जटा बढ़ाए बंजारा मन
ढूढ़ रहा नित ठौर..!!
बना रहा है आज उजालों पर अँधियारा धाक,
डाँट पिलाता है हाथों को कुम्भकार का चाक,
छूटा जाता है हाथों से
मुँह तक आया कौर..!!
सुख-जीवन चल रहे रात-दिन जैसे रेल पटरियाँ,
दुःख-जीवन इस तरह घुले हैं ज्यों धागे में लड़ियाँ,
जितना ऊब गया जीवन से
उतना जीना और..!!
सब होठों की एक शिकायत, भरा हुआ संत्रास,
किन्तु मूल में कारण ढूढें, है किसको अवकाश,
बस हर मानव कोस रहा है
वर्तमान का दौर..!!
आज गर्त में गिरा पड़ा है यह अपना परिवेश,
मूल्य रखे हैं गिरवी सारे भरा हुआ बस क्लेश,
इठलाते हैं कि अतीत में,
हम सब थे सिरमौर..!!
- आशुतोष कुमार आशू
अद्भुत अप्रतिम गीत भइया,वेदना की कलकलछलछल धार हृदयके उत्तुंग शिखरों से प्रवाहित हो रही है.... ❤
जवाब देंहटाएं🙏🙏❤️ अनुज
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