सोमवार, 28 जून 2021

दिन कटे हैं धूप चुनते : समकालीनता के निकष पर by बृजनाथ श्रीवास्तव


समीक्षक:-बृजनाथ श्रीवास्तव
                          
             मेरा यह मानना है और मैने अपने विभिन्न आलेखों एवं समीक्षाओं मे इस बात को कई बार कहा भी है कि समकालीन साहित्य आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रामाणिक दस्तावेज होता है . कलाकार और मूलत: साहित्यकार ही एकमात्र वह व्यक्ति होता है जो समाज, उसकी संस्कृति, उसके मूल्यों और तत्कालीन महापुरुषों को अपने लेखन द्वारा अमरता प्रदान करता है. अनेक  तत्सम्बन्धित कथाओं के माध्यम से देश-काल और भावी पीढ़ियों के लिए उन्हें जीवित रखता है . कहना असंगत न होगा कि महर्षि वाल्मीकि जी की रामायण और महर्षि वेदव्यास की जय संहिता ( भारत –महाभारत )  के कारण ही जीवित हैं राम और कृष्ण और जीवित है तत्कालीन समाज और संस्कृति .एक साहित्यकार की महत्ता को इससे अधिक और क्या मूल्यांकित किया जा सकता है .   
            आज का समय विगत आदिम एवं रूढ़ समय से हजारों साल आगे निकल चुका है वह भी अपनी अनेक अद्यतन व्यवस्थाओं एवं परिवर्तित विशेषताओं के साथ. आज वैश्विक स्तर पर  सामाजिक, आर्थिक ,राजनीतिक और धार्मिक  परिदृश्य में हो रहे  बदलावों को देखा जा सकता है। आज औद्योगीकरण , नगरीकरण , यातायात-परिवहन ,संचार ,सत्वर मशीनीकरण , कम्प्यूटरीकरण ,पूंजी का निजीकरण , वैश्वीकरण , जनस्ंख्या विस्फोट , बाजारों का चीनीकरण, अर्थव्यवस्था का अमेरिकीकरण ,परमाणु विस्फोट , आतंकवाद ,  संस्कृति का पाश्चात्यीकरण, ब्रेन-ड्रेन, सरकारी दायित्वहीनता इत्यादि  परिवर्तनों से घर-परिवार से लेकर सम्पूर्ण समाज का ढांचा ही बदल गया. जहाँ इन बदलावों से कुछ लाभ भी हुए किंतु हानियाँ अधिक हुईं . बुजुर्ग पीढ़ी अकेली तथा असहाय हो गई. , अशिक्षा ,बेरोजगारी ,नशाखोरी , मँहगाई ,दैहिक एवं मानसिक रोगों ने जनसंख्या के अधिकांश भाग को अपने पाश में जकड़ लिया. जीवन के सभी क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार, शोषण और प्रदूषण व्याप्त हो गये. भौतिकता की अन्धी दौड़ ने हत्या ,डकैती ,अपहरण ,बलात्कार ,रंगदारी, हफ्ता वसूली , जमीनों-मकानों पर बलात्कब्जा करना जैसे जघन्य अपराधों को आम कर दिया . सामाजिक नियंत्रण के सभी साधन बौने प्रतीत होने लगे . आज सर्वत्र भ्रष्टाचार और शोषण एवं विभिन्न अपराध सामाजिक मूल्य के रूप में स्वीकार किये जाने लगे हैं . देश जिम्मेदार व्यक्तियों की दायित्वहीनता के विषम दौर से गुजर रहा है. यहाँ कुएँ ही में भाँग पड़ी है.
              इन सभी उपयुक्त-अनुपयुक्त बदलावों से साहिय जगत भला अछूता कैसे रह सकता है . इसी संदर्भ में प्रतिष्ठित नवगीतकार स्व. दिनेश सिंह ने अपने नवगीत संग्रह ‘ समर करते हुए ‘ में कुछ इस प्रकार कहा है...
