सोमवार, 28 जून 2021

'दिन कटे हैं धूप चुनते' : समकालीन विसंगति एवं खुरदुरे यथार्थ का सूक्ष्म अवलोकन by सत्यम भारती

समीक्षक-सत्यम भारती, जे एन यू
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" गीतों की परंपरा तो सभ्य - असभ्य सब जातियों में अत्यंत प्राचीन काल से ही चली आ रही है । सब जातियों ने लिखित साहित्य के भीतर भी उनका समावेश किया है ....... किसी देश की काव्यधारा के मूल प्राकृतिक स्वरूप का परिचय हमें चिरकाल से चले आते हुए इन्हीं गीतों से मिल सकता है । " ( हिंदी साहित्य का इतिहास, कला मुद्रण, 2005 पृष्ठ संख्या 109 ) 

अचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन, गीतों की लंबी एवं चलायमान परंपरा की तरफ ध्यान आकर्षित करता है । जब कोई व्यक्ति खुश होता है तो वह गीत गाता है और जब दुख में होता है तब भी; गांव में ऐसे उदाहरण हमें मिल जाते हैं । मल्हार, मर्सिया, लोकगीत, उत्सव गीत,  रोपाई के गीत, कजरी, ठुमरी आदि समाज में गायन की पद्धति है जो वर्षों से चली आ रही है । इन गीतों की बुनावट एवं स्वरूप पर  अगर ध्यान दें तो हमें मानवता का जीवंत इतिहास, विजय यात्रा,संघर्ष गाथा तथा नैतिकता एक साथ दिखते हैं । इन गीतों में समय-समय पर परिवर्तन होता गया और यह लोकगीत, गीत, छायावादी गीत होते हुए  नवगीत तक आ पहुंचा है । "नवगीत" अपने शिल्प में नवीन प्रयोग, गहन संवेदना ,यथार्थ बोध एवं  संगीतात्मकता के लिए जाना जाता है । अवनीश त्रिपाठी की पुस्तक "दिन कटे हैं धूप चुनते" नवगीतों का वह गुलदस्ता है जिसमें 48 गीतों के संग्रह हैं । सारे गीत मारक, व्यंजनाप्रधान, लोक संवेदना के करीब तथा  समाज की जटिल विसंगतियों एवं मन की द्वंद्वात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने वाले हैं। 
             इनके गीतों की मुख्य विषय वस्तु की बात करें तो यथार्थ बोध एवं समकालीन सामाजिक समस्याएँ प्रमुख हैं। इनके गीत समाज के खुरदुरे यथार्थ का जीवंत चित्रण करने के साथ-साथ वैयक्तिक मन तथा समाज की विसंगतियों का भी वर्णन करने वाले हैं। एक तरफ गीतकार सत्ता एवं पूंजी के गठजोड़ से उत्पन्न हुई समाज की विसंगतियों का जिक्र करता है तो वहीं दूसरी तरफ आधुनिक मूल्यों एवं पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव के कारण व्यक्ति के मन में चलने वाली उधेड़बुन ,असमंजस, द्वंद्व आदि को भी समाहित करता है। किसानों की समस्या ,लोकतंत्र में भ्रष्टाचार, दंगा - फसाद, संयुक्त परिवार का विघटन, वैचारिक द्वंद्व ,बाजारवाद का दुष्परिणाम, वृद्धों की स्थिति आदि जैसी समस्याएँ उनके यथार्थ वर्णन की मुख्य विषय वस्तु रही है। यह अनुभूति कपोल-कल्पना कम, व्यापक जीवन अनुभव से ज्यादा प्रभावित नजर आती है -

कितने रावण जलते हैं पर 
सीताहरण नहीं रुक पाया, 
असुरों के विकराल आचरण 
से असहज विकृत हर काया  ।

          किसानों की स्थिति देश में काफी दयनीय है ;दूसरों का पेट भरने वाला किसान, खुद परिस्थितियों का मार झेलता है। न बाजार उसकी भलाई चाहता है और न ही सत्ता। उसके पास आत्महत्या के सिवा कोई दूसरा ऑप्शन नहीं बचता है। भारतीय किसानों की कंगाली एवं परिस्थितियों का जिक्र करते हुए गीतकार उनकी निर्धनता का सटीक चित्र खींचता है-

सूखी आंतें, 
खेतों में भी 
पड़ी दरारें मोटी - गहरी, 
पेट पीठ 
में फर्क नहीं कुछ 
पिचकी देह, पोपला मुखड़ा । 
          चुनाव के समय कितने वादे किए जाते हैं, अगर उसका कुछ हिस्सा भी धरातल पर उतर जाए तो देश का विकास हो जाएगा। कागज पर होने वाले विकास, मुद्दों से भटकाव ,नेताओं का दोहरा-चरित्र तथा स्वार्थपूर्ण नीति लोकतंत्र को खोखला करते जा रहे हैं। जनता निरीह बन गई है, उसे सिर्फ चुनाव के समय याद किया जाता है। जनता का शासन आज उसी के गले का फंदा बनता जा रहा है। कोई भी घटना हो सबसे ज्यादा कीमत जनता को ही चुकानी पड़ती है। गीतकार लोकतंत्र के  इस रवैये से वाकिफ है- 

