मंगलवार, 1 मार्च 2016

डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर के अवधी दोहे

बेटवा   जबते  बड़ेभे , दिलु  भा   रेगिस्तान।
फिरहूँ ममता मातु की,सींचइ फ़सल सुखान।।

जरिया सारी बेंचि कइ,कीन्हिसि  बापु  इलाजु
धरिसि गड़ांसा  गरे पर, वहइ पुतउना आजु।।    

कुछु  मा  कुछु  लगबइ  करी, रंगु  हमारे  अंग।
 इउ कहबुइ बेकार हइ, 'का करि सकत कुसंग'।।  

पहिले देखेउ परिस्थिति,तब कीन्हेउ तकरार।   
बड़े- बड़े  बिरवा  बहे, लागे   जौनु    करार।।  

चहइ  नहावइ  नील  ते,  चहइ  मुड़ावइ  केस। 
जब तक असली चाम नहिं, का बदले भा भेस।।   

मँहगाई  की मार  मा, बचइ  न  ध्याला सेस। 
जब तक  भ्रष्टाचारु   हइ ,सुखी न होई देस।।

तुम  बिंलगे हउ   डार मा, हम  मछई  हर पात।
हमहू  जानिति हइ कइउ, तुमरेउ घर की  बात।।  

का  कीका  कुछु  मिला हइ, जग मरजादा लाँघ।   
भेदु न ख्वालइ पहिलि का,कबहुँ न द्वासरि जाँघ॥

जोगु जटिल है बिरह ते,औरु बिरह ते राग। 
राग तबहिं फूटत हिए,जब भीतर ह्वे आग।।   

बिरह अगिनि ते हइ कहूँ, कम कविताई पीर। 
तपे आगि  माँ तब  बने, तुलसी, सूर, कबीर।।

-डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
प्रोफेसर,हिंदी भाषा विज्ञान
क्वांगछू विश्वविद्यालय चीन

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