             “जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती ,जिसमें जीवन की बुनियादी सच्चाइयॉ केन्द्रस्थ नहीं होतीं ,जिसका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता वह अपनी कलात्मकता के बावजूद अप्रासंगिक रह जाती है “
 
             आज साठ वर्ष से ऊपर की  यात्रापथ वाले नवगीत के विशद इतिहास में न जाकर कहना चाहूँगा कि आज समकालीन हिंदी गीत-अर्थात नवगीत की यात्रापथ में अनेक रचनाकारों के बीच एक जाना-पहचाना नाम है समृद्ध नवगीतकार  अवनीश त्रिपाठी  का . वे समय तथा समाज के सशक्त एवं जागरूक अक्षरशिल्पी हैं.अवनीश त्रिपाठी का जन्म  27  दिसम्बर 1980  को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जनपद के ‘ गरये ‘ नामक ग्राम में हुआ था .आपके पिता स्व. रामानुज त्रिपाठी जी एक समृद्ध गीतकार थे .अवनीश जी ने विरासत को दो कदम और आगे बढ़कर  नये परिवेश में अपने को ढालते हुए इसे सँभाला . अभी-अभी वर्ष 2019 में उनका प्रथम नवगीत संग्रह  “ दिन कटे हैं धूप चुनते “ प्रकाशित हुआ जिसे मैने कई बार पढ़ा और मुझे लगा कि कवि आभ्यंतर एवं बाह्य जगत तक की दैनंदिनी पर सूक्ष्म दृष्टि रखे हुए है जिसमें उसके साथ जीवंत हो उठा है समूचा समाज ,समूची प्रकृति . लगता है कि कवि ने अपने अनुभवों को गीतों का आकार देने के मार्ग में अपनी उम्र के केवल उनतालिस  बसंत ही नहीं देखे हैं , उनतालिस पतझड़ भी देखे हैं , कड़कड़ाती ठंड में हाड़ कपाऊ पूस की उनतालिस रातें भी देखी हैं ,और सहनी पड़ी  हैं जेठ की उनतालिस चिलचिलाती दोपहरियॉ, उनतालिस  दीपोत्सव एवं उनतालिस रंगीन फागुनी फुहारें  और  बचपन से उम्र के इस पड़ाव तक देखे हैं , सहे हैं  जीवन के अनेक उतार- चढ़ाव. यही देखे ,सुने ,पढ़े , सहे, समझे, जिये  अनुभव ही कवि के सम्पन्न नवगीतों की  मूल्यवान  पूँजी है अर्थात कवि की धरोहर .           
          यह सच है कि अवनीश त्रिपाठी की रचनाओं का वैचारिक फलक बहुआयामी और विस्तृत है . समाज के विभिन्न संघटकों –सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक ,धार्मिक आयामों की समकालीनता  को कवि ने बड़ी ही गहन  और सूक्ष्म दृष्टि से जाँचा, परखा एवं बिलोका है . ‘दिन कटे हैं धूप चुनते ‘ नवगीत संग्रह में कुल अड़तालीस नवगीत रचनाएं संग्रहीत हैं . इन गीतों में जहाँ एक ओर कवि को आपाधापी वाले भौतिकवाद से दिन पर दिन क्षरण हो रहे  अपने सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर को बचाने की जद्दोजहद है जो धीरे-धीरे वैचारिक मुठभेड़ में तब्दील होती जा रही है  तो दूसरी ओर न चाहते हुए भी अपरिहार्य हो जाता है वर्तमान से तादात्म्य रखने की कवायद. जीवन की तमाम संगतियाँ –विसंगतियाँ इसी दोराहे पर आंदोलित होती रहती हैं. इन गीतों में करुणा की सघन सांद्रता है .