सोमवार, 28 जून 2021

'दिन कटे हैं धूप चुनते' : भोगे हुए यथार्थ से परिचित कराते नवगीत by नीलोत्पल रमेश

समीक्षित पुस्तक-दिन कटे हैं धूप चुनते
नवगीतकार-अवनीश त्रिपाठी
वर्ष-2019
पृष्ठ: 128
मूल्य: ₹200 (सजिल्द)
प्रकाशक: बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीज प्रा०लि०,नई दिल्ली-110019
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समीक्षक-नीलोत्पल रमेश
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        भारत उत्सवधर्मी देश रहा है। प्राचीन काल से ही विभिन्न उत्सवों के लिए अलग-अलग गीत गाये जाते रहे हैं। मानव सभ्यता के विकास के साथ-ही-साथ गीत भी विकास पाते गये हैं। वैदिक काल के समय से ही गीतों की परम्परा प्रारंभ हो गई थी। ऋग्वेद में मानव इतिहास के आरम्भिक गीत पाए गए हैं। जिनमें प्रकृति वर्णन, नारी हृदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह-वेदना आदि के भाव अभिव्यक्त हुए हैं। ये सभी भाव मनुष्य के विभिन्न कार्य व्यापारों को चित्रित करने में सफल हुए हैं। 
        ऋग्वेद से प्रारंभ हुई गीत की परम्परा हिन्दी साहित्य के इतिहास में विभिन्न कालों से गुजरते हुए आगे बढ़ते-बढ़ते आधुनिककाल तक पहुँच गई। इस अवधि में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। छायावादी काल के गीतों में इतनी दुरूहता आ गई कि ये गीत आम जनों की समझ से दूर होते चले गए। संस्कृतनिष्ठ शब्दों की भरमार से सामान्य जन इससे अलग होते गए। यही कारण है कि नवगीत की परंपरा प्रारंभ हुई।निराला की एक रचना 'बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु, देखेगा सारा गाँव बंधु' से नवगीत का प्रारंभ माना जाता है। यह रचना निराला के एक संग्रह में संकलित है जिसका प्रकाशन 1952 ई0 में हुआ था। इसके बाद 'नवगीत' शीर्षक से राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने एक संकलन प्रकाशित किया था। फिर इसी नाम से डॉ0 शंभुनाथ सिंह ने नवगीत दशक ' नामक पुस्तक के तीन खण्ड प्रकाशित किये। लेकिन जिस सहजता के लिए नवगीत लेखन की शुरूआत की गई थी, वह सहजता 1990 ई0 के बाद प्रारंभ हुई। 
        डॉ0 शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के संदर्भ में लिखा है कि "नवगीत का मूल अर्थ है गीत की परम्परा को युगानुरूप दिशा में मोड़कर उसे सार्थक और सोद्देश्य बनाया जाये तथा पूर्ववर्ती मध्यकालीन प्रवृत्तियों और आधुनिक रहस्यवादी घेरों से बाहर निकालकर यथार्थ पर प्रतिष्ठित किया जाये।" वहीं कुमार रवीन्द्र ने लिखा है कि "नया गीत चिंतन परक है साथ ही उसने रागात्मकता के नये आयाम भी खोजे हैं। ये आयाम उसकी वस्तु परक दृष्टि से उपजे हैं जिसमें अनुभूति और चिंतन का अधिक प्रौढ़ परिपाक हुआ है।" मधुकर अष्ठाना ने नवगीत के बारे में लिखा है कि "यदि समस्त काव्य रूपों को एक घड़े में रखकर मथा जाये तो जो नवनीत उत्पन्न होगा, उसे नवगीत की संज्ञा दी जाएगी।" राहुल शिवाय ने बहुत ही अच्छे ढंग से गीत-नवगीत को परिभाषित करने की कोशिश की है। उन्होंने लिखा है कि "साठ के दशक के आस-पास जब कविता नई कविता के रूप में विकसित हो रही थी तो गीत को यह कहकर भारतीय साहित्य की मुख्य धारा से, गंभीर साहित्य-विमर्श से अलग करने का प्रयास किया जाने लगा कि गीत में रूमानियत और निजीपन है। आधुनिक बोध और अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत की विषयवस्तु को अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया। यह वह समय था जब गीत, नवगीत के रूप में विकसित हुआ। नया कथन, मई प्रस्तुति, प्रगतिवादी सोच, नए उपलब्धी नए प्रतीका नए बिम्ब, समकालीन समस्याएँ और परिस्थितियाँ प्रस्तुत करते हुए नवगीतकारों ने ढ़ेरों नवगीत लिखे।" 
       1960 ई0 में नवगीत को साहित्य की मुख्यधारा में लाने का जो प्रयास प्रारंभ हुआ। वह आज भी अनवरत जारी है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले नवगीतकार हैं अवनीश त्रिपाठी इनके नवगीतों में सपाट बयानी नहीं है। यही कारण है कि इनके नवगीतों में नयापन साफ-साफ देखा जा सकता है। 
         'दिन कटे हैं धूप चुनते' अवनीश त्रिपाठी का पहला नवगीत संग्रह है। इसके पहले इनका एक कविता-संग्रह' शब्द पानी हो गए' प्रकाशित हो चुका है। अवनीश त्रिपाठी के नवगीतों में नवगीत के जितने भी रूप हैं, वे सब किसी-न-किसी रूप में विद्यमान हैं। देश के प्रमुख नवगीतकारों में शामिल अवनीश त्रिपाठी के नवगीत हमारे आस पास के परिवेश को अभिव्यक्त करने में सफल हुए हैं। ये नवगीत गीतकार के भोगे हुए यथार्थ का बोध कराते हैं। वे अपनी बातें संकेतों, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से कहने में सफल हुए हैं। 
'दिन कटे हैं धूप चुनते' शीर्षक नामित नवगीत से ही अपनी बात प्रारंभ करता हूँ। इस नवगीत में नवगीतकार अवनीश त्रिपाठी ने लिखा है कि उनका समय कठिन परिश्रम करते हुए बीत रहा है। जीने के लिए जिस सहजता की आवश्यकता पड़ती है, वह सहजता आज के दौर में गायब होती जा रही है। यही कारण है कि श्रमिक वर्ग अच्छे दिन की कोरी कल्पना में ही अपना दिन काट रहा है। वे लिखते हैं कि–
सौंपकर थोथे मुखौटे 
और कोरी वेदना 
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना 
दुख हुए संतृप्त लेकिन 
सुख रहे हर रोज घुनते। 
रात कोरी कल्पना में 
दिन कटे हैं धूप चुनते। " 

