सोमवार, 28 जून 2021

समीक्षा:-सामाजिक चिंतन के फलक पर लोकचेतना और संवेदना के नवगीत by अवनीश त्रिपाठी

चिंतन के फलक पर लोकचेतना और संवेदना के नवगीत

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         "पर्वत के सीने से बहता है झरना,हमको भी आता है भीड़ से गुजरना" नवगीतकार देवेंद्र कुमार की यह पंक्ति नवगीतों और नवगीतकारों की अन्वेषण क्षमता और गत्यात्मक नव्यता का संकेत मात्र ही नहीं,बल्कि नवगीत के उज्ज्वल भविष्य का सटीक आकलन है।देवेंद्र जी ने जिस भविष्य का आकलन किया था, उस में आज नवगीत ने अपने दायरे में समाज के हर वर्ग को अपने कथ्य के साथ जोड़ लिया है।नवगीत का आधुनिक परिवेश अन्यानेक नये रचनाकारों से समृद्ध हुआ है।गरिमा सक्सेना भी उसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं। बेस्ट बुक बडीज नई दिल्ली से प्रकाशित 'है छिपा सूरज कहाँ पर' गरिमा का पहला नवगीत संग्रह है।यह संग्रह इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें शांति सुमन और कुँवर बेचैन जैसे श्रेष्ठ साहित्यकारों और नचिकेता जैसे बड़े नाम की भूमिकाएं हैं बल्कि यह संग्रह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके नवगीतों में भाषा,भाव,नाद और संगीत के समवेत स्वर की उपस्थिति, व्यवहारिक बिम्बों के प्रयोग में सावधानी,जनपक्षधरता,शिल्प की कसावट,आँचलिकता का पुट आदि विविधताएँ समन्वित हैं जिनसे इस संग्रह का महत्व बढ़ जाता है।नवगीत अपने युग के अहसास को ध्वनित करते हुए सहज भाषाई लहज़े में यथार्थ के ठोस धरातल पर उतरने का श्रमपूर्ण उपक्रम करता है।साथ ही जनभाषा की गत्यात्मक अभिव्यक्ति को छान्दसिक साहचर्य भी प्रदान करता है।यह छांदस धारा नई कविता के वास्तविक जीवन की यथार्थवादी अभिव्यक्ति के पीछे छिपी हुई थी जो नवगीत के रूप में विकसित हुई।गरिमा सक्सेना का यह संग्रह भी प्रवृत्तियों की भिन्नता के आधार पर बोधगत नवता का अर्थ दे रहा है और वस्तुपरक यथार्थ अभिव्यक्ति के साथ उपस्थित है।

       नये-पुराने पत्रिका के सम्पादक दिनेश सिंह कहते हैं-"जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती,जिसमें जीवन की बुनियादी सच्चाईयाँ केन्द्रस्थ नहीं होतीं,जिसका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता,वह अपनी कलात्मकता के बावजूद अप्रासंगिक रह जाती हैं।" यह एक युगसत्य है कि नवगीत को समयसापेक्ष भी होना है और समकालीन भी। गरिमा सक्सेना इस बात को समझती हैं इसीलिए संग्रह के लगभग सभी नवगीत अपने होने और आस पास के परिवर्तनों की खबर का आभास कराते हैं।वे नवगीत जहाँ एक ओर "रोज ही गंदला रहा है आँख का जल/एक चिंता सिर्फ अपने घाव की" कहकर व्यक्तिगत स्वार्थ में लिप्त व्यक्तियों की चर्चा करते हैं तो वहीं वे केवल प्रश्न या समस्याओं को ही नहीं उठा रहे। बल्कि वे "कब तक हम दीपक बालेंगे/हमको सूर्य उगाना होगा'' कहते हुए समाज में व्याप्त कुरीतियों,विद्रूपताओं,आर्थिक विषमताओं और अस्तित्ववादी कुण्ठाओं से उपजी 'पीड़ाओं में प्रतिरोधों का स्नेहिल लेप' लगाने का कार्य भी कर रहे हैं-"हरे भरे जीवन के पत्ते/ हुए जा रहे पीत/आओ हम सब मिलकर गायें/समाधान के गीत।"