बेदर्द समय की दुख भरी कथाओं की लम्बी फेहरिस्त है इन गीतों में. ‘अम्मा-बाबू’ में बुजुर्ग पीढ़ी के दुख हैं , ‘ गहरा सूनापन’ ,’सो नहीं पाया मुँगेरी’ , ‘विक्रम हैं बेहाल’ , ‘खिड़की छली गई’ , ‘फिर समय लँगड़ा खड़ा’, ‘भीतर है पुरवाई’ जैसी सशक्त वैचारिक रचनाएँ हैं जो समाज के विभिन्न आयामों के मूल्यह्रास की सच्चाइयों को बयान करती हैं .इन गीतों में जीवंत हो उठे हैं राजनीतिक षड्यंत्र, छल-कपट , मशीनीकरण से उपजी अव्यवस्थायें और अंतत: ऐसा मालूम देता है कि आज पूरी तौर पर  व्यवस्था असमर्थ हो चुकी है बहुत कुछ सँभालने में . ‘ खड़े तथागत सोच रहे हैं ‘ जैसी रचना में व्यवस्थाजन्य असहयोग से उपजी किंकर्तव्यमूढ़ता परिलक्षित होती है ,’ कहाँ गये सब ज्ञानी ‘ में कवि समाज नियामकों और नियंत्रकों की दायित्वहीनता का काला चिट्ठा अनावृत्त करता है. उसे पता ही नहीं चल पाता है कि समाज के जीवन में कब सुख आया . ‘ मंत्र पढ़ें वैदिक’  के माध्यम से  सात्विक और सार्थक आशावाद का संचार होता है . अपराधीकरण और अराजकता इस कदर व्याप्त है कि ‘ बचावें राम रमैया ‘ तक नौबत आ गई है किंतु कवि प्रजापति होता है वह सत्य ,निर्माण एवं मानुषी आस्थाओं के पथ से कभी भी विचलित नहीं हो सकता है और जागरण का आह्वान करते हुए कह उठता है कि ‘ हम मौसम से युद्ध करेंगे ‘  
       संकलन की प्रथम रचना ‘ दिन कटे हैं धूप चुनते ‘ नांदी पाठ करते हुए उपस्थित होती है और संकलन के गीतों की वैचारिकी की बानगी पेश कर देती है .कवि का कहना है कि वह रात भर बहुआयामी कल्पना लोक में विचरता है और दिन कट जाता है धूप के साये ओढ़े अर्थात न तो साकार हो पाती हैं रातों में उपजी सुखमयी कल्पनाएँ और न ही फलवंत हो पाते हैं दिवसों के सकर्मक प्रयास .जो छायाएँ –आश्रय मिलते भी हैं वे होते हैं केवल धूपायी . यही सांसारिकता है और हालत यह कि---
“ रात कोरी कल्पना में दिन कटे हैं धूप चुनते 
भक्ति बैठी रो रही अब तक धुएँ का मंत्र सुनते    
दु:ख हुए संतृप्त लेकिन सुख रहे हर रोज घुनते  “

 ‘ प्यास बोना चाहता है’ में रचनाकार की शिकायत है कि समय का सूरज क्षितिज के द्वंद्व में ही अटक गया वह क्षितिज से ऊपर उठकर ,बाहर निकलकर अभी तक नहीं आ सका है . अर्थात देश को आजादी मिले इस दीर्घ समयांतराल में भी नये दिनों का सूरज ( के सूरज ) अपने सत्ता जंजाल के क्षितिज में ही उलझा पड़ा है उसे जनकल्याण के लिए धूप और प्रकाश लेकर जन सामान्य के बीच आने की