कृति : दिन कटे हैं धूप चुनते
नवगीतकार : अवनीश त्रिपाठी
प्रकाशक : बेस्ट बुक बडीज नयी दिल्ली
पृष्ठ : 128, मूल्य : 200/-
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मेरे एक नवगीत की दो प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं, "एसी में बैठ-बैठ के लिखते हो मीत,गीत! मिट्टी की गंध चाहते औ' गाँव के संगीत! "
इसके उलट जो गीतकार /नवगीतकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं और अपनी जड़ से आज तक जुड़े हुए हैं, सही मायने में उनके ही नवगीतों में वर्त्तमान बदलते समाज की खामियों और खूबियों का दर्शन हो सकता है ।सायास साहित्य रचनेवालों की रचनाओं में वह धार नहीं आ सकती, जो धार प्रातिभ और अनुभव-संपन्न रचनाकारों की रचनाओं में संभव है ।ऐसी रचनाओं(गजलें भी रचनाएँ ही हैं) के संदर्भ में ही दुष्यंत ने कहा था -
जिसे मैं ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो गजल आपको सुनाता हूँ
अवनीश त्रिपाठी ऐसे ही प्रातिभ और अनुभव-संपन्न नवगीतकार हैं ।इनके 48 नवगीतों का संग्रह 'दिन कटे हैं धूप चुनते ' इसका प्रमाण है ।जैसा कि पुस्तक के नाम से स्पष्ट हो जाता है कि अनुभव की तीखी धूप में पककर ही ये नवगीत अवनीश त्रिपाठी के मनोजगत में आये और फिर उनकी लेखनी ने उन्हें साकार किया ।
आज समाज के हर क्षेत्र में; चाहे वह सामाजिक, राजनीतिक या साहित्यिक हो; में तेजी से गिरावट आयी है ।सभी जगह विसंगतियों का बोलबाला है ।नैतिकता तो भूतकाल के विचार मात्र रह गये हैं ।भ्रष्टाचार को समाज द्वारा लगभग मान्यता मिल चुकी है ।ऐसे सारे तथ्य और कथ्य संवेदना के धरातल पर इस पुस्तक के नवगीतों में उपस्थित हो पाये हैं ।स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ के लिए सोचनेवालों का युग समाप्त हो चुका है । उल्टे ऐसे लोगों को उपेक्षा और अवहेलना का दंश झेलना पड़ता है ।पुस्तक के शीर्षक गीत में ही अवनीश त्रिपाठी ने अपने इस तरह के अनुभव को वाणी दी है -
"छाँव के भी
पाँव में अब
अनगिनत छाले पड़े,
धुंध-कुहरे
धूप को फिर
राह में घेरे खड़े,"
और,
" दु:ख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते ।
रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते ।"
आज के सामाज पर भौतिकता का ऐसा नशा चढ़ा है कि सारे रिश्ते-नाते मृतप्राय -से हो गये हैं ।बेशक, वे साथ-साथ रहते हैं किन्तु उनमें एक-दूसरे के लिए स्पंदन नहीं, संवेदना नहीं । वे आपस में बात नहीं करते ।'भूख चली पीहर' शीर्षक नवगीत की पंक्तियाँ देखिये -
"द्वार-देहरी
सुबह -साँझ सब
लगते हैं रूठे,
दिन का थोड़ा दर्द समझती
ऐसी रात नहीं ।"
और,
"दीवारों के कान हो गये
अवचेतन बहरे,
बात करें किससे हम मिलकर
दर्द हुए गहरे,"