           वर्तमान के नवगीतों में ग्राम्यबोध और आँचलिकता का गहरा समावेश है जिससे उसके रूप विधान,कथ्य,शिल्प और अभिव्यक्ति में पूर्व की अपेक्षा परिवर्तन सीधे तौर पर दिखाई दे रहा है।गरिमा सक्सेना के नवगीतों में भाषा की दृष्टि से ग्रामीण और नगरीय दोनों परिवेशों की अभिव्यक्ति में वस्तु चेतना का विस्तार हुआ है--"गाँव की पगडंडियों के/स्वप्न हैं फुटपाथ पर/सूर्य घर्षण से उगाना/चाहते हैं हाथ पर"।गाँव भी असामान्य स्थिति में है तो "गाँवों के मन मन अब/उग आए हैं शूल/देख चकित हो रहा बबूल" और "बने बिजूके हम सब/वर्षों से चुपचाप खड़े" के साथ ही "गाँव ने हैं कर्ज़ बोये/मौत की फसलें उगाईं/अँजुरी भर प्यास तड़पी/आस ने चीखें दबाईं" आदि कहते हुए संग्रह के नवगीत अवनीश सिंह चौहान के इस कथन से साबका रखते हैं कि "यदि नवगीतकार की संवेदना गहन है,उसका ऑब्जर्वेशन सटीक है और उद्देश्य पवित्र है तो उसकी सर्जना में आम और ख़ास के बीच कोई भेद नहीं होगा और उसका लेखन यूनिवर्सल होगा।" 

       गरिमा सक्सेना के नवगीत अपनी व्यंजनात्मक सहजता से ग्राह्य,आकर्षक और सर्वस्वीकार्य हैं।नवगीत में वक्रोक्ति और अन्योक्ति का अपना ही महत्व है।लेकिन इसका कतई यह अर्थ नहीं है कि नवगीत द्विअर्थी सम्प्रेषण में चला जाता है।इसके लिए प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोगरूपी समन्वय नवगीत को शाब्दिक महत्व तो देता ही है साथ ही अर्थसंप्रेषणा की सहजता से पाठकीयता में ऊबन नहीं आने देता।गरिमा सक्सेना के नवगीत इस दृष्टि से अच्छी सम्प्रेषणीयता वाले हैं।मन पिंजर,पूँजीवादी जड़ें, अँखुआते स्वप्न,स्वप्न खंडहर,पेट में गीली लकड़ियाँ,नर गिद्धों,उगते प्रतिबिम्ब,कुहरे का गुब्बारा,आँखों की जेब,धूल का गुलाल,कोहरे की टहनियाँ,समाधान के गीत,उम्मीदों के पंख, बरगद के साये,आँखों की स्याही,उम्मीदों के वातायन,मन का शिशिर आदि प्रयोग आयुगत अनुभवजन्यता से तो नहीं आये हैं लेकिन वे गरिमा सक्सेना की अध्ययनशीलता और नैसर्गिक  प्रयोगधर्मिता को दर्शाते हैं।

    नवगीत में जनमानस की संवेदना और सामाजिक संरचना का भाव निहित होता है।यह संघर्षशील भी है और जनपक्षधर भी।इसे समत्वबोधक काव्य कहना उचित होगा।मधुकर अष्ठाना का विचार है -"नवगीत लोकसंवेदना का ही काव्य है।वर्तमान नवगीत लोकजीवन,लोक संस्कृति, लोक भाषा और लोकतत्वों के यथार्थ को बिम्बित कर रहा है।" यह नवगीत पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध लोकपीड़ा और सहानुभूति के साथ सम्वेदना का विस्तार करता है।नवगीत का उद्देश्य ही सामाजिक सरोकारों से है।गरिमा सक्सेना की मनःस्थिति भी यही है- "बाजारों की धड़कन में हम/फिर से गाँव भरें/पूँजीवादी जड़ें काटकर/फिर सम्भव भरें/बंटे हुए आँगन में बोयें/आओ फिर से प्रीत।"

   नवगीत जब वैयक्तिक जमीन से ऊपर उठकर सामाजिक चिंतन के फलक पर लोकचेतना से जुड़कर विस्तृत हो जाता है तो वह व्यक्तित्व के आकलन और वैचारिकता में व्यापकता प्राप्त कर लेता है।इस दृष्टि से गरिमा सक्सेना के शीर्षक गीत की ये पंक्तियाँ पठनीय हैं-"कब तलक हम बरगदों की/छाँव में पलते रहेंगे/जुगनुओं को सूर्य कहकर/स्वयं को छलते रहेंगे/चेतते हैं जड़ों की जकड़न छुड़ाकर।" इसमें बरगद की जकड़न से निकलने की छटपटाहट नवगीत की उसी विकसित चेतना के विस्तृत फलक का परिणाम है।
        