जरूरत ही नहीं पड़ी और इधर सूरज और उसके प्रकाश अर्थात जनकल्याणकारी कार्यों के अभाव में पसरा हुआ है घोर सन्नाटा ,असमंजस ,किंकर्तव्यविमूढ़ता . ऐसे में यह अपरिहार्य सत्य हो जाता है कि आम जनजीवन की पीड़ाओं से सराबोर दशा सदैव पुरातनपंथी बंदिशों रूपी फटे-पुराने कपड़ों में ही लिपटी रहे और इस दायित्वहीनता से उपजे समाज में घोर अमानुषता अपराध और भयंकर खून-खराबा अनवरत व्याप्त होता रहे और वह भी सब हठधर्मिता का लबादा ओढ़े तथाकथित ज्ञानियों के द्वारा . दृश्य चित्र देखें ---
“ दूर क्षितिज पर सोया सूरज / सन्नाटों ने लिखीं व्यथाएँ
फटे-पुराने कपड़ों में ही  / लिपटी रहीं सदा पीड़ाएँ    
फिर हठीला ज्ञान रसवंती नदी में / रक्त रंजित हाथ धोना चाहता है “ 
                  
                आज शहरों में अनेक पॉश एरिया विकसित हो चुके हैं जहाँ गगनचुम्बी मल्टीस्टोरीज फ्लैट्स हैं और विशालकाय राजमहल सरीखे भवन . ऐसे माहौल में रहने वालों के चरित्र बड़े ही अमानुष और विचित्र होते हैं .इनके पास असीमित धन-दौलत है ,बँगला है ,कारें हैं-ड्राइवर हैं ,नौकर हैं मोबाइल फोन हैं .इन्हें समाज ,सामाजिकता और आदमी की कोई जरूरत नहीं है और न ही ये किसी से कोई सरोकार ही रखते हैं .एक ही फ्लैट्स में और यहाँ तक कि बगल में ही रहने के बावदूद एक दूसरे से जान –पहचान तक नहीं होती है . न तो कोई मिलता-जुलता है ,न बतियाते हैं. यहाँ के तथाकथित सम्भ्रांत लोगों की सुबहें चाय पीने बाहर नहीं निकलतीं अर्थात बोन चाइना की क्रॉकरी में चाय परोसते हैं नौकर और शामें गुजरती हैं रेस्तराँ अथवा होटलों में इसीलिए कूकरों को सीटियों के बजाने का आदेश ही कहाँ मिलता है  , अय्याशी भरे इस जीवन में चूड़ियों की खनखनाहट और पायलों की रुनझुन की सद्गृहस्थी वाली आवाजो के लिए गुंजाइश ही कहाँ . बल्कि लिफाफों में बंद चिट्ठियाँ ,इशारे और फुसफुसाहटें ही यहाँ की असलियत की दास्तानें कहते हैं . ऐसा महसूस होता है कि प्रकारांतर कवि का आशय है कि ऐसे क्षेत्रों में अवैध देह-व्यापार धड़ल्ले से चलता है .ऐसे एरिया में बुजुर्गों की हालत तो और भी दयनीय होती है .वे अंदर ही अंदर घुटते हैं ,बुदबुदाते हुए अपने दिन काटते हैं ,खिसियाते हैं अपनी आत्मकथा के सुख-दुख किससे बाँटें . घर के सदस्यों के पास इतनी फुर्सत ही कहाँ कि इनसे हाल-चाल पूछें. पॉश एरिया की इस अमानवीय ,एकाकी दशा का शब्दांकन अवनीश की रचना ‘ आवाज कम कर ‘ में देखें ---
“ यह रईसों का मुहल्ला है , आवाज कम कर 
चाय पीने पर निकलती भी नहीं हैं चुस्कियाँ 
अब नहीं बजतीं घरों में कूकरों की सीटियाँ 

टिकटिकाती भी नहीं कोई घड़ी चलती निरंतर 
