गुरुवार, 28 जनवरी 2016

कालीचरण सिंह 'जौहर' की दो ग़ज़लें

             【ग़ज़ल-एक 】

जागते ही जागते निज चेतना को मारकर।
जी रहे हैं लोग अब संवेदना को मारकर।

एक पथ यदि बंद है तो दूसरा भी बंद है।
रुक गए हो तुम अगर संभावना को मारकर।

हम फ़कीरों के लिए तो ये धरा,आकाश है,
तुम कहां जाओगे अब सद्भावना को मारकर।

स्वार्थ की अट्टालिकाओं के अँधेरे पार्श्व में,
हम छुपे हैं लोक मंगल कामना को मारकर।

जानते तो हैं सभी पर मानता कोई नहीं,
मोक्ष जीवन को मिलेगा वासना को मारकर।

हो कहीं अन्याय तो प्रतिरोध मेरा धर्म है,
जी नहीं सकता ह्रदय की वेदना को मारकर।

              
            【ग़ज़ल-दो】

हम यहां ग़म से हैं दो-चार कहीं और चलें।
आप भी दिखते हैं बीमार कहीं और चलें।

जान पहचान के जो चेहरे थे अनजान हुए,
हम रखें किससे सरोकार कहीं और चलें।

जिस बियाबान में मिलते थे कभी शामो-सहर,
सज गया है वहां बाज़ार कहीं और चलें।

कैसे कमरे में हवा आये दरीचा भी नहीं,
सांस लेना हुआ दुश्वार कहीं और चलें।

हादसा अपने मोहल्ले में हुआ है तो क्या?
पढ़ के देखेंगे कल अख़बार कहीं और चलें।

परिचय-----
कालीचरण सिंह'जौहर'
सुभाष नगर,नरैनी
जनपद--बांदा,उत्तर प्रदेश
शैक्षिक योग्यता---Bsc,Bed
पेशा---उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद में
सहायक अध्यापक
अभिरुचि---हिंदी कविताएं और शायरी
मोब--09721903281

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

वैद्यनाथ सारथी की दो ग़ज़लें

ग़ज़ल--एक
**********

दोस्त कोई न मेह्रबाँ  कोई
काश मिल जाए राज़दाँ कोई।।

दिल की हालत कुछ आज ऐसी है
जैसे लूट जाए कारवाँ कोई।।

एक ही बार इश्क़ होता है
रोज होता नहीं जवाँ कोई।।

तुम को वो सल्तनत मुबारक हो
जिसकी धरती न आसमाँ कोई।।

सारथी कह सके जिसे अपना
सारथी के सिवा कहाँ कोई।।
.........................................

ग़ज़ल--दो
*********

इन्तिज़ार इन्तिज़ार है तो है
ऐतबार ऐतबार है तो है।।

मैं हूँ नादाँ अगर तो, हूँ तो हूँ
वो अगर होशियार है तो है।।

छोड़कर मुझको सिर्फ़ इक वो चाँद
हिज़्र का राज़दार है तो है।।

कल वो हँसता था मेरी हालत पर
वो भी अब बेक़रार है तो है।।

दीद का लुत्फ़ हो गया हासिल
अब नज़र कर्ज़दार है तो है।।
........................................

संक्षिप्त विवरण--
नाम : बैद्यनाथ
उपनाम : सारथी
सम्प्रति: वेतन भुगतान पदाधिकारी ( एस.आई.एस. इंडिया  प्रा. लि. )
शिक्षा : 
संगणक अनुप्रयोग में स्नातकोत्तर (MCA)  और गणित शास्त्र में स्नातकोत्तर (MSc.)
जन्म : 19 अगस्त 1985
ईमेल : saarthi4all@gmail.com
दूरभाष : 9835028416
पता : रघुनन्दन आवास , सुरौधा कोलनी,पोस्ट + थाना – कोईलवर
जिला : भोजपुर
पिन :  802160

