन खड़ी बोली में।पात्रों के बतियाने में भाषा के गँवईपन की महक कहीं न कहीं रिक्तता दे जाती है।भाषा का भ्रंशन होना नितांत आवश्यक है।फिलहाल इसे छोड़ दें तो पूरे उपन्यास में भाषा कभी सहज,कभी नाटकीय,कभी भावपूर्ण,कभी परुष,कभी कटु,कभी करुणायुक्त तो कभी व्यंग्यपूर्ण बनती रही है।उपन्यास की भाषा जनभाषा के करीब है।इसमें तद्भव और देशज शब्दों के साथ आम बोलचाल की लोकोक्तियों का पुट भी उपलब्ध है।समग्र रूप में यह ऐसी भाषा बनी है जो स्वाभाविक,सहज,सरल और पारदर्शी है एवं पात्रों,स्थितियों और भावनाओं के अनुरूप है।
         इस उपन्यास का राजनैतिक उद्देश्य पंचायत चुनावों के वर्णन से सफल हो उठा है।इसमें राजनीति केंद्र में नहीं है लेकिन चुनावी माहौल होने से यह रंग काफी हद तक उपन्यास के मध्य भाग में पाठक को बांधे रखने में सफल रहा है।इस दौरान चौबे और परधानिन बुआ के पर्चा दाखिला होने के बाद के ग्रामीण परिदृश्य में जो स्थिति बन सकती है उस पर लेखक की दृष्टि बनी हुई है और वे चुनावों की चोंचलेबाजी को उद्घाटित करने में लगभग सफल रहे हैं।
        कोई भी उपन्यास केवल एक ही समस्या को केंद्र में रखकर लिखा जाए यह जरूरी नहीं,शायद इसीलिए शोभनाथ शुक्ल ने एक साथ कई सामाजिक प्रश्नों को अपने उपन्यास में उठाया है।मसलन-सुमीता और रोशन के माध्यम से अंतरजातीय विवाह एवं चौबे और सुमित्रा के माध्यम से विधवा सुमित्रा का पुनर्विवाह,बल्लू और उसकी पत्नी के माध्यम से सन्तानों द्वारा रामबरन गरीब और उसकी पत्नी के रूप में बुजुर्गों की उपेक्षा,सुमीता के माध्यम से सगे चाचा नोहरी द्वारा बलात्कार की यातना और पंचायत की जातिगत पक्षधरता।समाज और व्यक्ति के बीच के अंतर्द्वंद्व को कथा का विषय बनाया गया है।जो भी हो यह उपन्यास स्त्री स्वातंत्र्य,दलित उत्थान और सामाजिक दायित्व के बीच संतुलन बनाते हुए व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा का प्रश्न उठाते हुए सामाजिक जीवन के केंद्र में है।
        अँगूठे पर वसीयत का उपन्यासकार मनोविज्ञान को अच्छे से समझता,परखता हुआ प्रतीत हुआ।ऐसा इसलिए कहना पड़ा क्योंकि उसने पात्रों के चारित्रिक विकास को यथार्थवादी ढंग से चित्रित करने में मनोवैज्ञानिकता की गहरी मदद ली है।जिससे कि पात्रों के मन,वचन और कर्म में निहित अनेकता को पहचानना और उसके कारणों को समझना भी आसान हुआ है।इस पद्धति के उपयोग से चेतन,उपचेतन और अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों और मुक्त चेतना प्रवाह का चित्रण करते हुए पात्रों की मनोदशाओं को कथा विकास में सहायक बनाया गया है।इस तरह की शैली को प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार,अज्ञेय और इलाचन्द्र जोशी ने विकसित किया है।शोभनाथ शुक्ल उसी शैली के आगे के उपन्यासकार हैं।
