कागज पढ़-पढ़ जग बौराया,
देख-देख कह गए कबीर।
दोहों को दुहराया फिर भी
जिह्वा हुई न पैनी।
बाहर-बाहर बाँच रहे हम
साखी,सबद,रमैनी।
अपने भीतर झाँकें तब
सोचें क्या- क्या सह गए कबीर।
हम ग्रन्थों के अनुयायी बन
बदलें पल में बाना।
सिखा दिया अनपढ़ फकीर ने
सीखा ज्ञान भुलाना।
ढाई आखर प्रेम पढ़ाकर
जानें क्या गह गए कबीर।
भक्तिकाल था लेकिन
काशी जनती रही जहर को।
अमृत वहीं लुटाया, साधो!
श्रेय दिया मगहर को।
ज्यों की त्यों धर गए चदरिया
तो जिंदा रह गए कबीर।
✍️मनीष कुमार झा
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