रविवार, 24 जनवरी 2016

राहुल द्विवेदी स्मित का गीत

          ●  ~~गीत~~ 
●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

रात तपती रही दिन पिघलता रहा ।
सिलसिला बस यही रोज चलता रहा ।।

हाथ में मोम की बातियों को लिए,
रौशनी के लिए खूब भटका किये ।
हर कदम ये सफर दिल को खलता रहा ......
सिलसिला..............।।

बूढ़े माँ बाप आशा के दीपक तले,
लकड़ियों के सहारे टहलते रहे ।
घर का दीपक निगाहें बदलता रहा.....
सिलसिला .............।।

कल सरे राह सपनों को कुचला गया ,
पास लाकर भरोसे को मारा गया ।
आदमी में भला कौन पलता रहा...
सिलसिला.........।।

राह में एक भूखा भिखारी मिला ,
पाके रोटी किसी से चहकने लगा ।
इस तरह पेड़ नेकी का फलता रहा.....
सिलसिला...........।।

बीज नफरत के बोये गये टूटकर,
सैकड़ों रास्ते मिल गये बेखबर ।
प्यार का एक सौदा ही टलता रहा.......
सिलसिला........।।

देखता है अगर मौन बैठा है क्यों,
वो बिधाता भला आज ऐंठा है क्यों ।
मूंग इन्सान कुदरत पे दलता रहा....
सिलसिला.......।।

चल जला रौशनी नेकियों की निकल ,
खुद के झूंठे भरम को भुला और चल ।
खाई ठोकर मगर तू सम्हलता रहा....
सिलसिला..........।।

--------राहुल द्विवेदी 'स्मित'

शैलेन्द्र शर्मा का सामयिक नवगीत

साहित्य मठाधीशों के लिए
*************************

काव्य-जगत के महामहिम हैं ,
इनको जानो जी
देखो योग्य-अयोग्य नही ,
इनको सम्मानो जी

रहे गर्भ में पिंगल सीखा,
और छठी में गीत
इनके मुख से जो भी निकले,
होता वही पुनीत

ईश्वर को मानो ना मानो,
इनको मानो जी

ये दिन को कहते रात अगर,
और रात को दिन
हाँ में हाँ तुम रहो मिलाते,
प्रतिदिन ,प्रति पल-छिन

सुल्फा भंग संग में इनके ,
तुम भी छानो जी

इनकी गिद्ध-दृष्टि से बचना,
सम्भव नही कभी
ऐसे-ऐसे टुटके करते
होते चित्त सभी

इनकी जडे बहुत गहरीं,
कम मत अनुमानो जी

इनकी खुन्नस के क्या कहने,
धोबी-पाट लगे
इनका डसा न माँगे पानी,
कहते सभी सगे

सुर में कब बजता है ,
बिगडा हुआ पियानो जी

जो दे जितना भाव,
उसी पर नमदा ये कसते
आँखें टंगतीं,जीभ निकलती,
बचता मरते-मरते

तिल को ताड़ बना देते,
इनको पहचानो जी .

© शैलेन्द्र शर्मा

संजीव मिश्र का एक यथार्थपरक गीत

           "परित्यक्ता "
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

"कर अग्निसाक्षी लिये कभी,
     वह सभी वचन हैं दिये तोड़।
हां वह घर मैंने दिया छोड़॥

पग पग पर जिसने छला मुझे,
     कब तक पति परमेश्वर कहती।
सहने की भी सीमायें हैं,
     कब तक आखिर मैं भी सहती।

कब तक मैं साथ साथ चलती,
     उस पथ से ही मुंह लिया मोड़।
हां मैंने वह घर दिया छोड़॥

जितने भी देखे थे मैंने,
      नयनों में सारे स्वप्न जले।
पतिता कुलटा जैसे अगनित,
      मुझको उनसे उपहार मिले।

