भाषा और व्याकरण जैसे जुड़े हुए थे दोनों मन
तुम ग्यारह के ग्यारह स्वर थीं, हम थे तेंतीसो व्यंजन
तुम थीं संज्ञा और सदा हम सर्वनाम ही कहलाए
किसी संधि में गौड़ पदों सा, बाद तुम्हारे ही आए
तुम तत्सम थीं हम तत्भव थे,तुम विभक्ति हम रहे वचन
भाषायी वैभव में हम तुम, अलंकार अनुप्रास बने
तुम उपसर्ग और हम प्रत्यय, मिलकर द्वंद्व समास बने
तुम लोकोक्ति सरीखी आईं, हम मुहावरे हुए मगन
तन विलोम थे मन से हम तुम,समानार्थी एक रहे
तुम कर्ता जैसी तटस्थ थीं, हम तो कर्म अनेक रहे
एक विशेषण विरल बनीं तुम, हम विशेष्य फिर बने सघन
एक सलोना शब्द बनीं तुम, हम उसके पर्याय रहे
तुम पुस्तक थीं हम उस पुस्तक के सारे अध्याय रहे
धातु छंद रस रूप रहीं तुम,हम तो बने रहे दरपन
■ राघव शुक्ल,खीरी लखीमपुर
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