आदरणीय अशोक शर्मा जी के नवगीत पढ़कर लगता है कि गीत की गेयता और नवगीत का कथ्य एक साथ समावेशित करते हुए,लेखन की महारत आपकी विशिष्टता है।लय संपृक्ति के विभिन्न पड़ावों से गुजरते हुए नवगीतात्मक चेतना के कारवाँ में आप जैसे रचनाधर्मी का होना सहज ही आवश्यक था।अन्यथा कुछ न कुछ रिक्त रह जाता।गीत विभिन्न विशेषताओं से परिपूर्ण एक नदी जैसी विधा है,जिसका कलरव सुनकर हृदय में कभी कोमल तो कभी द्रवित करते भाव उपज आते हैं।
"रसात्मकं वाक्यं काव्यं" के इंगिताकार से इतर भी साहित्य की बहुत सी अनुभूतियाँ विद्यमान हैं।इसका सहज आंदोलित स्वरूप अब नवगीतों में आ चुका है।
महाभारत में भीष्म के बहाने से आज की राजनैतिक,पारिवारिक और सामाजिक तीनों परिस्थितियों का अवलोकन किया जा सकता है।
समय परिवर्तित हुआ तो भीष्म की प्रतिज्ञा भी चुभने लगी है हस्तिनापुर से लेकर स्वयं भीष्म तक को---
समय की करवटों पर
व्यथित न हों भीष्म,
यह तो तुम्हारी ही
प्रतिज्ञा रुला रही।
बहुत व्यवस्थित कथ्य।
"चर चरा चर" शीर्षक ही भावों को सम्प्रेषित कर दे रहा है।
"रीत रहे पोखर //उलीच रहे पानी।"
सटीक यथार्थ चित्रण।तथ्यगत आकुंचित श्लिष्टता की परिभाषा उत्तरोत्तर अंकागत हुई है।पुनः एक महाभारत लेकिन अलग ढंग से प्रस्तुत हुआ नवगीत के माध्यम से।जो पहले नवगीत में छूट गया था वह निःस्पृहणीयता के साथ पुनः उक्त हुआ-----
जनता गांधारी
पुछल्ली अंध राजा की,
इतना ही नहीं आगे भी नवगीतकार की कलम नहीं रूकती सत्य बयानी में-----
दुःशासन चुनावी
युधिष्ठिर पलायन में
कौन सही कौन गलत
बुद्धि उहापोह में।
इससे अधिक राजनैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और क्या होगा।
"गुड़ की भेली" सर्वहारावर्ग की संचेतना से पूर्णतः वाकिफ़ है।
शक्कर के/दानों में
मन भर/गीली गुड़ की भेली।
आँखों में/तो नून/भरा है/दिल पर/दाब अधिक है।
देख कुलांचें/भरती हिरणी/गीदड़/बाघ बधिक हैं।
समाज में हिरणी को चौतरफा समस्याएं ही व्याप्त हैं/बाघ भेड़िये तो हर गली में ही खड़े मिल जाते हैं।
"ट्रेन आई लूप में" यह नवगीत व्यवस्थाओं के ट्रैक से हटकर चलने को बेवजह ही इंगित नहीं करता है बल्कि वास्तविक कथ्य की बात है यह----
मेंढकों के दिन/
फिरे हैं कूप में
आजकल
रहने लगे हैं धूप में।
कितना उत्कृष्ट विवेचन छोटे और कम शब्दों में है।
"निर्भीकता से" आधुनिक बाज़ारवादी विज्ञापनी मानसिकता का कटु पहलू भी उजागर करता है---
बोर्नबिटा की
चमक है
बूस्ट होती ज़िन्दगी।
वे हमें
बतला रहे हैं
सब दिमागी गन्दगी।
और नवगीतकार ने तो यहां तक कह दिया कि जो कुछ है उतने में ही सन्तोष करना बेहतर है---
चैन सुख की
चाह को अब
सोचने में क्यों पकें??
"मेरा विलोम" यह नवगीत आज की दूषित और विकृत राजनैतिक, और मानवीय सोच का सटीक अवलोकन करता है।कवि ने यहाँ खुलकर अपनी कलम चलाई है।समाज में अपने चरों ओर रोजमर्रा की ज़िन्दगी में बहुत कुछ उठा पटक दिखाई देती है जिसका वर्णन कथ्य शिल्प की गति में अत्युत्तम हुआ----
ढूंढता हूँ घास मैं
बदबू भरे घुड़साल में।
------
मैं मिलाता
कंकड़ों को
हूँ मसालों दाल में।---बनिए की गिरती सोच का हठात् संवेग।
आज के राजनेताओं की सोच को ताल ठोंककर कवि ने प्रस्तुत कर दिया है---
आज सत्यम्
सुन्दरम्
मैं ढूँढता हूँ खाल में।
और लिखते लिखते कवि पहुँच जाता है वहां जहां पर सारी सीमायें सोच की खत्म हो ही जाती हैं बुद्धि से---
शाम को
अनशन हमारा
टूटता मधुशाल में।
"मुक्तिमार्ग का ठेका"
आओ भक्त
उठाओ चिमटा
बाटी सिंकती कण्डे में।
ये पंक्ति हमारी पूर्ण देशीयता को त्याग देने से क्षुब्ध होकर कवि द्वारा लिखीं गईं हैं।जिन्होंने गाँव को निकटतम जिया है वो इस नवगीत की समस्त वस्तुओं के विषय में जानता होगा अवश्य ही।
दूध दही औ
दलिया सत्तू
बीते कल की बातें हैं।
सच है।लोग सब भूल चुके हैं।
सम्प्रति कहना चाहूँगा कि आदरणीय अशोक जी यथार्थ के सजीव संप्रेषक नवगीतकार हैं।देशी शब्दों की बुनावट के आध्यात्मिक और साहित्यिक पक्षको सभी स्वीकार करते ही हैं।इन शब्दों से कथ्य की भावभँगिमा अनूठी हो उठती है।शिल्प की टूटन न हो इसलिए कुछेक शब्दों को सायास लाना ही पड़ता है।यद्यपि उनके प्रयोग से कोई विशेष कमी नहीं आई।भाव कथ्य का उत्तम मेल होकर सभी नवगीत पूर्णतः पाठक को भाएंगे।
सादर नमन एवं शुभकामनायें।
आपका ही--
अवनीश त्रिपाठी
गरएं,सुलतानपुर,उ प्र
9451554243
इस विशिष्ट टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ,,,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा सर जी , अशोक शर्मा जी के नवगीत वाकई उम्दा होते हैं ।
जवाब देंहटाएं