आज प्रसार-माध्यमों का बोलबाला है ।विश्व ग्लोबल हो चला है ।और हम वाचाल और अनर्गल प्रलापी हो चले हैं ।संयत भाषा का दामन छोड़ हमने उच्छृंखल भाषा का प्रयोग करना सीख लिया है ।एक -दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचाने में ही हम अपनी सारी काबिलियत झोंक दे रहे हैं ।बड़े-छोटे की मर्यादा तार-तार हो चुकी है ।अवनीश ने अपने नवगीत 'ठहरी शब्द नदी ' में इसका बखूबी बयान किया है कि -
"अपशब्दों की भीड़ बढ़ी है
आज विशेषण के आँगन में,
सर्वनाम रावण हो बैठा
संज्ञा शिष्ट नहीं है मन में।
संवादों की
अर्थी लेकर आयी नयी सदी।"
ऐसे युग में हम आ गये हैं कि हमें अब अपने सपने भी छलने लगे, और तो छल ही रहे थे ।ऐसे में हमारी नींद उचट चुकी है।हम करवटें बदल रहे हैं, क्योंकि हमें अपने सपनों पर भी विश्वास नहीं ।आखिर जीने के लिए तो कम-से-कम सपनों का, आशाओं का तो संबल चाहिए ही चाहिए -
"छल रहे कुछ स्वप्न जिसको
नींद की चादर तले,
सो नहीं पाया मुँगेरी
जागता ही रह गया ।"
मुंगेरी लाल के हसीन सपने टूट चुके हैं ।सारी उम्मीदें लँगड़ी हो चुकी हैं ।हाँ, किन्तु झूठे उम्मीदों के बीज आज भी बोये जा रहे हैं ।सत्य के विजय की नाटक किये जा रहे हैं ,वे सफल भी हो रहे हैं ।तालियाँ बज रही हैं ।गरीब छले जा रहे हैं ।अमीरों के घर में जश्न मनाये जा रहे हैं और उसे ही देख-देखकर आम आदमी भी भ्रम में पड़ा है कि हम भी आगे बढ़ रहे हैं, हमारे भी सपने साकार हो रहे हैं --
"अलगनी पर टाँगकर उम्मीद सारी
देहरी पर फिर समय लँगड़ा खड़ा
सिर्फ अभिनय ही रहा है वर्षभर,
नाटकों का भी
सफल मंचन हुआ,
कथ्य की
संवाद से दूरी बढ़ी
दर्शकों की दृष्टि का
मंथन हुआ ।
बज रहे करताल ऊँची कोठियों में
न्याय पर अन्याय का पर्दा पड़ा ।"
' तमसो मा ज्योतिर्मय ' वाली सूक्ति को हमने ताक पर रख दी है और उस तोते की तरह जो 'बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, लोभ से उसमें फँसना नहीं' कहते-
कहते उसमें फँसता जा रहा वाली बात हो रही है ।हम सायास तम(ठंढक) की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन उजाले की, ऊष्मा की बात कर रहे हैं ।कवि अविनीश ने इस परिदृश्य पर बड़ा ही सटीक उल्लेख किया है , अपने नवगीत 'तृप्ति का हठ हाशिये पर' में किया है कि -
"धुंध की चादर लपेटे धूप अलसाई हुई
बात लेकिन हो रही है ताप के विस्तार की ।"
और, नवगीत 'भोजपत्रों के गये दिन ' में भी नवगीतकार ने आज के समाजिक परिदृश्य को बड़ी ही बारीकी से चित्रित किया है -
"और चिंतन का चितेरा
बन गया जब से अँधेरा
फुनगियों पर शाम को बस
रौशनी आती हैंं पल-छिन ।"
क्योंकि, चिंतन-मनन करनेवाली सबसे बड़ी संस्था संसद, विधानसभायें ही जब ऐसे चिंतकों से भर गयी है, तो अन्य संस्थाओं का क्या हाल होगा?
