मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

समीर परिमल की एक उम्दा और मेरी पसंदीदा ग़ज़ल

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वही है बस्ती, वही हैं गलियाँ, 
बदल गया है मगर ज़माना
नए परों के नए परिंदे, 
नई उड़ानें, नया फ़साना।

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चलो भुला दें तमाम वादे, 
तमाम कसमें, तमाम यादें
न मैं मुहब्बत, न तुम इबादत, 
न याद करना, न याद आना।

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करीब आके, नज़र मिलाके, 
मुझे चुराके चला गया वो
पता न उसका, ख़बर न अपनी, 
भटक रहा है कोई दिवाना।

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न सुबह ही अब तो शबनमी है, 
न शाम ही अब वो सुरमई है
हवाएँ गुमसुम, फ़िज़ाएं बेदम, 
रहा न मौसम वो आशिक़ाना।

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दुआ किसी की बनी मुहाफ़िज़, 
उसी के साए में हम खड़े हैं
गुज़र चुकी है यहाँ से आँधी, 
मगर सलामत है आशियाना।
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समीर परिमल
पटना, बिहार

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