फुसफुसाती हैं महज अब पायलें औ’ चूड़ियाँ 
बस इशारों में समझते हैं लिफाफे चिट्ठियाँ 
गिट्टियों –सीमेंट वाले मन हुए हैं ईंट पत्थर 
रात दिन बस पोपले मुख बुदबुदाहट ,आहटें 
बिस्तरों से बात करती हैं यहाँ खिसियाहटें 
गेट दीवारें पड़ी सूनी सड़क तू आह मत भर “ 

   ‘ गहरा सूनापन ‘  गीत आम और खास आदमी के बीच विभिन्न क्रिया-कलापों  और जीवन शैली के अंतर के विभिन्न मानकों को लेकर उपस्थित होता है जिसमें वर्तमान भौतिकवादी सत्वर मशीनीकरण – इंटरनेट, सोशल साइट ,टी.वी. विज्ञापन में उलझे हुए आम लोगों की कथा-व्यथा है . आज लोकतंत्र का अधिकांश भाग अपने समय का अधिकांश भाग इन्हीं गतिविधियों में उलझाये रखता है. आम आदमियों के लिए   सरकारी आफिसों की कार्यप्रणाली तो बदलने का नाम ही नहीं ले रही वही मेज ,फाइलों का ढेर , बिखरे कागज , प्रार्थना पत्रों पर फारवर्डिंग दस्तखत, काम में अड़ंगेबाजी और खाने-पीने के नाम पर सुविधा शुल्क लेकर फाइल को आगे बढ़ाना . इसी तरह  विकास के नाम पर अंधाधुंध मशीनीकरण ,सड़्कें ,ट्रक-बसें  उनसे उपजे वायु ,जल और ध्वनि प्रदूषण के आक्षितिज फैले दृश्य चारों ओर समाज में व्याप्त दिखायी पड़ते हैं . यही बहुत कुछ पड़ा है आम आदमी के हिस्से में और खास आदमी के हिस्से में ह्विस्की- शैम्पेन सुरा , बड़ी-बड़ी पार्टियाँ , चियर ,बँगले और नौकर-चाकर अर्थात अय्याशी . देखें अवनीश त्रिपाठी के कवि ने इसे कैसे चित्रित किया है--- 

“ इण्टरनेट ,सोशल साइट से रिश्ता अपनापन 
टी वी चेहरे , मुस्कानों के मँहगे विज्ञापन 
धूप रेत काँटों के ,जंगल ढेरों नागफनी 
एक बूँद बंजर  जमीन पर गाँड़र ,कुश ,बभनी 
धुआँ ,मशीनें , बोल्ट , घिरनियाँ ,केबिन गहरी बातें 
सड़क ट्रकें , शोरगुल चीखें और धुआँती रातें 
व्हिस्की –शैम्पेन ,बड़ी पार्टियाँ आवाजों के चीयर 
बँगले-नौकर ,बूढ़ी खाँसी , गहरा सूनापन  “         
     ‘मंत्र पढ़ें कुछ वैदिक ‘ में कवि के सामने समय के कुछ अमानुष चित्र नर्तन कर रहे हैं ‘ बरगद के नीचे पौधों का टूट रहा सम्मोहन ‘ अर्थात अनुभवसिद्ध पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी के कोई सरोकार ही नहीं रह गये हैं . नई पीढ़ी अद्यतन के नयेपन में इतना व्यस्त है या यूँ कहें कि अंधी है कि पुरानी पीढ़ी के मान-सम्मान और अनुभव की उसे बिल्कुल ही जरूरत ही नहीं है. दोनो पीढ़ियों की मान्यतायें और जीवन मूल्य इतने अलग-अलग हैं . आखिर बदलते समाज की दिशा लगता अधोमुखी हो चली है . इसी चिंता से ग्रस्त कवि नवनिर्माण के स्वप्न सँजोये समाज के जीवन में नवाशा का संचार करने के लिए हवन करने को आतुर और उद्यत है...