भोजपत्रों पर कई अनुबंध
अब तक हैं अधूरे
पृष्ठ पर बातें हुईं बस 
अर्थ के आधार की  ।

        गीतकार इन समस्याओं से निजात पाने के लिए हमें समकालीन बनने की सलाह देते हैं। समकालीन से तात्पर्य- शिक्षित, तार्किक,  स्वाबलंबी बनने, सोच - विचार की क्षमता विकसित करने,सवाल पूछने की ताकत, विमर्श तथा आधुनिक होने  से है-

कथ्यों को 
प्रामाणिक कर दें
गढ़ दें अक्षर - अक्षर, 
अंधकूप से बाहर निकलें
थोड़ा और नवीन बनें । 

           लेखक गीतों के माध्यम से आधुनिक मानव - मन में चलने वाले विभिन्न प्रकार की उधेड़बुन एवं चुभन का जिक्र करते हैं। पैसे की चाह, मशीनीकरण, कृत्रिमता, प्रतिस्पर्धा तथा बाजारवादी नीति ने लोगों के मन में कई तरह की समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे- कुंठा, संत्रास, आत्महत्या, रिश्तों की टूटन, अनंत  इच्छा, वासना, सूनापन  आदि। उनके गीतों के केंद्र में मध्यवर्गीय परिवार नजर आता है, जो ऑफिस में काम कर कर के थक जाता है। उसके पास अपने परिवार के लिए वक्त नहीं है,वह इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सुकून ढूंढना चाहता है , व्हिस्की और शैम्पेन से मन का सूनापन मिटाना चाहता है, मशीनों से दोस्ती करना चाहता है । विडंबना यह है कि उसे घर में वृद्धों की खांसी से परहेज  है-

व्हिस्की - शैम्पेन
बड़ी पार्टियाँ
आवाजों में चीयर, 
बंगले-नौकर 
बूढ़ी खांसी
गहरा सूनापन । 

            चुप्पी, मौन,मन का सूनापन, अवसाद, अपराध बोध आदि वह समस्या है जो व्यक्ति को टूटने पर मजबूर करती है। ऐसे में उसे एक दोस्त की जरूरत महसूस होती है, एक ऐसा दोस्त जिसके साथ वह सुख दुख को बांट सके। पर आज मानव इतना स्वार्थी और एकाकी हो चुका है कि उससे बात करने के लिए सिर्फ कमरे की दीवारें ही बची हैं, कोई अपना नहीं। बुलंदियों पर पहुंच कर भी क्या फायदा जब आपके साथ उस बुलंदी को सेलिब्रेट करने वाला कोई न बचा हो। मन के सूनेपन का अवनीश जी सुंदर वर्णन करते हैं-

धूप तिकोनी, परछाई से 
बातें करती रोती
बाहर पछुआ भले चल रही
भीतर है पुरवाई  ।

" पश्चिमी सभ्यता " कैसे व्यक्ति को चकाचौंध एवं कृत्रिमता में जनता को फंसा कर, उसके मन को ग्रास रहा है; इसका सुंदर वर्णन अवनीश जी के गीतों में मिल जाता है -

कंक्रीट के 
जंगल में अब 
पैकेट का फैशन पसरा है, 
पिज़्ज़ा ,बर्गर 
पेट भर रहे 
मन भूखा कैसे समझाएँ ? 

          व्यक्ति भले ही बाह्य रूप से कितना भी आधुनिक क्यों न हो जाए लेकिन वह विचारों से आज भी  संकीर्ण है। वह एक तरफ  स्त्रियों की अस्मिता एवं मुक्ति पर मंचों पर लंबे- चौड़े भाषण देता है ,लेकिन वही अपने घर में स्त्रियों के साथ भेदभाव करता हैं।  कथनी - करनी में फर्क  और दोहरा मानदंड बीसवीं सदी के मानवों की वृत्ति  बनती जा रही है। यह मध्यवर्गीय परिवार में ज्यादा देखने को मिलता है। एक तरफ समाज स्त्रियों को देवी मान कर पूजा करता है तो वहीं दूसरी ओर उसे डायन बताकर प्रताड़ित । लड़के- लड़कियों के पालन-पोषण में आज भी आर्थिक भेदभाव किया जाता हैं। गीतकार इस बात को प्रतीकों के सहारे कहते नजर आते हैं- 

