बुधवार, 30 जून 2021

विरल काव्यबोध की भावप्रधान कविताएं by अवनीश त्रिपाठी

समीक्षित पुस्तक- उन्हीं में पलता रहा प्रेम
कवयित्री- पूनम शुक्ला
प्रकाशक- आर्य प्रकाशन मंडल,नई दिल्ली
संस्करण- 2017
मूल्य- 200 ₹ (सजिल्द)
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             कविता में भाव तत्व की प्रधानता होती है।मुक्तछंद कविताओं में पद की आवश्यकता नहीं होती है,केवल एक भावप्रधान तत्व ही समाहित होता है।वर्तमान की कविताएं मानवमन की भावनाओं और मानव मस्तिष्क के विचारों और अनुभवों से अधिक प्रभावित हैं।
    आज मेरे हाथ में है 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम'। जो कि कवयित्री पूनम शुक्ला का दूसरा स्वतंत्र काव्य संग्रह है।इस संग्रह की कविताएं भारी भरकम बिम्बों प्रतीकों से बोझिल नहीं हैं।एक पाठक के रूप में कहूँ तो ये कविताएं पढ़ने-बोलने में छोटी भले ही हैं लेकिन इनका प्रभाव खासतौर से उन पाठकों पर अधिक होता होगा जो काव्य में संप्रेषणीयता की अभिरुचि वाले हैं।पाठक को कविताओं के साथ प्रायशः एक समस्या आती है कि वे उसकी अर्थगम्भीरता से असहज हो उठते हैं।इस संग्रह की कविताएं भाषा की सहजता और भावों की सरल संप्रेषणीयता के साथ स्त्री विमर्श की तथा मानवीय संवेदना की उत्कट अभिव्यक्ति कर रही हैं।
        आज के छंदमुक्त और छन्दयुक्त दोनों प्रकार के काव्यों में अक्सर रचना का आरम्भ कसाव के साथ तो होता है लेकिन अंत आते आते रचना भसक जाती है।लेकिन पूनम शुक्ला कविताओं की बुनावट यूँ करती हैं कि वे कविताएं अपने कथ्य का आकार गढ़ते हुए अभिव्यक्ति के ठोस धरातल पर, भावों के बलिष्ठ पैरों के बल खड़ी हो जाती हैं।
          संग्रह की कविताओं में ईंट, गिट्टी, कंकड़, पत्थर जैसी कठोरता नहीं है।शब्दों की खुरदुराहट से खरोंच मारने की हड़बड़ी भी नहीं है।वे जल्दी से खरोंच मारकर प्रसिद्ध होने की उतावली भी नहीं दिखाई देती हैं।इसीलिए इन कविताओं में सहजता है।भावों के धरातल पर अभ्यासी होने का गुण है।सबसे बड़ी बात कि वे कॉपी पेस्ट से बचती गई हैं।उनमें वैचारिक मौलिकता है।
      कवयित्री वस्तुतः स्त्री विमर्श को ठोस आधार देती हैं।मूक वातावरण के बीच हवा की चुप्पी का अपना ही दर्द है।यह हवा स्त्री का प्रतीक है।वे स्त्री को प्राप्त हुए उस रेतीले धरातल को बखूबी जानती और पहचानती हैं जिसमें औरत को विभिन्न सम्बन्धों और बन्धनों की जकड़न से निजात नहीं मिल सकी।स्त्री के जीवन को वे मृगतृष्णा मानती हैं।पूनम जी कहती हैं- 
"बाँध दिया गया उन्हें
और कहा गया
इसी बंधन में है तुम्हारी मुक्ति।" 