       अँगूठे पर वसीयत के औपन्यासिक परिप्रेक्ष्य में यहाँ मुझे मैक्सिम गोर्की का उपन्यास 'माँ' (Mother) याद आ रहा है जिसका नायक जहाँ कहीं भी अपनी मध्यवर्गीय संवेदनशीलता के चलते अनेक बार हतोत्साहित होता है,निराश या परेशान होता है, वहाँ उसकी अपढ़ माँ उसे समर्थन देकर थामती है।यह रूसी दृढ़ता का प्रतीक है।कमोवेश यही स्थिति रामबरन की भी है वह भी हतोत्साहित,निराश,परेशान है,उसे सहारा देती है उसकी पत्नी,परधानिन बुआ और खेत खरीदकर ही सही चौबे भी उसे समर्थन देकर सहारा बनते हैं।सुमीता की विषम परिस्थिति में भी रौशन का साथ मिलता है।उपन्यास की संरचना में यह भारतीय दृढ़ता का प्रतीक है।शोभनाथ शुक्ल अपने लेखकीय परिप्रेक्ष्य को लेकर जरा भी संशयशील नहीं हैं।वे पाठक को समाजवादी भविष्य की मानवीय कल्पना के लिए तैयार करते हैं।
        यह उपन्यास भारतीय समाज में नारी की स्थिति का चित्रांकन और मूल्यांकन भी कर रहा है।यह उपन्यासकार की प्रगतिशीलता और विकासशील चेतना का प्रमाण भी है।उपन्यासों में परम्परा के चौखट में सुधारवाद के साथ शुरू किये गये प्रयास को शोभनाथ शुक्ल ने नारी के स्वतंत्र अस्तित्व और अस्मिता की पहचान के लिए संघर्षरत पात्रों की ओर मोड़ दिया है।वे सुमित्रा और सुमीता के चरित्र के बहाने से स्त्री को उसकी ही दृष्टि से देखने,पहचानने और जानने का प्रयास करते हुए एक नया यथार्थ उपस्थित कर रहे हैं,जिसमें दोनों अपने अलग अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह लगा कि जिसे हम सहज संस्कार और सामान्य व्यवहार मानकर चल रहे थे वह कितना असहज,असामान्य और शोषण पर आधारित है।परधानिन बुआ के चरित्र द्वारा स्त्री के व्यक्तित्व के इस पक्ष से परिचित करवाकर लेखक ने उपन्यास के स्तर को और मजबूत और दृढ़ किया है।इस उपन्यास की स्त्री नई परिस्थितियों से जूझती नारी है जो न केवल परम्परागत मान्यताओं को तोड़ती है बल्कि अपने व्यक्तित्व को सकारात्मक दिशा में आगे भी बढ़ाती है।
       वस्तुतः लेखक ने इस उपन्यास की आंतरिक अन्विति को बहुस्तरीय एवं संश्लिष्ट रूप दे रखा है।उसकी परस्पर लिपटी तहों में गुंथे हुए प्रसंग,घटनावलियाँ और मनोस्थितियों के आवर्त अपने पारस्परिक रचाव में ही सारी विद्रूपता एवं जटिलता को द्योतित करते हैं।यह एक अनिवार्य सत्य है कि कला का व्यापक तथा संभावनापूर्ण रूप हमें ग्रामीण परिवेश के उपन्यासों में ही मिलता है।इन्हीं उपन्यासों में ग्राम-चेतना के विविध आयामों की आंतरिकता अपनी समग्रता के साथ अनुभूत्यात्मक स्वर पर अभिव्यक्ति हुई है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने उस क्षेत्र या जनपद के स्थानों, आवासों, विचरण-स्थानों, भोज्यपदार्थों, वस्त्राभूषणों,परिवार व्यवस्थाओं,जातिव्यवस्था, जातीय विभेद, मनोविनोद के साधनों,उत्सवों, लोकाचारों, मान्यताओं, राजनीतिक मान्यताओं, साम्प्रदायिक विचारों, दार्शनिक विचारों तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोणों आदि तथ्यों का विश्लेषण और प्रत्यक्ष या परोक्ष चित्रण किया है।
     'अँगूठे पर वसीयत' को पढ़ते हुए ऐसा महसूस हुआ कि यह उपन्यास मानो हृदय में उस क्षेत्र या उस प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का एक अनिवार्य प्रयास है। इसीलिए शायद यह उक्त ग्राम्य अंचल के जीवन का उपन्यास बन सका है।
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गरयें,सुलतानपुर उ.प्र.-227304
मो.9451554243

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