 दरवाजों ने हिस्से
 बांटे 
 खिड़की  गई  छली ।

           वे समसामयिक विसंगतियों से मुक्ति के लिए अतीत की ओर लौटने की बात करते हैं। अतीत की ओर लौटने से मतलब विचारों से पुरातन होना नहीं है बल्कि अतीत के ज्ञान , नैतिकता एवं शाश्वत मूल्यों को जीवन में उतारने से है, आशावादी बनने से है , प्रकृति के करीब जाने से है, अपनी सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान -परंपरा एवं पुरखों पर गर्व करने से है- 

खाली बस्तों में किताब रख
तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्वभारती उगने दें हम
फिर  विवेक आनंदित कर दें  ।

         व्यंग्य का तीखापन उनके गीतों का प्रधान बिंदु रहा है। वे गीतों में व्यंग्यात्मक-शैली का प्रयोग कर उसे और भी चित्त के करीब ला देते हैं।पाठक, भाव- व्यंजना में प्रयुक्त चुटीलेपन से काफी प्रभावित होते हैं । वे शिष्ट समाज पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं -

यह रईसों का
मोहल्ला है जरा
आवाज कम कर । 

             गीतकार की सहानुभूति समाज के निम्न, दमित एवं शोषित वर्ग के लोगों से है। और हो भी क्यों न, वर्षों से यह समाज दमनचक्र का शिकार होता आया है। समाज में जीने वाले हर जाति के गरीब लोग दलित होते हैं, कभी उसे सरकार प्रताड़ित करती है तो कभी महाजन-

केवल धन के उद्बोधन से 
विस्फोटित हैं सभी दिशाएँ, 
शोषित का अवहेलन करतीं
भाव स्नेह की सभी ऋचाएँ । 

           इस पुस्तक का शिल्प हमें काफी प्रभावित करता है ; वाक्य विन्यास छोटे-छोटे हैं लेकिन शब्दों की कसावट उसमें जान डाल देती है । तत्सम ,लोक भाषा, तद्भव, अंग्रेजी के शब्दों का सुंदर प्रयोग यहाँ मिल जाता है। गीतकार संस्कृत के श्लोकों तथा सूक्तों का अपने गीतों में प्रयोग कर नवीन प्रयोग करने की कोशिश करते हैं -

' कर्मयोग निष्काम नहीं है '
 कलयुग की अपनी परिभाषा ,
' स्वस्य हेतवे ' जीवन दर्शन 
स्वर- अक्षर सबकी यह भाषा  ।

          संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, शब्द आदि जैसे व्याकरणिक शब्दों का भावों के धरातल पर नवीन प्रयोग देखें-

अपशब्दों की भीड़ बढ़ी है
आज विशेषण के आंगन में, 
सर्वनाम रावण हो बैठा
संज्ञा शिष्ट नहीं है मन में । 

         अनुप्रास, उपमा ,यमक, उत्प्रेक्षा आदि का सुंदर उदाहरण इनके गीतों में मिलता है;  अनुप्रास का प्रयोग जहाँ वह लयात्मकता लाने के लिए करते हैं तो वहीं उपमा और मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग सौन्दर्य निर्माण में। मानवीकरण का एक सुंदर उदाहरण देखें -

धरती के 
मटमैलेपन में
इंद्रधनुष बोने से पहले, 
मौसम के अनुशासन की
परिभाषा का विश्लेषण कर लो।

        अगर कहें कि यह पुस्तक बिंब एवम प्रतीकों का खजाना है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।बिंब और प्रतीक इनके गीतों का प्राण तत्व है ,चाहे लक्षणा एवं व्यंजना शब्द- शक्ति हो या व्यंग्य हो सब जगह प्रतीक एवं बिंब का सजीव प्रयोग मिलता है। इनके प्रतीक परंपरागत, लोक  के करीब तथा वैज्ञानिक है तो वहीं  बिंब ऐन्द्रिय हैं। भावों का सिनेमा दिखाने में इनके यहाँ प्रतीक प्रोड्यूसर का काम करता है तो वहीं बिंब डायरेक्टर का। एक उदाहरण देखें-

बरगद के नीचे
पौधों का
टूट रहा सम्मोहन,
भोजपत्र की 
देवनागरी 
लिपि जैसा है जीवन । 

अंततः यह कहा जा सकता है कि यह पुस्तक  भाव एवं शिल्प दोनों रूप से सुदृढ़ है तथा समकालीन विसंगतियों एवं खुरदुरे  यथार्थ का अवलोकन करती है । यह पुस्तक यथार्थ की समस्याओं से टकराकर भविष्य का मार्ग भी  दिखाती है। 

 # समीक्षक :-
सत्यम भारती 
परास्नातक द्वितीय वर्ष छात्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली, 110067
मो. - 8677056002.

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