वह लाल चुनरिया है तज दी,
    मैला आंचल है लिया ओढ़।
हां मैने वह घर दिया छोड़॥

परित्यक्ता मुझको सब कहते,
      लेकिन मैं नहीं निशक्त अभी।
मेरे पथ पर जो बिछे हुये,
      चुनने हैं मुझको शूल सभी।

अपने कोमल से हाथों में,
     साहस को मैंने लिया जोड़।
हां मैंने वह घर दिया छोड़॥"

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

         गीत - संजीव मिश्रा
                  पीलीभीत
    मो. 08755760194
         07078736282

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

अजय सिंह राणा की दो कविताएँ

📙कविता-माँ📙

मेरी हर साँस में
मेरे सब अहसास में
तुम जिंदा हो माँ

मेरे जीने में तुम
मेरे मरने में तुम
मेरी आँखों को ढापती
पलकों में तुम
मेरे चेहरे की हर
सलबटो में
तुम जिंदा हो माँ

मेरे सपनों में तुम
मेरी रातों में तुम 
सुबह की हल्की धूप में तुम 
शाम के गहरे रंगों में 
तुम जिंदा हो माँ

तुम नहीं मरे थे 
उस दिन
मैं मरा था।
तुम तो जिंदा हो
इस पत्थर के बूत में 
अभी तक जान बनकर।

तुम जिंदा हो माँ 
तुम जिंदा हो माँ 

📙कविता-नमी📙

घर की दीवारों की नमी,
खिड़की दरवाजों का
तुफानों मे जोर-जोर से 
टकराना,
पहले नही था ऐसा मंजर
इस आंगन का,
कितने वर्षों से क्यों 
अब कोई नहीं आता यहां
दीवारों मे पडीं दरारों में 
झांकने, 
दरवाजे खिडकियों की 
चटखनियों की
मरम्मत कराने 
कितनी धूल जम गई है 
आंगन में लगे आइने पर
जिसमें अब सब रिश्ते 
धुंधली सी तस्वीर बन गए,
छत पर रखे गमलों मे 
पौधों के अवशेष भी नही बचे हैं 
जिन्हे मां सुबह -सुबह पानी से सिंचिती थी, 
सींचा था  जिन्होने हर एक रिश्तों को
जो इस घर में पलता था

आज मां नहीं है तो, 
सब रिश्ते भी सूख गये है 
बची है तो मेरी आँखों मे नमी 
जो मैने इन दीवारों से ले ली,
जिसमें मेरी माँ की यादें बसी हुई है।

असर 
अजय सिंह राणा चंडीगढ़

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

रमा वर्मा की दो ग़ज़लें

      【ग़ज़ल-एक

याद आती हैं आपकी बातें
क्यूँ सताती है आपकी बातें ।।

चाँद पूनम का जब भी आता है
दिल जलाती हैं आपकी बातें ।।

आपको मुझपे है यकीं लेकिन
आजमाती हैं आपकी बातें ।।

सोचती हूँ कि मिल लूँ ख़्वाबों में
पर जगाती हैं आपकी बातें ।।

चुपके चुपके से आके होंठो पर
मुस्कुराती हैं आपकी बातें ।।

मेरे मासूम से ख़यालों पर
हक जताती हैं आपकी बातें।।

देके रुस्वाइयां "रमा" हमको
फिर मनाती हैं आपकी बातें ।।

        【ग़ज़ल-दो

बात दिल पर लगाने से क्या फायदा
बेवजह रूठ जाने से क्या फायदा ।।

कोरी बातें बनाने से क्या फायदा
झूठ को सच बताने से क्या फायदा ।।

जिंदगी फिर दुबारा मिलेगी नहीं
वक्त को यूँ गंवाने से क्या फायदा ।।

मुँह छिपाते हैं जो काम के वक्त पर
हाथ उनसे मिलाने से क्या फायदा ।।

ख्वाब जो सच नही हो सकेंगे कभी
रोज उनको सजाने से क्या फायदा ।।

दर्द की जो दवा बन सके ही नहीं
जख्म उनको दिखाने से क्या फायदा ।।

जब दुआएं किसी की कमाई नहीं
फिर करोड़ों कमाने से क्या फायदा ।।

-----रमा वर्मा
नागपुर (महाराष्ट्र)

