मंगलवार, 22 जून 2021

दोहे by अवनीश त्रिपाठी

सच्चाई को घेरते, झूठों के प्रतिरूप।
लगता जैसे पलटकर, फटक रहे हों सूप।।
 
बूढ़े बरगद के तले, बुद्ध रहे हैं सोच।
वर्तमान परिवेश के पैरों में है मोच।
 
भाषाओं की कैंचियाँ, जिनके जिनके पास।
त्रिज्याओं को खींचकर, बना रहे वे व्यास।।
 
बाहर ज़हरीली हँसी, भीतर चुप्पी घोर।
कब समझेंगे हम सभी, अपने मन का शोर।।
 
राजनीति की दुर्दशा, हुई बहुत घनघोर।
अफवाहों के पोस्टर, चिपके चारों ओर।।
 
भरी भीड़ में चीखते, लँगड़े हुए सवाल।
संवेदन की देह में, घुस आया बेताल।।
 
ठकुरसुहाती है बहुत, लोकतंत्र में आज।
सबके अपने ताज हैं, सबके अपने राज।।
 
नहीं सुन रहे चीख को, नहीं दे रहे ध्यान।
अब तो बहरे हो चुके, दीवारों के कान।।
 
संस्कार की देह पर, छोटी हुई कमीज।
कटु शब्दों ने लाँघ दी, होठों की दहलीज।।
 
पुनर्प्रश्न की देह पर, पूर्वोत्तर की टीस।
राजनीति इस वर्ष की, नहीं रही उन्नीस।।
 
धुँधलाये से सफर में, सूने हैं अहसास।
जीवनभर जिंदा रही, अवसादों में प्यास।।
 
पूर्वकाल पर मौन है, पूरा उत्तरकाल।
प्रश्नों के आकार पर, वैचारिक हड़ताल।।
 
मन से शायद दूर हैं, नेहभरे ठहराव।
चुप्पी साधे इसलिए, सूने पड़े अलाव।।
 
मोल भाव के फेर में, जब से चली खरीद।
मूल्ययुक्त अब प्रेम की, कटने लगी रसीद।।
 
उभर गए दीवार पर, कुछ आदिम अहसास।
घड़ी इसलिए आजकल, रहने लगी उदास।।
 
बूढ़े पेड़ों से हुई, बातचीत जो आज।
नन्हे पौधों को मिले, जीवन के कुछ राज।।
 
नटखट अल्हड़ धूप के, हाव भाव ठहराव।
शाम ढले है खटकता, इनका बहुत अभाव।।
 
फिसल रहीं हैं उंगलियाँ, खेल रही हैं खेल।
इक-दूजे को इन दिनों, कसकर रहीं धकेल।।
 
ठगने को आतुर सभी, करना होगा गौर।
सोचो परखो समय को, यह निर्णायक दौर।।
 
चीख भरे दिन बेसुरे, सन्नाटे में रात।
इस बदले माहौल में, खोई अपनी बात।।
 
खीस निपोरे हादसे, हर पल रहते पास।
लँगड़ी लूली भावना, दिव्य-अंग अहसास।।
 
साँकल-कुंडी-चिटकिनी, दरवाजे, दीवार।
सन्नाटों की गूँज के, अलग-अलग आकार।।
 
केन्द्रविन्दु पर हम खड़े, लगा रहे हैं आस।
शायद कोई खींच दे, एक वृत्त का व्यास।।
 
थकी-थकी सी है सुबह, बोझिल-बोझिल शाम।
मौसम अबकी रह गया, कुछ बूँदों के नाम।।
 
खुलीं खिड़कियों को मिला, सोने का अभिशाप।
लुटवाकर घर सींखचे, बैठ गए चुपचाप।।
 
पारेषण की दृष्टि से, आवश्यक है व्यष्टि।
एक-एकशः व्यष्टि से, होती सृष्टि समष्टि।।
 
मूक व्यथा को पहनकर, ओढ़ लिया अवसाद।
ऐसों के मुख से भला, कैसे निकले नाद।।
 
कितने इंजेक्शन लगे, कितनी सारी ड्रिप्स।
प्राण निकलकर उड़ गये, व्यर्थ हो गईं टिप्स।।
 
सद्य प्रसूता स्नेह से, फेर रही है दृष्टि।
संतति के वात्सल्य से, आच्छादित है गृष्टि।।
 