      समकालीन नवगीत अपने सृजन पक्ष एवं उसकी व्यापकता के साथ ही समष्टिमूलकता के लिए गम्भीर है क्योंकि वह जनमानस पर गहराते राजनैतिक महत्वाकांक्षा के दबाव और उसके वातावरणीय और पर्यावरणीय प्रभाव को समझ रहा है इसीलिए तो गरिमा सक्सेना का यह नवगीत नदी को प्रतीक बनाकर "जनजीवन ही भूल गया जब/अर्थ आचमन का/कैसे आएगा फिर बोलो/भाव समर्पण का/राजनीति ने छला हमेशा/नदियों का विश्वास?" और "पतझड़ बीता लेकिन मन ने/बदली नहीं कमीज/चटक मटक कवरों के नीचे/बिकी पुरानी चीज" कहते हुए भी हिम्मत नहीं हारता और "कब से ही धुंध तले पड़े थे उदास/खोया खोया सा था मन का विश्वास/साहस ने काट लिए पतझड़ के दिन" कहते हुए अपने विकसित स्वरूप,सन्दर्भ,दृष्टि और संभावना  के साथ स्वयं के बदलते अहसास और स्वभाव को विस्तृत करने का आग्रही दिखाई देता है।

      उत्तर आधुनिकता, अपसंस्कृति और अमानवीय व्यवहार का उल्लेख और विरोध करने के साथ ही इस समस्या का उपयुक्त हल निकालने का उत्तरदायित्व भी नवगीत लेता है। हमारा वर्तमान भी रिश्तों और पारस्परिक तथा सामाजिक सम्बन्धों के खुरदुरेपन की टीस के साथ जी रहा है और यह कचोट गरिमा को भी है-"क्षरित हुए सम्बन्ध नेह के/जीवन के बदलावों से/सुख की परिभाषा को जोड़ा/है हमने अलगावों से।" इस अलगाववादी सुख में सबसे अधिक घर के बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है-"वृद्धाश्रम में माँ बेटे की राह ताकती"।इसके साथ ही कर्ज़े से लदे हुए किसानों की दयनीय दशा और उनके द्वारा की जा रहीं आत्महत्याओं को निकट से समझती हुईं नगरीय परिवेश की कवयित्री गरिमा 'पराजित स्वप्न' नवगीत द्वारा चकित करती हैं-"इस सूखे में बीज न पनपे/फिर जीवन से ठना युद्ध है/पिछली बार मरा था रामू/हल्कू भी झूला फंदे पर/क्या करता इक तो भूखा था/दूजा कर्जा भी था ऊपर/घायल कंधे,मन है व्याकुल/स्वप्न पराजित समय क्रुद्ध है।" भारतीय राजनीति और सरकारी तंत्र की दशा को टेलीविजन पर तो बखूबी देखा परखा जा सकता है लेकिन 'हंगामा' नवगीत की ये कुछ पंक्तियाँ ही इनकी मनोदशा को प्रस्तुत करने के लिए बहुत हैं-"ओझल मुद्दों को करना है/हंगामा इसलिए ज़रूरी/कला सियासत की यह ही है/यह ही है इसकी मज़बूरी।" और "संसद है या एक अखाड़ा" के साथ ही "दफ़्तर के चक्कर काट काट/टेंशन में रहते बाबूजी" कहती हुई गरिमा सरकारी तंत्र के मकड़जाल और कुव्यवस्था का विवेचन करती हैं।

      इस संग्रह के नवगीत अपने शब्दों,भाषा,बिम्ब,प्रतीक से ऐसा स्वरूप गढ़ते हुए दिखाई दिए हैं जिनमें भारतीय सभ्यता,संस्कृति,दर्शन,अध्यात्म आदि के दर्शन स्वाभाविक ही हो जाते हैं।जीवन में कर्म के महत्व का उल्लेख करते हुए गरिमा का एक नवगीत "कर्म बिना जीवन शव जैसा/निहित कर्म में जीत है/सुफल वही पाता जीवन में/जिसे कर्म से प्रीत है।" गरिमा सक्सेना के इस संग्रह के कुछ नवगीत वैश्विक और मानवीय होकर प्रेम,प्रकृति,सौंदर्य,सामाजिक और वैश्विक चिंतन से जुड़े हुए हैं और मानव के अतिरिक्त प्रकृति के अन्य जीवों,पेड़ पौधों,सागर,नदियों,पर्वतों,ऋतुओं आदि के प्रति भी संवेदनशील हैं।इसीलिए गरिमा सक्सेना के नवगीत बहुमुखी और बहुआयामी  हैं..."पावस सूखे खेतों को अब बाँटो हरी चुनरिया/ टाँको धरती के चीरे को/ रुदन पपीहे का तुम सुन लो/ उपवन जल रहा है/जमा पर्वत गल रहा है/तुलसी को हिस्से में बाँट रहे" आदि के साथ वे सकारात्मक ऊर्जा भी देती हैं-"महक महुए की करे मन को नशीला/हो गया है प्रेममय मौसम हठीला/फूटती हैं नई कोंपल देख ऋतु मधुमास की"