निर्मल आर्या की ग़ज़ल

नाम -निर्मल आर्या
जन्म स्थान -जिला बागपत ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश )
वर्तमान निवास -पानीपत ( हरयाणा  )
पद --गृहिणी
उपलब्धि -कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ
----------------------------------------------
📘📘📘📘📘📘📘
    📔【ग़ज़ल】📔
📙📙📙📙📙📙📙

वो फ़साने सुनाये जाते हैं !
हम उन्हें सच बनाए जाते हैं
*📃
जाने किस बात की सज़ा दे कर
हमपे नश्तर चलाये जाते हैं !
*📃
चोट खा कर हसीं नजारों से
हम ये दामन बचाये जाते हैं !
*📃
उनकी महफ़िल है बेजुबानों की
हम किनारे बिठाये जाते हैं !
*📃
तेरी मुर्दादिली को ऐ दिलबर
जिंदादिल हम ,निभाए जाते हैं !
*📃
उनकी नज़रों में दिल खिलौना है
और हम जी से जाये जाते हैं !
*📃
सर्द रिश्तों में गर्म चापों से
दिल की बस्ती जलाये जाते हैं !
*📃
जिंदगी नाम है रवायत का
बोझ है बस उठाये जाते हैं !
*📃
धर्म इमान जिनकी दौलत है
पागलों में वो लाये जाते हैं !
*📃
राज योगी बनेंगी "निर्मल"भी
ये नजूमी बताये जाते हैं !

----निर्मल आर्या

बुधवार, 20 जनवरी 2016

दिनेश कुशभुवनपुरी की दो रचनाएँ

           गीतिका-एक
       आधार छंद-दिगपाल
मापनी-221 2122 221 2122
📙📙📙📙📙📙📙📙📙📙

ये जिंदगी हमारी,
हर पल हमें सिखाती।
जो हम भटक गए तो,
वह राह भी बताती॥
📚📚📚📚📚📚
चलती सदा हमारे,
आगे कदम बढ़ाकर।
जो हम थके कहीं भी,
तो हौसला बढ़ाती॥
📚📚📚📚📚📚
दो चार पग चले हम,
जो साथ जिंदगी के।
इक रंग उन पलों में,
हर बार है दिखाती॥
📚📚📚📚📚📚
आकाश की ऊँचाई,
पाताल की गहनता।
ये जिंदगी गिराकर,
फिर से हमें उठाती॥
📚📚📚📚📚📚
नाराज भी न होती,
ये जिंदगी  किसी से।
बस कर्म ही हमारा,
आ लौट कर सताती॥
📼📼📼📼📼📼📼

          गीतिका-दो
  आधार छंद- शक्ति छंद
मापनी- 122 122 122 12
📔📔📔📔📔📔📔📔📔

हमें प्यार से तुम सताया करो।
सदा स्वप्न हमको दिखाया करो॥
📚📚
कभी रूठ जाऊं अगर मैं प्रिये।
सदा प्रेम से तुम मनाया करो॥
📚📚
कठिन राह होती चली जा रही।
कदम दर कदम संग आया करो॥
📚📚
भरे खूब कंटक यहाँ राह में।
सुमन राह में तुम बिछाया करो॥
📚📚
कहीं खो न जाना किसी भीड़ में।
डगर में न कर तुम छुड़ाया करो॥
📚📚
लुटेरे खड़े हैं सभी मोड़ पर।
अकेले नगर में न जाया करो॥
📚📚
रहूँगा सदा संग दिल में प्रिये।
हमें प्यार से तुम बुलाया करो।
📡📡📡📡📡📡📡📡

दिनेश कुशभुवनपुरी
चाँदपुर-बरौंसा, सुलतानपुर(उ.प्र.)
चलभाष-07891771737

मनोज जैन मधुर (नवगीत)

