"मेरे गाँव की चिनमुनकी''
पेज-१४४ मूल्य - २५० प्रकाशन - शुभांजलि प्रकाशन कानपुर
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गीत और नवगीत के सन्धि हस्ताक्षर के रूप में कवि श्री धीरज श्रीवास्तव जी का गीत संग्रह 'मेरे गाँव की चिनमुनकी 'नवगीतों की श्रृंखला में अवश्य मील का पत्थर साबित होगा,एेसा मेरा विश्वास है।
सीधे सादे सहज व्यतित्व के धनी कवि धीरज जी के सरल व्यतित्व की पूर्ण छाप उनके कृतित्व पर दिखाई पड़ती है।
उन्होने वातानुकूलित हवेली में बैठकर गीतों की रचना नहीं की,बल्कि जेठ की तपती दुपहरी में तपकर,पूस की ठिठुरती ठंड़ में सिहर -सिहर कर सृजन को वाणी दी है।उन्होंने गीतों में गाँव को नहीं रचा है वरन ग्रामीण जीवन को गीतों में जिया है।संग्रह में वर्णित छोटा सा गाँव भारत के समस्त गाँवों का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
उनके भावों में संप्रेषणीयता है,कथ्य में प्रबल प्रवाह है जिसमें डुबकी लगाता, डूबता-उतराता पाठक दर्शन की उन ऊँचाइयों तक पहुँच जाता है जहाँ कवि का अन्तर्मन 'स्थिरता' प्राप्त करना चाहता है।मोती जैसे भावों से भरी इस बहुमूल्य पिटारी में गरीबी, दहेज, साम्प्रदायिक दंगे, प्रदूषित होती हुई गंगा की परवाह करता हुआ रचनाकार अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी बखूबी कर पाया है।
कलरात जब मैं इस गीत संग्रह को पढ़ने बैठी तो पता ही नहीं चला कब समाप्त हो गया।मैं स्तब्ध थी।संयत होने पर मैं उस गाँव के बीच खड़ी थी जहाँ मेरे इर्द -गिर्द कवि के कथित पात्रों की चहल-पहल थी।एक ओर बिना नील का कुर्ता पहने रामपाल,सीधे सरल बड़कन के खेत पर कब्जा कर अट्टाहास करता बुझावन,पतीली में खौलती दाल के सामने बैठी विपन्नताओं की मार झेलती युवती,परदेशी झल्लर को मिसकॉल देती रमलिया, सामाजिक विद्रूपताओं का दर्द अपने सीने में छिपाये,वेदना की प्रतिमूर्ति बनी अनब्याही बेटी कोने मे सहमी सी खड़ी थी।अम्मा की बहू सज-संवर कर इठला रही थी।राधे बाबा के बेटे के कुसंग में बिगड़े छोटे भाई की चिन्ता करता बड़ा भाई,जमीन के लिए एक दूसरे केे सिर फोड़ते लोग ,सभी बारी बारी से सामने आ रहे थे।साथ ही सेठ ,साहूकार,नेता, दरोगा और सरपंच द्वारा सतायी गई मुन्नी बाई अश्रुपूरित नेत्रो से मेरे सामने खड़ी थी। वहीं दूसरी ओर पायल छनकाती, कंगन खनकाती,रूठती-मनाती,रार-मनुहार करती, खिलखिलाकर प्रिय का आलिंगन करती,जूही-कचनार सीऔर सावन की रिमझिम बौछार सी,अल्हण यौवन की मलिका"चिनमुनकी" मेरे सामने बैठी मंद-मंद मुस्करा रही थी।
मैं किंकर्तव्यमूढ़ सी चलचित्र की भाँति सजीव चित्रों को रात्रि भर देखती रही।प्रात कब हुई ,पता ही नहीं चला। पक्षियों के कलरव से मेरी तन्द्रा टूटीऔर मैं वर्तमान में लौट आई।
कुछ एेसा है कवि धीरज श्रीवास्तव जी की सर्जना का जादू !जिसमें शब्द गायब हो जाते हैं,भाव 'चित्र ' बनकर सजने -सँवरने लगते हैं तथा पाठक ठगा सा रह जाता है।.....
अंत में दोशब्दों में मैं बस इतना कहना चाहूंगी-कि कवि के मधुर गीतों में प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति एवं दर्शन की गंगा-यमुनी छवि उन्हेंश्रेष्ठ गीतकार के रूप में स्थापित करती है। मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत उनके सुन्दर गीत 'भाव 'जगाते हैं ,'शब्द 'चित्र बनाते हैं और हृदय की गहराइयों में उतर कर अनायास ही गुनगुनाने को विवश कर जाते हैं।
ऐसे महान कवि को मेरा शत-शत नमन
डॉ० मंजु श्रीवास्तवकानपुर
अच्छी समीक्षा ,, कुछ गीतों/पंक्तियों का उद्धवरण इसे और बेहतर बना देता,,, आदरणीया डॉ मंजु श्रीवास्तव एवं बन्धु धीरज जी को अनन्य बधाई ...
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