      कवयित्री स्त्री के मन की व्यथाओं से गहनता से जुड़ी हुई हैं। वे कहती हैं कि तकनीकी और अभियांत्रिकी में दुनिया ने बहुत विकास भले ही कर लिया है लेकिन वैज्ञानिकों को आज तक चेहरा और मन पढ़ने का यंत्र बनाने में सफलता नहीं मिल सकी है।
        रचनाकार का धर्म और कर्तव्य दोनों है कि वो निकट में घटती हुई घटनाओं को महसूस करे।उथल पुथल को जाने,समझे और बयान करे अपनी रचनाओं में। लेकिन कविताओं को बयान बनने से बचाये।पूनम शुक्ला इससे पूरी तरह वाकिफ हैं।उनकी कविताओं में सड़कों का वाचालपन भी है और हवा की चुप्पी भी। उनकी आलमारी में रखे हुए पति-पत्नी के वस्त्र भी आपस में बोलते बतियाते हैं- 
 "दोनों ही आलमारियों में
रहते हैं हम दोनों के सामान
ताकि घुले मिले
हमारी हर एक चीज
धीरे धीरे आपस में
इनके बतियाने से
न छाया रहे मौन।" 
        कवयित्री जीवन को रनिंग धारावाहिक के रूप में प्रस्तुत करती हैं और उस में आनेवाली घुटन को दूर करने के लिए उनके पास प्रेम का गुलाबी रंग भी है।'नहीं लाऊँगी बोनसाई' कविता में वे बोनसाई को गृहिणी के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करती हैं। 'जब थम जाएगी मेरी हँसी' कविता एक प्रश्न छोड़ जाती है-
"मगर उस दिन क्या होगा
जब थम जाएगी मेरी हँसी"
       "बिन घरनी घर भूत का डेरा" यह एक कहावत पूनम जी की कविता 'कुल सात लोग रहते हैं घर में' पर पूर्णतः लागू होती है।एक गृहिणी के बीमार होने से घर में उत्पन्न दुर्व्यवस्था का यथार्थ चित्रण इस कविता में है-
"कोई बड़बड़ा रहा है,
कोई लड़खड़ा रहा है
गीली तौलिया तरस रही धूप की खातिर
धूल की चादर ओढ़े फर्श ऊंघ रही है
नल आधे बन्द हैं,टपक रहा है पानी
रसोई में कुछ बना है कुछ होटल से आया है
रात होने को है,दरवाजा खुला है
बीमार है बस एक स्त्री उस घर की
और कुल सात लोग रहते हैं घर में।
    यह एक ऐसा यथार्थपरक चित्रण है जो हर घर में अभिव्याप्त है।
          केवल शब्दों का कोलाज़ बनाने और शब्दों की स्फीति गढ़ने से ही कविता कहलाने का सफर तय नहीं होता बल्कि उसमें भाव अथवा कथ्य की उपस्थिति की आवश्यकता होती है।कवयित्री अनभिज्ञ नहीं इससे।वे व्यथित हैं रोजमर्रा की उस जिंदगी से जिसमें सड़कों पर आते जाते हुए बगल से आकर कोई कुछ भी बोल जाता है।वे इस स्थिति को 'मैं वह हरा बोर्ड नहीं हूँ' कविता में आक्रोशित होकर व्यक्त करते हुए कहती हैं-
"सुनो! आज चीखकर
कहना चाहती हूँ सबसे
कि मैं सड़क के किनारे लगा हुआ
वह हरा बोर्ड नहीं हूँ
जिस पर लिखा है कि
यह हुड्डा की हरित पट्टी है
यहाँ कूड़ा फेंकना मना है
और ठीक
उस बोर्ड के नीचे ही
लगा हुआ है कूड़े का ढेर..."