📑हम जड़ों से कट गए📑
✍✍✍✍✍✍✍✍✍✍✍

हम जड़ों से कट गए।
📚
नेह के वातास की
हमने कलाई मोड़ दी।
प्यार वाली छाँव
हमने गाँव में ही छोड़ दी।

मन लगा महसूसने
हम दो धड़ो में बँट गए।
📚
डोर रिश्तों की नए
वातावरण-सी हो गई।
थामने वाली जमीं हमसे
कहीं पर खो गई।

भीड़ की खाता-बही में
कर्ज से हम पट गए।
📚
खोखले आदर्श के हमने
मुकुट धारण किए।
बेंचकर हम सभ्यता के
कीमती गहने जिए।

कद भले अपने बड़े हों
पर वजन में घट गए।

---मनोज जैन
कटनी,मध्यप्रदेश
       ******

उमाकांत पाण्डेय का गीत

माटी की सोंधी सुगन्ध
🍑🍑🍑🍑🍑🍑🍑

माटी की सोंधी सुगंध जब
तन-मन को महकाती है।
प्रियवर मेरे आ जाओ तुम
याद तुम्हारी आती है।
🍒🍒🍃🍃
राह देखते जाने कितने
शिशिर और हेमंत गये।
जीवन की उलझन सुलझाते
सारे बीत बसंत गये।
बरसों की प्यासी धरती पर
काली बदली छाती है।
प्रियवर मेरे आ...............।
🍒🍒🍃🍃
सारी-सखियों की चर्चा मैं
रोज-रोज जब सुनती हूँ।
मधुर-मिलन की कोमल आशा
अपने मन में बुनती हूँ।
पुन: प्रणय की अभिलाषा को
पुरवाई भड़काती है।
प्रियवर मेरे आ................।
🍒🍒🍃🍃
गहन-ग्रीष्म की तपन भूलकर
तालाबों में कमल खिले।
तोड़ विरह की करुण व्यथा को
चातक और चकोर मिले।
डाली पर बैठी कोयल जब
मधुरिम स्वर में गाती है।ग
प्रियवर मेरे आ................।
🍱🍱🍱🍱🍱🍱🍱🍱

परिचय
नाम-उमाकान्त पाण्डेय
पता-विकासनगर लखनऊ
मो. 9450827670
शैक्षिक योग्यता -  एम. ए.( दर्शन शास्त्र इ.वि.वि.) बी.एड.
सम्प्रति-  बाराबंकी में शिक्षक के रूप में कार्यरत।
स्थायी पता-ग्राम जमुनिया मऊ
      पोस्ट-मिल्कीपुर।
    जनपद-फैजाबाद।
प्रकाशित रचनाएँ-कविता लोक
(साझा संकलन) देश के कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

चित्र गूगल से साभार

भरत गर्वा की दो ग़ज़लें

            【ग़ज़ल-एक
            📑📑📑📑📑

दर्द थोड़ा, थोड़े आँसू, कुछ गिले हैं और भी,
बाद तेरे ज़िन्दगी ने गम दिए हैं और भी।।
📓📓
तू गया तो यूँ लगा की ज़िन्दगी ही रुक गई,
पर हकीकत है यही की हम चले हैं और भी।।
📓📓
जब मुझे दिखला न पाया अक्स मेरा साफ तू,
क्यूँ जहन में ये न आया आइने हैं और भी ???
📓📓
इक तरफ तो तू जुदा हैं इक तरफ खुद से ही मैं,
मुझसे मेरी ज़िन्दगी के फासले हैं और भी।।
📓📓
मैं पतंगा तू शमा थी और मिलन भी ना हुआ,
फिर बिछड़ के क्यूँ मेरे ये पर जले हैं और भी।।
📓📓
दिल में जिसने भी बसाया पा गया तुझको खुदा,
वरना तेरी ओर बढ़ते काफिले हैं और भी।।
📓📓
मर गया वो गर्व लेकिन लौट कर फिर आएगा,
इश्क बाकी है जहाँ में, दिलजले हैं और भी।।
📃📃📃📃📃📃📃📃📃📃📃📃📃
              