 'महमहाई रात भर' गीत के माध्यम से गीतकार ने रात के बाद प्रकृति में जो परिवर्तन हुआ है, उसका जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है। बात में फागुन की फगुनाहट अपने उठान पर है। उस दौरान गीतकार ने जो महसूस किया है, उसे इस प्रकार प्रस्तुत किया है–
" फागुनी अठखेलियों में 
कब महावर चू गया, 
बाँसुरी के अधर चुपके 
राग कोई छू गया, 
धूप की पगडंडियों पर 
फागुनी पदचाप सुन, 
झूमती डाली लता की
महमहाई रात भर। " 

'कहाँ गए सब ज्ञानी' नवगीत के माध्यम से अवनीश त्रिपाठी ने आज के कवियों और नवगीतकारों पर व्यंग्य किया है। वे कहते है कि आज के ये लोग अपने को तीसमार खाँ समझते हैं। ये अपने को इतना महान मानने लगे हैं कि इनके आगे हमारे पूर्वज कहीं नजर नहीं आते हैं। वे लिखते हैं कि–
" फ़ैज और मजरूह साथ ही 
गालिब, केशव, दिनकर, 
इनसे कम ये नहीं मानते 
शिल्प भर रहा पानी। 
चंदन घिसते तुलसी बाबा 
औ कबीर की बानी, 
राम, रहीम सभी आतुर हैं 
कहाँ गए सब ज्ञानी' " 

'खिड़की छली गई' नवगीत के माध्यम से नवगीतकार ने टूटते परिवार की ओर संकेत किया है। एक समय था कि संयुक्त परिवार प्रतिष्ठा का आधार माना जाता था। लेकिन समय इस गति से बदला है कि एकल परिवार ही अब मुख्य हो गया है। इसी दर्द को गीतकार ने इस नवगीत में वाणी देने की कोशिश की है। जिस सामूहिकता का बोलबाला था, वह अब नहीं रहा। वे लिखते हैं:-

"शब्द-अर्थ से दूर रसोई 
करती है अन्वेषण, 
भावों की भावुकता लेकर 
कथ्यों का संप्रेषण। 
दरवाजों ने हिस्से बाँटे 
खिड़की गई छली। " 

'क्या हूँ बता दो' नवगीत के माध्यम से अवनीश त्रिपाठी नवगीत के विषय में व्याप्त भ्रान्तियों पर पूर्व की पीढ़ी से नवगीत के लिए प्रश्न करते हैं कि मैं क्या हूँ? क्योंकि नवगीत के विषय में नवगीतकारों ने इतने वर्गीकरण कर दिए हैं कि नवगीत उलझ गया है।इसीलिए अवनीश का आक्रोशित होना और प्रश्न उठाना स्वाभाविक ही है–

