-----------------:【ग़ज़ल-एक】:-------------------
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नहीं हो तुम तो कुर्बत की तजल्ली मुस्कराती है
तुम्हारी याद किस्मत का सितारा बन के आती है
कहीं से कुछ भी करके घर के चूल्हे को जलाती हैं
मगर बच्चों को माँ खाना खिलाकर ही सुलाती है
कभी सर्दी भरी बरसात का दुख़ खुद उठाती है
मगर बच्चों को माँ इखलास की चादर बिछाती है
नहीं करता कोई भी त्याग जितना करती है इक माँ
लहू छाती का केवल माँ ही बच्चों को पिलाती है
बचाती ही नहीं माँ अपने बच्चों को बुराई से
ब-सद तहजीब के रस्ते पै भी चलना सिखाती है
न करती माँ अगर सेवा तो बच्चे फूल बनते क्या
फ़क़त माँ है जो अपने बच्चे को इन्सां बनाती है
अरुण माँ का बड़ा एहसान है जो अपने बच्चों को
जमीं से आसमाँ के तख्त पर लाकर बिठाती है
---------------:【ग़ज़ल-दो】:------------------
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मायूस हूँ टूटा हुआ अरमान सा क्यों हूँ
इस बज़्म में सबके लिए अनजान सा क्यों हूँ
सब लोग मेरे अपने है फिर कैसी ये नफरत
अब अपने ही घरवालों में मेहमान सा क्यों हूँ
धर्मो का अखाडा है सियासत का ये गढ़ है
मैं देख के हंगामा परीशान सा क्यों हूँ
मजबूरी कोई है जो जुवां बंद किये है
सच बात पे खामोश हूँ अनजान सा क्यों हूँ
इस बस्ती में हम से भी गए गुजरे है इंसा
मैं अपनी ही बर्बादी की पहचान सा क्यों हूँ
मैंने भी ग़ज़ल लोगोँ के जैसी ही पढ़ी है
मैं मीर तक़ी मीर का दीवान सा क्यों हूँ
माना की अरुण दिल मेरा नाजुक है मगर दोस्त
दुश्मन के लिए कहर हूँ तूफ़ान सा क्यों हूँ
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*संक्षिप्त परिचय*
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अरुण कुमार दुबे
जन्म- सागर दाना मध्य प्रदेश
जन्मवर्ष- 1955
शिक्षा- एम एस सी (प्राणी शास्त्र)
सेवा- सेवा निबृत उप पुलिस अधीक्षक मध्य प्रदेश पुलिस
वर्तमान में- सलाहकार जे पी सीमेंट रीवा.
आदरणीय अवनीश जी मुजगे काव्य शिल्पी के ब्लॉग में स्थान देने के लिए अनंत आभार
जवाब देंहटाएंअरुण दुबे
आदरणीय अवनीश जी मुजगे काव्य शिल्पी के ब्लॉग में स्थान देने के लिए अनंत आभार
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