            📑 【ग़ज़ल-दो】📑
                    🔖🔖🔖🔖

मुद्दतों के बाद तुमको अब सदा भी दूँ तो क्या ?
दरमियां जो कुछ नहीं अब वास्ता भी दूँ तो क्या ?
📒📒
बाद जाने के तुम्हारे ज़िन्दगी भी रुक गई,
अब बताओ तुम इसे मैं रास्ता भी दूँ तो क्या ?
📒📒
ज़िन्दगी की छत खुली है ढक न पाया कोई भी,
खुद को गम की बारिशों में आसरा भी दूँ तो क्या ?
📒📒
ज़िन्दगी की कश्तियों को डूबने का शौक है,
बारहा इनको नये मैं नाखुदा भी दूँ तो क्या ?
📒📒
मैं रुका था उम्र भर बस ज़िन्दगी ठहरी नहीं,
पर न आया लौट कर वो अब सदा भी दूँ तो क्या ?
📒📒
उम्र भर का दर्द दे के बेरुखी कहने लगी,
क्या सताऊ मैं तुम्हें अब फासला भी दूँ तो क्या ?
📒📒
दास्ताँ-ए-बेवफाई लिख के पूछे गर्व अब,
बेवफा को इससे अच्छा आईना भी दूँ तो क्या ?
📜📜📜📜📜📜📜📜📜📜📜📜📜📜

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

शैलेश अग्रवाल की रचना

          📰📰ज़िन्दगी📰📰

ये जिँदगी आज मुझसे हिसाब माँग रही है, 
मानो सूखी नदी से सैलाब माँग रही है 
मैँने तो किया था सवाल जिँदगी से, 
आज जिँदगी ही मुझसे जबाव माँग रही है, 
ये जिँदगी आज......📰

मैँ तो हूँ माली, पौधोँ को सीँचता हूँ, 
देखकर प्यार भँवरोँ का आँखेँ मीचता हूँ,
कोई पूरी खिल गयी है, कोई अधखिली कली है, 
इस पेड की लताऐँ उस पेड से जा मिली हैँ, 
मैँ खुद सह रहा हूँ यहाँ काँटोँ की चुभन को, 
और ये बगियाँ मुझसे, गुलाब माँग रही हैँ, 
ये जिँदगी आज.....📰

मैँ हूँ श्यामबिहारी, यहाँ गोपियोँ से घिरा हूँ, 
घर मेँ भी और बाहर भी, मैँ हर जगह लुटा हूँ, 
किसी ने खिलाया माखन, किसी ने मुझे नचाया, 
कोई मिल गयी यूँ ही, किसी ने बहुत सताया, 
कोई सुन रही है मेरे अनोखे किस्से, 
कोई जिँदगी की किताब माँग रही है, 
ये जिँदगी आज.......📰

मैँ हूँ इस दुनिया का सामान्य सा प्राणी, 
ना ही कोई ज्योतिष, ना ही कोई ज्ञानी, 
पल पल मैँ मरता हूँ, ना कोई पल जीता हूँ, 
हर रोज ही गमोँ का अहसास मैँ पीता हूँ, 
इन गमोँ को भुलाने, अब सोने मैँ चला हूँ, 
और ये नीँदेँ मुझसे मेरे ख्बाव माँग रही हैँ, 
ये जिँदगी आज .......📰

शैलेश अग्रवाल 
क़स्बा = खेड़ली
तहसील= कठूमर
जिला= अलवर (राज.)
मो.= 8560089197

चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 18 जनवरी 2016

सागर प्रवीण की ग़ज़ल

ग़ज़ल-"बात क्या है"

अजब है यार मंजर बात क्या है
वो आई है सँवरकर बात क्या है.