सदाचार का आवरण, ओढ़े है ईमान।
दो कौड़ी के लाभ में, लगी हुई है जान।।
 
शब्दों के संग्राम में, केवल शह या मात।
अर्थ व्यर्थ ही कर रहे, संधिपत्र की बात।।
 
अपशब्दों का व्याकरण, प्रत्यय, सन्धि, समास।
गठबंधन कुछ अलग ही, दिला रहा विश्वास।।
 
माँग रही जनता यही, सुन लो चौकीदार।
खत्म करो इस देश से, सारा भ्रष्टाचार।।
 
भूख प्यास से बिलखते, लोगों को दरकार।
रोजगार कुछ तो हमें, दे दो चौकीदार।।
 
सिद्धहस्त इतनी हुईं, चढ़ आया है भाव।
तारीखें अब वर्ष को, देने लगीं सुझाव।।

मानसून तप कर रहा, वर्षा है गमगीन।
जनजीवन की पीठ पर, कसी धूप की जीन।।
 
कुछ बूँदें अहसास की, मानसून के पास।
लगता सबने ले लिया, वर्षा से सन्यास।।
 
न ही सुरमई शाम है, न ही चम्पई भोर।
आँधी, गर्मी, प्यास की बातें, ही घनघोर।।
 
कथरी, कमरी, चीथड़े, फटी पुरानी शाल।
ओढ़े दुबकी है व्यथा, कोने में बेहाल।।
 
स्वाहा होते कुण्ड में, आशाओं के मंत्र।
धुआँ हुए परिवेश से, परिचय का गणतंत्र।।
 
भूख-प्यास से त्रस्त है, लोकतंत्र का पेट।
हवा चिताओं से रही, सुलगाती सिगरेट।।
 
विक्रम भी चुपचाप हैं, ओढ़े मोटी खाल।
प्रजातन्त्र की रीढ़ पर, चढ़ बैठा बेताल।।
 
दशा-दिशा दोनों हुए, शोषित, दलित, निरीह।
जातिवाद की डायनें, नहीं डाँकतीं डीह।।
 
संविधान किससे कहे, अपनी व्यथा असीम।
राजनीति ने कर दिए, कितने राम-रहीम??
 
'राजा गूँगा है यहाँ, बहरी है सरकार'।
कहते-कहते इस तरह, प्रजा गिरी मझधार।।
 
बूढ़े बरगद की जड़ें, भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।।
 
गूँगे-बहरे शब्द का, खोज-खोजकर अर्थ।
नियमित भाषा-व्याकरण, होने लगे तदर्थ।।
 
मरुथल मन आकाश का, देह हो गई धूप।
आहुतियां बस छाँव की, जीवन है विद्रूप।।
 
ईंगुर जैसी यह सुबह, सिन्दूरी सी धूप।
हल्दी का दोना लिए, सूरज का शुभ रूप।।
 
कैसे घिरती जा रही, निपट अभागिन भोर। 
कुहरे की बंदिश बढ़ी, धूप गई किस ओर।।
 
हरकारा मौसम हुआ, ठगी ठगी है भोर।
बदली के संग ब्याह कर, बदल गया चितचोर।।
 
नव दूर्वा नव मञ्जरी, नव नव कुसुम पराग।
नवल किशोरी का हृदय, नव कोमल अनुराग।।
 
ज्यों ही मुझको छू गया, यह मधुरिम मधुमास।
मन के रंगों को हुआ, फागुन का आभास।।
 
वैदर्भी यह दृष्टि है, राग भैरवी नेह।
हृदयों में संगीत का, बरस रहा है मेह।।
 
उपवन की अमराइयाँ, तर महुए की छाँव।
बरबस तुमको खोजते, चल पड़ते हैं पाँव।।
 
पग आहट का ज्यों हुआ, तनिक मुझे आभास।
अधरों पर छाने लगा, नेह भरा मधुमास।।
 
सरक गया तन से वसन, खुले कली के गोड़।
भौंरों में मचने लगी, छू लेने की होड़।।
 
काजल फिर कोमल हुआ, निष्ठा हुई निशेष।
खड़ा हृदय के द्वार पर, प्रीति नेह दरवेष।।
 
गोरी का मधुमत वदन, ज्यों बौराया आम। 
देख देखकर बढ़ रहा, तरल हृदय में काम।।
 
बिल्ली के संग आजकल, चूहे रहे दहाड़।
खोद-खोदकर कुछ बिलें, सोचें गिरे पहाड़।।
 
अधरों को छूने लगी, महक रही है श्वांस।
लाजभरे दोनों नयन, दोनों में है प्यास।।
 
भूल गया मानव यहाँ, रिश्तों का भूगोल।
भीतर बैठा भेड़िया, ऊपर मृग की खोल।।
 
जटिल हुई जीवन्तता, टूट गए सम्वेद।
उग आये फिर देह पर, कुछ मटमैले स्वेद।।
 
निर्विकार संचित समय, विकल बुद्धि विपरीत।
छन्द-रहित होने लगे, मानवता के गीत।।
 
प्राची की आँखें खुलीं, उषित सूर्य का गात।
स्नेह वसन ओढ़े चली, पश्चिम को अब रात।।
 
ज्येष्ठ माह के कांध पर, टिकी हुई है साख।
बैसाखी लेकर चला, लंगड़ा जब बैशाख।।
 
टूट टूट गिरने लगे, नक्षत्रों के दाँत।
उम्मीदें रूठी हुईं, ऐंठ रही है आँत।।
 
बाहर सम्मोहन दिखा, भीतर विषधर सर्प।
अनपढ़ चिट्ठी ने पढ़े, अक्षर अक्षर दर्प।।
 
बादल हरकारा किधर, घबराहट में जून।
पूछ समय से लिख रहा, ख़त में सब मजमून।।
 
मुड़ा-तुड़ा कागज हुआ, सूरज का विश्वास।
बादल भी लिखने लगे, बुझी अनबुझी प्यास।।
 
खेत-मेंड़ लिखने लगे, फसलों का सन्दर्भ।
देख इसे चुपचाप है, क्यों धरती का गर्भ??
 
धूप उनींदी सी हुई, अलसाई सी भोर।
पावस ऋतु में धुंध की, चादर चारों ओर।।
 
रंग, कूँचियां, पेंसिलें, नहीं चाहिए मित्र।
देखो बादल गढ़ रहे, कितने चित्र विचित्र।।
 
दीवारें, ईंटें सभी, रोईं हर-पल साथ।
दरवाजे, छत, खिड़कियां, छोड़ चले अब हाथ।।
 
सिरहाने की चुप्पियाँ, पैताने की चीख।
मौन देह की अस्मिता, मृत्यु-पाश की भीख।।

अवनीश त्रिपाठी
गरयें,सुल्तानपुर 

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