“स्वप्नों की 
समिधाएँ लेकर   
मंत्र पढ़ें कुछ वैदिक,
अभिशापित नैतिकता के घर 
आओ हवन करें “
            हवन के द्वारा अपावन नैतिकता का यह शुद्धीकरण अकारण नहीं है. समाज में व्याप्त इसके अनेक अस्वास्थ्यकर कारण हैं जिन्हें ‘ सो नहीं पाया मुँगेरी ‘के माध्यम से  सपनों की जंजाल-वीथी में उलझाये रखा गये आम आदमी के सरोकार हैं क्योंकि हरे-हरे सब्ज बागों के दिखाये गये सपने उसे  छलते रहे हैं .आज के राजधर्म का यही नंगा चरित्र है. इतना ही नहीं छद्म विकास की आँड़ में सत्वर और विशाल मशीनीकरण ने आम आदमी को बेरोजगार कर दिया है ऊपर से नियामक और नियंताओं का तुर्रा यह कि विकास जोरों पर है और कार्य प्रगति पर है .अब राजधर्म को चिंता है आम आदमी के भूखा की प्रकारांतर से न स्वास्थ्य की , न शिक्षा की ,न जानमाल की सुरक्षा की और न ही रोजगार की .कवि ने यह सब दीन दशा कुछ ही शब्दों में बयां कर दी हैं ...
“ छल रहे कुछ स्वप्न जिसको
नींद की चादर तले 
सो नहीं पाया मुँगेरी 
जागता ही रह गया ” 
तथा---
“ घोर आलोचक समय का 
सुर्खियों में आजकल है 
युग मशीनों का हुआ जब 
भूख की बातें विफल हैं “
    इस अमानुष वक्त में छल-कपटी अराजक तत्वों अर्थात आग और लकड़ी की सभी क्षेत्रों में सत्ता के साथ पुख्ता साँठ-गाँठ है “ साँठ-ग़ाँठ अच्छी है अब तो चूल्हे से लकड़ी तक “ और सत्ता प्रपंच केवल कोरे आश्वासनों तक ही अपनी सीमा बनाये हुए है . आखिर ” भूरे बादल का टुकड़ा “ लू होती इन गर्म हवाओं तक कब और कैसे पहुँचे और अगर उससे जूझना भी चाहे तो भला कैसे जूझे . आज बहुमुखी और बहुआयामी  वृष्टि के अभाव में पड़ गई हैं दरारें अंदर से बाहर तक   अर्थात भूख से पेट की आँतें जितनी खाली-खाली हैं उससे अधिक ही प्यास बढ़ गई है खेतों की. देखिये अवनीश के कवि ने इसे कितने ही कारुणिक शब्दों  में व्यक्त किया है ---
“ जूझ रहा है निपट अकेला / गर्म हवाओं से अब तक 
कहें अभागा या संतोषी / भूरे बादल का टूकड़ा 
तथा---
सूखी आतें खेतों में भी  / पड़ी दरारें मोटी गहरी 
पेट-पीठ में फर्क नहीं कुछ / पिचकी देह, पोपला मुखड़ा “
           
           आपाधापी , भौतिकता की अंधी भाग-दौड़,व्यवस्था का पश्चिमीकरण  इन सबकी सच्चाइयों का पारदर्शी लेखा-जोखा और घर की पोर-पोर टूटन की दास्तानें   ‘ बोझिल चेहरा ‘ और ‘आँगन की बूढ़ी खाँसी’   में  जैसे कितने ही गीतों में शब्दों का आकार ले सकी हैं .कवि के जीवन में कब सुख आया  उसे पता ही नहीं चल पाया है .’ भीतर है पुरवाई ‘ में पाश्चात्यीकरण की बाह्य वशीकरण , पछुवाई ,पुरवाई  के द्वंद्व और हवा-हवाई होती नैतिकता में फँसे अद्यतन की बड़ा ही रोचक और सटीक चित्रण किया है .जिसमें  कवि को बड़ी चिंता है बुजुर्ग पीढ़ी के और मूल्यहीनता का लबादा ओढ़े विगलित होते समाज की .यहाँ तक कि सहयात्री के अभाव में और घर के सदस्यों के बीच में ही उन्हें अकेले एकांतवासी करके छोड़ दिया गया है .न समय से उपयुक्त भोजन-पानी और न ही अपनेपन की प्यार बतकही . शब्द दर शब्द कितना सुंदर चित्र उकेरे हैं अवनीश के करुणाप्लुत हृदय ने –--
