बीच भंवर से होकर ऐसे, गुजरी अपनी नाव,
कितने ही तटबंध, समय से पीछे छूट गए।
जिनको अपने रक्त कणों से,
वर्षों तक पोसा।
उन रिश्तों नें बात बात पर,
जी भर कर कोसा।
झूठे आश्वासन, कैसे भर पाते मन के घाव,
कितने ही सम्बन्ध, निलय से पीछे छूट गए।
जर्जर नौका लेकर अपनी,
कहाँ-कहाँ भटके।
जिस घट पहुंचे,उस केवट के
नयनों को खटके।
पथ के भटके, के हक में, कब पथ का हुआ चुनाव,
कितने ही उपबंध, विषय से पीछे छूट गए।
अधरों पर अमृत,अंतस में,
विषमय भाव लिए।
कितने ही सहचर आए,
मायावी दाँव लिए।
लेकिन,अनुभव नें पहुँचाया,
आखिर मन के गाँव।
कितने ही छल छन्द विजय से पीछे छूट गए।
✍️चंद्रेश शेखर
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