वही है बस्ती, वही हैं गलियाँ,
बदल गया है मगर ज़माना
नए परों के नए परिंदे,
नई उड़ानें, नया फ़साना।
चलो भुला दें तमाम वादे,
तमाम कसमें, तमाम यादें
न मैं मुहब्बत, न तुम इबादत,
न याद करना, न याद आना।
करीब आके, नज़र मिलाके,
मुझे चुराके चला गया वो
पता न उसका, ख़बर न अपनी,
भटक रहा है कोई दिवाना।
न सुबह ही अब तो शबनमी है,
न शाम ही अब वो सुरमई है
हवाएँ गुमसुम, फ़िज़ाएं बेदम,
रहा न मौसम वो आशिक़ाना।
दुआ किसी की बनी मुहाफ़िज़,
उसी के साए में हम खड़े हैं
गुज़र चुकी है यहाँ से आँधी,
मगर सलामत है आशियाना।
समीर परिमल
पटना, बिहार
ग्रेट (y)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति।
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