“ सही नहीं जाती है घर को / आँगन की बूढ़ी खाँसी /धोखे में ही बीत गया है /अरसा लम्बा हिस्सा / बीमारी के दलदल में ही /जीवन भर का किस्सा / वसा विटामिन रहित सदा ही / मिलता भोजन बासी / सहयात्री के साथ नया / अनुबंध नहीं हो पाया / छतें ,झरोखे , अलगनियों के / साथ नहीं रो पाया / पीड़ाओं का अंतर भी अब / है घनघोर उदासी  “ 
      अद्यतन अपावन ,अराजक और अमानुष परिवेश के संजाल में फँसे आम आदमी की दीन-दशा से रचनाकार पूर्णतया वाकिफ है .यह समाज और समय कवि की अपनी आँखों से देखा हुआ है जाँचा-परखा और भोगा हुआ है . समाज के नियंताओं की कार्यशैली और षडयंत्रों को जीता हुआ कवि किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और आखिर में कह उठता है कि “ बचावें राम रमैया “ क्योंकि जीवन के विभिन्न आयामों में अपनी दृष्टि के सम्मुख हो रहे अपावन से उपजी विकल्पहीनता की स्थति को कुछ इस तरह बयां करता है कि---
“ अपने पूरे रोब दाब से / चढ़ा करेला नीम / बचावें राम रमैया / टूट गई खटिया की पाटी / बैठें सोयें किस पर / अब उधार की बात करे क्या / गिरवीं छानी –छप्पर  / लेटे हैं टूटे मचान पर / चुप्पी और नसीम / बचावें राम रमैया /बंधक है लाचार व्यवस्था /किससे व्यथा सुनाये /हाल हस्तिनापुर जैसा अब / दुर्योधन धमकाये / राजनीति की दशा हो गई / जैसे नीम हकीम / बचावें राम रमैया / मंदिर-मस्जिद / चर्च हर जगह /आडम्बर-सम्मोहन /माँग और आपूर्ति धार्मिक / व्यापारों के बंधन /टोकड़े-टुकड़े गये बिखेरे /कितने राम-रहीम /बचावें राम-रमैया “ 
         आज विक्रम का सिंहासन प्रश्नों के घेरे में आबद्ध है और अमानुष व्य्वस्था का बैताल प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहा है .प्रश्नों के उत्तर और हल की गुंजाइश कहीं  दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है .विविध आयामी इन सभी द्वंद्वों से जूझते कवि के पास है अदम्य साहस की पूँजी .साहित्यकार होने के नाते वह उत्तरदायी है साहित्य और समाज के प्रति और कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े किंकर्तव्यविमूढ़  अर्जुन की भाँति आखिर में सार्थक निर्णय लेते हुए उद्घोष करता है कि ---
“ धुंध बहुत है / तुम छुप जाओ / हम मौसम से युद्ध करेंगे / जलता एक अलाव हमारे / मन में हरदम साथ रहेगा / वृक्षों पर्वत घाटी सबके / संतापों का क्रम बदलेगा / कुहरे की आदत गंदी है / अबकी उसको शुद्ध करेंगे / नभ तक पारदर्शिता वाली / अर्थ समझती सीढ़ी होगी / मिथ्याओं का परिवर्तन कर / बस यथार्थ की पीढ़ी होगी / मन में बैठा वहम मिटाकर / हर चेहरे को बुद्ध करेंगे /   नदी ताल पोखर की भाषा / रेत नहीं ,पानी समझेगा / पुलिनों – पगडंडी का अंतर /झीलों का ज्ञानी समझेगा / थरथर करती धाराओं में /जोश भरेंगे क्रुद्ध करेंगे  “ 