           समाज में सबसे अधिक पीड़ित कोई वर्ग है तो वह है वृद्धजनों का।संग्रह की एक कविता 'बुजुर्गों के बीच' में बुजुर्गों के अकेलेपन और उपेक्षा के प्रति कवयित्री संवेदनशील है- 
"मैं अक्सर बैठ जाती हूँ 
उनके बहुत पास
और निहारती हूँ 
उनके चेहरों की रेखाएं
जो होती हैं कहीं सीधी 
कहीं आड़ी कहीं तिरछी
जिनमें समाहित होती हैं 
उनकी सारी पीड़ाएँ"
         संग्रह की दो कविताएं 'प्रतीक्षा करना' और 'समाधान' सामाजिक और आर्थिक रूप से दलित एवं मजदूर वर्ग की समस्याओं की बात भी कर रही हैं और उनकी स्थिति से आँखें मूँदे हुए समाज के आभिजात्य वर्ग की उस सोच को भली भाँति खोलकर रख दे रही हैं जिस सोच में दलित वर्ग उनकी इच्छापूर्ति का साधन मात्र है। 'अत्याधुनिक' होने की वृद्धिदर ने विकास का मीटर भले ही सही किया हो लेकिन इस विकास ने किसानों की किसानी पर ग्रहण लगा दिया है
"किसानों के खेतों पर
उगने लगी हैं अब
मल्टीनेशनल कम्पनियां।" 
          वर्तमान कविता में वक्रोक्ति या व्यंजनात्मकता की प्रमुखता होती है। उत्तर आधुनिकता में भी परम्परागत वैचारिकता की पोषक मानव प्रवृत्ति को 'अत्याधुनिक' कविता के इस अंश में इसी व्यंजना का रूपाकार मिला है। देखें- 
"आधुनिक इतना कि खुली रह जाएं पतलूनें
सम्पन्नता ऐसी कि चौंधियां जाएं आँखें
शिक्षा ऐसी की खाली हो जाएं जेबें।" 
         संग्रह की शीर्षक कविता 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम' में कवयित्री की भावकल्पना बिम्बधर्मी है।पूनम जी हाथ से हस्तलिपि को पढवाती हैं। हृदय से वेदना को महसूसती हैं।आँखें आंसुओं की गति को समझती हैं तो कलाइयाँ चूड़ियों की भाषा को।इन्हीं सबके मध्य में नफरत के बोये गए बीज भी उग रहे हैं लेकिन कविता प्रेम की सकारत्मकता की वकालत सशक्त होकर कर रही है।'तरक्की' कविता निजी स्कूलों के स्टॉफ की समस्याओं को सामने रखती है।स्त्री का सौंदर्य भी कष्टकारी है उसके लिए।'कुकुरमुत्तों की भीड़ में' कविता में काली और गोरी लड़की का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। 'उपवास' कविता में मानव मानसिकता के बदलते पर्याय की ओर इंगित किया गया है।'चार स्त्रियां', 'कुछ नया हुआ इस बार', 'तुम्हारा स्पर्श', 'दूर से', 'चरित्रहीन', 'बच्चे सीख रहे हैं', 'आज सुबह' आदि कविताएं भी मनोमस्तिष्क को छूती हैं।
        संग्रह में भाषा की सहजता है।क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग लगभग नहीं ही है।तात्पर्य कि कविताओं में ऐसे शब्द नहीं हैं कि पाठक को शब्दकोश की आवश्यकता पड़े।कपोल कल्पना भी नहीं है।कविता में यथार्थ अभिव्यक्ति को ही महसूस किया जा सकता है।कवयित्री अभ्यासी हैं और अध्ययनशीलता भी है लिहाजा शब्दों और वाक्यों के अनावश्यक विस्तार की अपेक्षा उनसे विषयों और विषयवस्तु के विस्तार की अपेक्षा अवश्य है।जहाँ पर शब्दों की सीमाएं समाप्त होती हैं वहीं से कविता आरंभ होती है। आधुनिक कविताओं में शब्दों के जाल बुनने की चतुराई अधिक है। लेकिन पूनम शुक्ला इससे लगभग स्वतंत्र हैं।वे शब्दों की सीमाओं को कविता की आधारभूत आवश्यकता स्वीकार करती हैं।वैचारिक दृष्टि से इसे विरल काव्य बोध कहना ही उपयुक्त है।आशा है कि अगले संग्रह में यह काव्यबोध और पुष्ट होगा तथा अपेक्षित कविताएं पढ़ने को मिलेंगी।

समीक्षक- 
अवनीश त्रिपाठी
गरयें,सुलतानपुर उ.प्र. 227304
9451554243

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