पलायन से हमें अपने, पहाड़ों को बचाना है ।
कभी भी जन्मभूमी को, नहीं यारों भुलाना है ।
जड़े अपनी कभी मत छोड़ देना तुम शहर जाकर ,
अभी भी गाँव में इक वृक्ष पीपल का पुराना है ।
जो' अंदर है वही बाहर, यहाँ के लोग होते हैं ,
हमारे गाँव का जीवन, सरल, सादा, सुहाना है ।
कभी मत बेचना सुन लीजिये पुरखों का बूढ़ा घर ,
यहाँ बचपन की यादों का बड़ा भारी खजाना है ।
परिन्दा आसमानों में, उड़े दिन भर भले जितना ,
मगर हर शाम उसको वृक्ष पर ही लौट आना है ।
पके बेड़ू , पके हीसर, लदे हैं वृक्ष काफल से ,
कभी भी लौट आ जाना, अगर किनगोड़ खाना है ।
कभी 'अनजान' मत रहना, पहाड़ी सभ्यता से तुम,
सदा खुशहाल अपनी मातृभूमी को बनाना है ।
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