         अंततोगत्वा इन बहुआयामी समस्याओं का हल और कल्याणकारी , मानवतावादी ,मानवीय सम्बंधों से रचे-बसे समाज की पुनर्संरचना केवल बुद्धत्व अर्थात बुद्ध दर्शम में ही दिखाई पड़ती है ,ऐसा अवनीश त्रिपाठी के कवि मन का मानना है और उन्होंने कहा भी है कि  “ हर चेहरे को बुद्ध करेंगे “ तथा “ अरे नवागत ! आओ गायें “ आह्वानपूर्ण रचनाओं के माध्यम से . निष्कर्ष और उपसंहारस्वरूप संकलन का अंतिम आह्वानगीत देखें ---
“ विदा-अलविदा कहें-कहायें / अरे नवागत आओ गायें 
फिर कलिंग को जीतें हम सब / फिर से भिक्षुक बुद्ध बनें 
पाटलिपुत्र चलाएँ मिलकर / तथाकथित ही शुद्ध बनें 
चंद्रगुप्त-पोरस बन जायें 
मुस्कानों के कुमकुम मल दें / रूखे-सूखे चेहरों पर 
दुविधाओं के जंगल काटें / संशय की तस्वीरों पर 
कुहरा छाटें , धूप उगायें 
खाली बस्तों में किताब रख / तक्षशिला को जीवित कर दें 
विश्वभारती उगने दें हम / फिर विवेक आनंदित कर दें 
परमहंस के गीत सुनायें
        संकलन के आद्योपांत अनुशीलन के उपरांत मुझे यह कहने में कोई भी संकोच नहीं है कि संकलन की सभी रचनाएँ भाषा एव शिल्प की दृष्टि से कसी हुई एवं समृद्ध हैं जो समकालीनता क्जे निकष पर खरी उतरती हैं . इनमें देहरी के अंदर और देहरी के बाहर विस्तृत संसार के विभिन्न आयामों को बड़ी ही निपुणता ,भावात्मकता, यथार्थता और संजीदगी से जिया गया है . समकालीनता के निकष पर ये गीत पूरी तौर पर खरे उतरते हैं .बड़े अचरज और खुशी की बात है कि अवनीश जी का कवि गौरी-गणेश की परिक्रमा के बजाय जगत के कल्याणार्थ मानुषी आस्थाओं से लबालब बुद्धत्व का आह्वान किया है , वह निस्पृह बुद्ध भिक्षु बनने का आह्वान कर रहे हैं वह अद्यतन राजत्व को कठघरे में खड़ा करते हैं और ‘ पाटलिपुत्र चलायें मिलकर ‘ सामाजिक भेदरहित व्यवस्था की पक्षधरता की बात करते हैं . रचनाओं में मिथकों का प्रयोग न के बराबर है जो कहना है स्पष्ट शब्दावली का आश्रय ग्रहण करते हैं . बचावें राम रमैया जैसी लोकोक्तियों का  यत्र-तत्र प्रयोग दिखायी पड़ता है . भाषा सहज , सरल मनोरम बोधगम्य और सम्प्रेषणीय है . शेष पाठकों के हिस्से में. रचनाओं को पढ़ें ,अनुशीलन करें तदनुसार स्वस्थ समाज के निर्माण में रचनाओं की भागीदारी सुनिश्चित करें . मुझे विश्वास है कि संकल की रचनाएँ अपनी महत्ता को स्वत: प्रमाणित करेंगी.

समीक्षक:---
बृजनाथ श्रीवास्तव 
21, चाणक्यपुरी         
ई- श्याम नगर ,न्यू पी. ए.सी लाइंस
कानपुर-208015
मोबा: 09795111907

पुस्तक का शीर्षक : दिन कटे हैं धूप चुनते  
रचनाकार : अवनीश त्रिपाठी              
वर्ष-2019                                        
प्रकाशक : बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीज प्रा.लि. नई दिल्ली    
मूल्य : रुपये 200/= मात्र

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