खबर बस प्यास की पाकर लबों तक
चला आया समंदर बात क्या है.

उसे दिन रात नभ से देखतें हैं
सितारे आँख भरकर बात क्या है.

बहुत सी कोशिशों के बाद भी क्यूँ
नहीं बदला मुक़द्दर बात क्या है.

गले मेरे लिपट वो खूब रोयी
न जाने क्यूँ सिसककर बात क्या है.

अकेली खुद है फिर भी पूछती है
नदी मुझसे कि "सागर" बात क्या है.

सागर प्रवीण

चित्र गूगल से साभार

गोप कुमार मिश्र का परिचय एवं गीत

नाम - गोप कुमार मिश्र
जन्मतिथि - 21-3-1959
निवास - ग्राम - चड़रा , पोस्ट - महोली
जिला -सीता पुर . उ० प्र०
वर्तमान पता --
भेरिया रेहिका , बी. एम. पी. -7
भारतीय विमान पत्तन प्राधिकरण , कटिहार ( बिहार)
चलभाष - 09650329494
मेल आई.डी gopekumar@rediffmail.com
शिक्षा - डिप्लोमा ( इलेक्ट्रानिक्स)
सम्प्रति
भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण में सहायक महा प्रबंधक पद पर कार्यरत
सम्प्रति - कई मंचो से साहित्य सम्मान से सम्मानि
प्रकाशित कृतियाँ - साझा संकलन 'कवितालोक : प्रथम  उद्भास प्रमुख पत्र पत्रिकाओं तथा ई- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित!

             【प्रथम गीत】
          ~कंटको की छाँव में~
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जिंदगी हमनें गुजारी कंटको की छाँव में।
चलते चलते पड गये है छाले मेंरें पाँव में।।

गोद धरती थी बिछौनाँ तान अम्बर चदरियां।
सुबह थी मुझको उठाती मन्दिरों की घण्टियां।।
ये कहाँ हम आ गये है कोटरों के गाँवमें
                               चलते चलते पड------।।

चाँद मट मैला हुआ श्वांस भी दूषित हुई।
प्रगतिपथ पर यूं बढे मंजिलें धूमिल हुईं।।
लोग रहते हैं यहाँ पर अपनें अपनें दाँव में
                               चलते चलते पड--------।।

मंजिलों की ख्वाहिशो में रात दिन भटका किए।
प्यास आंखों में जगाकर नेह का सदका लिए।।
मुश्किलें आसान होंगीं मेरी अगले ठाँव में
                               चलते चलते पड--------।।

धर्म ग्रंथो मे लिखी और श्रुति पुराणों नें कही।
आदमी के वास्ते काम कुछ मुश्किल नहीं।।
देरी इक संकल्प की देरी बनें क्यूं पाँव में
                                चलते चलते पड-------।।
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   【द्वितीय गीत】
छोटी सी स्वपनिल आशा
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हर घर में, तुलसी का चौरा,
घनी नीम की छाँव रे।
नयनों में ज्योती बन बसता,
ऐसा मेरा गाँव रे।।

निर्मल सी नदिया बहती है।
पवन मलय मानों कहती है।।
कन्धे ज्यादा, बोझ जरा सा,
गम का , जले अलाव रे।
ऐसा मेरा गाँव रे।।

बेटी हिरनीं सी है डोलें।
चाकर को भी काका बोलें।।
गली-२ है बुलबुल गाती
कोई करे ना, काँव रे।
ऐसा मेरा गाँव रे।।

राम- रहीम मे भेद नही है।
कोई बैद्य –हकीम नही है।।
प्राणों मे पाहुन बसते है
ऐसा अनुपम ठाँव रे।
ऐसा मेरा गाँव रे।।

शायद देख रहा मै सपना।
अपनों से भी बढकर अपना।।
मै जागूँ, और सच हो जाये
मेरे सपनें का गाँव रे।
ऐसा मेरा गाँव रे।।