गरिमा समकालीन गीत, नवगीत के परिदृश्य में एकदम नये नामों में से एक है। पिछले तीन वर्षों में शायद सबसे अधिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली गीतकार कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन वर्षों में उन्होंने लगभग हर मुद्दे पर गीत लिखे हैं। एक तरफ जहाँ गीत का एक संसार पूराने ढांचे को प्रयोगिक नवता देने में जुटा है वहीं गरिमा जी भोगे और दिखाई देने वाले यथार्थ को लिख रही हैं। उनके गीतों में विवधता के साथ नवता की तलाश भाषा के यूरोपीकरण तक दम नहीं तोड़ती.. वह तो विषयगत कुछ नया करने का सोचती हैं। समस्या को समाधान तक ले जाना, उसकी तलाश भी इसी नवता का अंग है।
प्रस्तुत गीतों में कुछ गीत नवगीत के पुराने ढर्रे के हैं जो स्थिति का शोकगायन कर रहे हैं.. वहीं कई गीतों में चेतना और बदलाव की आकांक्षा भी है.. उनके गीतों में.. परदे और डर का लिबास.. स्त्री और यौन शोषण को कितने सलीके से अभिव्यक्त कर रहे हैं.. झूठी क्रांतियाँ ललकार रही हैं.. वो पूछ रही हैं कब तक इन पत्थर के झूठे देवताओं पर चढ़ावा चढ़ाते रहोगो.. क्योंकि ये बरगद तुम्हें पनपने नहीं देंगे अपनी छांव में....-राहुल शिवाय
जठरानल के हिस्से आये
हैं अकाज के दिन
दौड़ रहीं प्रतिभाएँ
फाइल ले दफ्तर-दफ्तर
कितने सपनों को सलीब-सा
ढोतीं काँधे पर
सदियों जैसे बीत रहे हैं
जीवन के पल-छिन
लोकतंत्र भी भुना रहा है
बस आशाओं को
सुखमय, अच्छे दिन वाली ही
दंतकथाओं को
आँखों की जेबों से रिस-रिस
टपक रहे दुर्दिन
सरकारी रिक्तियाँ अधूरी,
झूठे हैं वादे
सुविधाओं के बल पर आगे
निकल रहे प्यादे
ऊपर से शिक्षा-ऋण की
युवकों को गड़ती पिन
-गरिमा सक्सेना
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