दीवारों के कान में
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धुंआं कह गया
जाने क्या क्या
दीवारों के कान में।
बर्तन में अदहन का पानी
गया खौलकर सूख
बैठी है चूल्हे के आगे
आश लगाए भूख
शरणार्थी हो गए
अपशगुन -
सूने पड़े मकान में।
अब तक जिस पर किया भरोसा
जिसके ऊपर नाज़
लूट ले गया इज्जत
पानी निकला धोखेबाज़
लगा रही आरोप
पिपासा --
अपने लिखित बयान में।
ऊंची नीची पगडण्डी पर
लेकर अपने साथ,
चली जा रही शाम
न जाने कहाँ पकड़ कर हाथ।
चलने की
सामर्थ्य नहीं अब
खुद बूढ़े दिनमान में।
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---स्व० रामानुज त्रिपाठी
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