समीक्षक-डॉ शोभनाथ शुक्ल
'दिन कटे हैं धूप चुनते ' कवि अवनीश त्रिपाठी का पहला नवगीत संग्रह है, पर नए बिम्बों-प्रतीकों की तलाश में इन्होंने अदभुत सफलता हासिल की है...।लोकजीवन के बीच अपनी अमिट छाप डालने वाले गीतों के लंबे जीवन के पीछे का प्रमुख कारण ही रहा है उसकी श्रम से जुड़ी लयात्मकता और जन भावनाओं की अभिव्यक्ति..।गीत अपनी पारंपरिक विरासत के साथ आज के नवगीत के यथार्थ तक आ पहुंचा है, जहां सम्पूर्ण सामाजिक प्रतिबद्धताओं, मानव मन के खोखलेपन और नए मुखौटों की ओट में संस्कारहीन होते जाते चेहरों की पहचान सम्भव हो पाई है जब कि पहले के मुकाविले आज जीवन की जटिलताएं अधिक बढ़ गई हैं, आर्थिक उदारीकरण और नए कारपोरेट जगत के आपसी ताने-बाने के बीच जिस कठिन और खंडित व्यक्तित्व की पहचान मुश्किल हो गई है ,वह आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती रही है। आज के सजग लेखक की सजग लेखनी इस चुनौती का सामना यदि नहीं कर पा रही है तो इसे लेखकीय दायित्व के प्रति विफलता ही कहा-समझा जाएगा..। 'दिन कटे हैं धूप चुनते ' में संकलित अड़तालीस नवगीतों को पढ़ने के बाद यही लगता है अवनीश त्रिपाठी अपने समय को सिर्फ जी ही नहीं हैं बल्कि आततायी होते जाते समय-समाज की नब्ज पर अपनी पकड़ बनाने में कामयाब भी रहे हैं...।
कवि कर्म उत्तरदायित्व पूर्ण होता है, कारुणिक संवेगों का अहसास ही लोकमंगल के प्रति चिंतन को प्रेरित करता है.. यही चिंतन कवि के कवित्व को सार्वभौमिक बनाता है.. यहां कवि अवनीश त्रिपाठी अपनी कविता में मानवीय जीवन की त्रासद परिस्थितियों के साथ साथ जीवन के उल्लास और उमंग को भी आत्मसात करते हैं और जो कुछ भी अहितकारी है उस पर शब्द-हथौड़ों से चोट भी करते हैं ...।
ये कविताएं आज के दौर की ताकत हैं जो प्रत्यक्षता मानव के साथ, अपने को, अपने आसपास को और व्यवस्था के जटिल तंत्र को पहचानने हेतु सिर्फ प्रशिक्षित ही नहीं करतीं बल्कि लोकधर्मी चेतना के साथ व्यवस्था से भिड़ने का आवाह्न भी करती हैं। आजादी के 70 वर्षों बाद भी मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिस्थापित न कर पाने की व्यवस्थागत विडंबनाओं और काइयाँपन को जिस तरह कवि अभिव्यक्ति देता है वह निसंदेह कविता की मूल आत्मा को छूने जैसा ही रहा है.......
' संबादों की अर्थी लेकर आई नई सदी, अंधियारों ने उजियारों के बिस्तर बांध दिए, 'मूल्य भी लाचार लेटा है नदी के घाट पर, ' देह की निष्ठा अभागिन जल उठी संकोच बुनते, ' हम रहे अनजान हरदम ही यहां हाथ के तोते अचानक उड़ गए, ' भीड़ संशय में खड़ी बतिया रही रास्ते चुपचाप जाके मुड़ गए जैसी पंक्तियां सुप्त नसों में भी रक्त प्रवाह तेज कर देती हैं।
यह देखा जाना जरूरी होता है कि आखिर रचनाकार की रचना किसी पाठक को क्यों? किन कारणों से आकर्षित करती है। कथ्य का नयापन पाठक को आकर्षित तो करता ही है, बिम्बों के सटीक प्रयोग से जब शब्दों के व्यापक अर्थ खुलते हैं तो कविता की ओर पाठक खुद ब खुद दौड़ पड़ता है... अवनीश बिल्कुल नए बिम्बों-प्रतीकों के जरिये घर के कोनों के संकेतों से पूरे देश-समाज को समझने की दृष्टि विकसित करते हैं.....
'तनिक नहीं अफसोस तवे की रोटी भले जली, ' कोने हैं चुपचाप घरों के रोई गली-गली, 'सूखी आँतें पड़ी दरारें खेतों में मोटी गहरीं, ' मूल्य भी लाचार लेटा है नदी के घाट पर, ' सही नहीं जाती है घर को आंगन की बूढ़ी खांसी, 'अभिशापित नैतिकता के घर आओ हवन करें, मिट्टी महंगी बिकती लेकिन सस्ता हुआ जमीर,जैसी काव्य पंक्तियां हमें सोचने को विवश करती हैं।
कविता उम्मीदें छोड़ नहीं सकती और न ही सत्ता सुख की गोद में बैठ कर अठखेलियाँ ही कर सकती है ..कविता प्रतिरोध को जन्म देती है और संघर्ष का आवाह्न करती है ..मनुष्य के पक्ष में जो कुछ भी सकारात्मक है, उसकी सार्थकता बनाये रखना कविता अपना धर्म समझती है....
'बेलगाम हो चुकी समस्या बौने संवेदन से, ' टुकड़े टुकड़े बांट रहे हम खुशियां भी वेमन से, 'रात कोरी कल्पना में दिन कटे हैं धूप चुनते, ' बोझिल चेहरा थका हुआ है सुख -दुख का अंतर ढ़ोने में,आदि पंक्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं...।
सही अर्थों में यहां अवनीश त्रिपाठी जनकवि की भूमिका का निर्वाह करते हैं' दिन कटे हैं धूप चुनते ' के नवगीत आज के समय से संवाद करने में मुखर हैं। 'सतहों पर मौसम की बेटी करती है अठखेली, झुके पेड़ सब नाप रहे हैं पानी की गहराई'...इसी गहराई को नापने की जरूरत महसूसने वाला कवि प्रकृति,प्रेम और सौंदर्य के प्रति भी सजग है जो जीवन के लिए जरूरी है ' नेह में गुलदाउदी रह-रह नहाई रात भर ' इसी का अप्रतिम उदाहरण है...,।
उम्मीद की जानी चाहिए कि अवनीश त्रिपाठी की पहचान इन्हीं सार्थक जन अभिव्यक्ति के लिए किए गए सार्थक प्रयास के कारण ही बनेगी...और जो कुछ भी छूट रहा है -बाकी रह गया है यहां,अगले संग्रह में और अधिक सार्थक-बेहतर होकर आएगा....।
समीक्षक-
डॉ०शोभनाथ शुक्ल,
सम्पादक-कथा समवेत
सुलतानपुर
9415136267
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