"सभासदों के अपनेपन में
निष्ठुर स्वार्थ झलकता,
चौखट के समीप में कोई
अग्निबीज है उगता ।
परिचयपत्रों पर फोटो के
ऊपर फोटो रखकर,
जनता की आँखों से काॅपी
मंत्री रहा निकाल।"
(विक्रम है बेहाल)
कवि की दृष्टि केवल सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों तक ही नहीं गयी, बल्कि धार्मिक उन्माद और विसंगति की ओर भी गयी है ।इसी नवगीत में वह आगे इसका पर्दाफाश करता है -
"समय धार्मिक चिन्तनवाला
कीचड़ रहा उछाल।"
(विक्रम है बेहाल)
प्रस्तुत नवगीत संग्रह आज के युग का आईना है ।आज के समाज में जो-जो घट रहा है, उसकी तस्वीरें यहाँ रखी गयी हैं ।अवनीश त्रिपाठी युग के चितेरे हैं ।उन्होंने अपने नवगीत 'खिड़की छली गयी 'में आपसी विश्वास की हिलती चूलों, स्वार्थ के पसरते पाँवों का अद्भुत चित्र उकेरा है-
" नहीं तनिक अफसोस तवे को
रोटी भले जली ।
× × ×
"दरवाजों ने हिस्से बाँटे
खिड़की गयी छली ।"
आज के तथाकथित विकासशील
भारतीय समाज की एक विडंबना यह है कि घर के युवकों को घर के आसपास रोजगार नहीं मिलते ।इसके लिए उन्हें सुदूर शहरों में जाना पड़ता है ।इससे घर में तो पैसे आ रहे हैं, समृद्धि बढ़ती जा रही है, किन्तु बुजुर्ग अकेले होते जा रहे हैं ।वे घर में बीमार हैं, उनकी तीमारदारी करनेवाला कोई उसके पास नहीं । इतना ही नहीं बल्कि बुजुर्ग की उपस्थिति अब नागवार गुजर रही है, नयी पीढ़ी को । इसका प्रतीक के जरिये अवनीश त्रिपाठी ने अद्भुत् चित्रण किया है -
"सही नहीं जाती है घर को
आँगन की बूढ़ी खाँसी ।"
× × ×
"पड़े हुए घर के कोने में
टूटे फूटे बर्तन जैसे,
'अम्मा बाबू'
अपनी हालत किससे बोलें
किसे बतायें!"
लेकिन,अवनीश विडंबनाओं का अरण्य-रोदन या विधवा -विलाप कर हताश नहीं हो जाते बल्कि उन्हें अब भी बदलाव की आशा है और वे उस दिन की राह देख रहे हैं कि कब इन विडंबनाओं, अनाचारों के खिलाफ लोग उठ खड़े होंगे -
"कहकहों के क्रूर चेहरे
क्रोध में सारी दिशायें,
रक्तरंजित हो चुकी हैं
विश्ववंदित सभ्यतायें।
शीतयुद्धों में झुलसती
जा रही संवेदनायें
कब उठेगा शोर,किस दिन?"
इन सबसे व्यथित कवि-मन नयी पीढ़ी से आह्वान करते नहीं चुकता कि वह पूर्वजों से सीख ले, उस जैसा नैतिक, परोपकारी, प्रजारंजक और कुहरे को छाँटकर प्रकाश की ओर अग्रसर हो ।संग्रह का अंतिम नवगीत पढ़ें -
" मुस्कानों के कुमकुम मल दें
रूखे-सूखे चेहरों पर,
दुविधाओं के जंगल काटें
संशय की तस्वीरों पर
कुहरा छाँटें, धूप उगायें!
अवनीश त्रिपाठी के लिए कविता करना को शौक नहीं है ।यह उनकी आवश्यकता है, अपनी जीवनसंगिनी की तरह । जिस तरह एक अच्छी प्रेयसी या पत्नी एक पुरुष के जीवन में प्रेम का रस घोल उसे प्रेमिल बना देती है, वैसे ही कविता ने कवि को गीत जैसा सरस और संवेदनशील बना दिया, तभी तो दुनिया भर की पीड़ाओं को अपने गीतों /नवगीतों में पिरो सका है -
"हृदय वियोग ने जीवन में
दावानल का दौर जिया है
भावों के निष्ठुर नियोग का
चीख-चीख कर घूँट पिया है ।
पीड़ाओं की झोली लेकर
तरल सुखों का स्वाद चखाया ।
हे कविता!
जीवंत संगिनी
तुमने मुझको गीत बनाया।"
अवनीश त्रिपाठी आज के आवश्यक समकालीन गीतकार हैं ।
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समीक्षक:-
हरिनारायण सिंह हरि
जौनापुर, मोहीउद्दीन नगर
समस्तीपुर (बिहार)-848501
मोबाइल -9771984355
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