    नवगीतकार राम सेंगर कहते हैं कि आजकल नवगीतों की कहन में डायरेक्टनेस भी खूब आयी है,जिससे युगीन यथार्थ को उसके वास्तविक प्रभाव के सम्प्रेषण की दिशा में पकड़कर बात कहने का जज़्बा तेजी से अपने नए रूप में खुल रहा है।" गरिमा सक्सेना में भी यह बात परिलक्षित होती है।इस संग्रह के कुछ गीत व्यंजनात्मक शैली में न जाकर डायरेक्ट यथार्थ का उद्घाटन कर रहे हैं-"आज समझ पर भारी/चारों ओर दिखावे हैं/सम्बन्धों का तार जोड़कर छलते दावे हैं।" या "मंदिर में मस्जिद में गिरिजा में छल" या "भीड़ अंधी है बिकाऊ भी यही है" या "नख से शिख तक है भ्रष्टतंत्र/रो रो कहते हैं बाबूजी"।

         गरिमा सक्सेना गंवई संवेदना की प्रवृत्यात्मक दृष्टि रखती हैं।जिससे इनके नवगीत समकालीन सन्दर्भों को बड़े ही दाहक परिवेश में भोगे और झेले हुए दिखाई देते हैं-"सोच नहीं पाते/ क्यों हम केवल इतना/कोई भूखा भी है सोता" और "पर भूखा परिवार उसी का है मरता/जोकि अन्न धरती में बोता।" नवगीत केवल वस्तु जगत के बदलाव से प्रभावित नहीं होता,जब तक कि उसके भीतर की अंतश्चेतना के स्वर नहीं फूटते।वरिष्ठ कवि मुकुट सक्सेना लिखते हैं-"नवगीत आँचलिक बोध लेकर सहज अभिव्यक्ति को आतुर हैं।" इस नवगीत संग्रह में भी लोकधुनों, लोकमुहावरों और लोकसंगीत के आत्मबोध से लबरेज़ गीतों का नाद उपस्थित है।

   गरिमा सक्सेना के 'है छिपा सूरज कहाँ पर' संग्रह में जीवन के विभिन्न पहलुओं को आत्मसात कर मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति और पुनर्स्थापना के नवगीत संकलित हैं।इन गीतों में गेयता के मूल तत्व लय और छंद पूर्णता के साथ उपस्थित हैं तो साथ ही चिंतन और चेतना की पारदर्शी तथा यथार्थवादी दृष्टि भी मौजूद है।गरिमा शिल्प और तुकांत विधान में सावधान दिखाई देती हैं।लगभग नवगीत अर्थ विपर्यय से बचते रहे हैं और उनमें अर्थ संक्षेप की प्रवृत्ति बनी हुई है।इनके नवगीतों में अर्थों के शाब्दिक पहलू से अधिक शब्दों के ध्वन्यात्मक संकेतों को महसूस किया जा सकता है।हाँ! शब्दों के प्रयोग में और अधिक सावधानी बरतने एवं नव प्रयोगों के वैचारिक नियोजन की ज़रूरत पर बल की आवश्यकता है।
    
        गरिमा सक्सेना के भीतर का नवगीतकार मयंक श्रीवास्तव के शब्दों में "तुम हमको चट्टानों वाला भाग भले दे दो/लेकिन जल की धार हमारे दर से निकलेगी" वाला है और यह नवगीत संग्रह सत्यनारायण के शब्दों में "शब्द हैं हम/लौट आयेंगे तुम्हारे पास/तुम आवाज़ तो दो" के साथ नवगीत के बिगड़ते स्वरूप को पुनः स्थापित करने की सामर्थ्य के साथ उपस्थित है।

समीक्षक-
अवनीश त्रिपाठी
गरयें,सुल्तानपुर उ०प्र०
पिन-227304
मो०- 9451554243

पुस्तक- 
है छिपा सूरज कहाँ पर (नवगीत संग्रह)
रचनाकार-गरिमा सक्सेना
वर्ष-2019 पृष्ठ-136 मूल्य-₹ 200
प्रकाशन-बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीज प्रा० लि०,नई दिल्ली 
मो०9718526699

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