" बिम्ब का प्रतिबिम्ब हूँ या 
नव्यता हूँ, रीति हूँ 
मैं प्रतीकों की चुभन हूँ 
या छुवन हूँ, प्रीति हूँ? 
नवप्रयोगों की धरा पर 
छटपटाता हूँ निरंतर, 
गीत हूँ, नवगीत या जनगीत हूँ 
क्या हूँ बता दो? " 

'अम्मा-बाबू' नवगीत के माध्यम से नवगीतकार ने आज की पीढ़ी की बड़े-बुजुर्गों के प्रति बदलते रवैये का जिक्र किया है। यह पीढ़ी घर के बुजुर्गों पर ध्यान नहीं देती है। घर का बना खाना भी इन्हे पसंद नहीं है। ये दिनभर मोबाइल पर गुजार देते हैं, पर दादा-दादी के पास नहीं जाते हैं। ये सब गंवई संस्कार से दूर होते जा रहे हैं। इनकी जीवन-शैली पिज्जा-बर्गर की होकर रह गई है। अम्मा-बाबू के दुख-दर्द को नवगीतकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है–
"सुबह-शाम दिन-रात दर्द से 
टूट चुके हैं अम्मा-बाबू, 
हाथ जोड़कर रोकर कहते 
हे ईश्वर! अब हमें उठाएँ। " 

'भीतर है पुरवाई' नवगीत के माध्यम से अवनीश त्रिपाठी ने पाश्चात्य सभ्यता की गिरफ्त में जकड़ी भारतीय संस्कृति की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया है। आज की पीढ़ी अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है। इसी वेदना को नवगीतकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है–
" संस्कार की भाषा बदली 
परम्परा कि थाती, 
नूतनता की कड़ी बोलियाँ 
कूट रही हैं छाती, 
चलचित्रों की ओछी हरकत 
से किशोरमन बदला 
मोबाइल के अंधकार में 
खोई है तरूणाई। 
धूप तिकोनी, परछाई से 
बातें करती रोती 
बाहर पछुआ भले चल रही 
भीतर है पुरवाई। " 

'जाग उठी फिर व्यथा पुरानी' नवगीत के माध्यम से नवगीतकार ने सीताहरण का उदाहरण देकर कहना चाहा है कि यह पुरानी कथा आज भी दुहराई जा रही है। सीताहरण के समय तो एक ही रावण था, लेकिन आज तो हजारों रावण हैं जो नित्य-प्रतिदिन सीताओं का हरण कर रहे हैं। इसी को अवनीश त्रिपाठी ने यों व्यक्त किया है–
" कितने रावण जलते हैं 
पर सीताहरण नहीं रूक पाया, 
असुरों के विकराल आचरण 
से असहज विकृत हर काया। 
अक्षर-अक्षर दीप जले हैं 
शब्द-शब्द में राम कहानी 
जाग उठी फिर व्यथा पुरानी। " 

'अरे नवागत! आओ गायें' नवगीत के माध्यम से नवगीतकार ने चंद्रगुप्त के कलिंग-विजय के बाद बौद्ध भिक्षुक बनकर पाटलिपुत्र का राज सिहांसन चलाने की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया है। चंद्रगुप्त मौर्य ने जिस प्रकार युद्ध से अपने को अलग कर लिया था, उसी प्रकार से राज सिंहासन चलाने की आवश्यकता है। अवनीश त्रिपाठी लिखते हैं–
"फिर कलिंग को जीतें हम सब 
फिर से भिक्षुक बुद्ध बने' , 
पाटलिपुत्र चलाएँ मिलकर 
तथाकथित ही, शुद्ध बनें, 
चंद्रगुप्त-पोरस बन जायें 
विदा-अलविदा कहें-कहायें 
अरे नवागत! आओ गायें। " 

'दिन कटे हैं धूप चुनते' नवगीत-संग्रह के माध्यम से अवनीश त्रिपाठी ने सहज और सरल भाषा में अपने आस पास और परिवेश को पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में ' सफलता पायी है। ये नवगीत हमारे सामने उपस्थित चुनौतियों से लड़ने की प्रेरणा भी देते हैं और उसका समाधान भी करते हैं। यही कारण है कि वर्तमान में लेखनरत नवगीतकारों में अवनीश त्रिपाठी का स्थान अग्रणी है। पुस्तक की छपाई साफ-सुथरी है और प्रूफ की गलतियाँ नहीं के बराबर हैं।

समीक्षक:-
नीलोत्पल रमेश
पुराना शिव मंदिर , बुध बाजार , गिद्दी -ए, जिला - हजारीबाग 
झारखंड - 829108
मोबाइल - 09931117537,08709791120
neelotpalramesh@gmail.com

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