पिघलते समय और घुलते लोक जीवन के आत्मिक नवगीत
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नवगीत आज किसी परिचय का आश्रय नहीं ढ़ूंढता क्योंकि अपनी बात मजबूती से रखने की कला में माहिर एक सशक्त विधा के रूप में स्थापित हो गया है। संसार के नित नये बदलते रंग ढंग में हमारी समस्याएं, चुनौतियां बदली हैं।हम यदि आज पांव पैदल चलने की विवशता से मुक्त हो गए है़ं तो रोज तेज गति से चलते वाहनों की दुर्घटनाओं का दंश झेलने को भी विवश हैं,हमने यदि दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लिया है तो इस घटती दूरी के साथ दिल से दिल की दूरियां बढ़ा ली है।हम अपने सुख आराम की चिंता में इतने आत्म केन्द्रित हो गए हैं कि दूसरे के दुख सुख का आभास और अहसास ही कहीं खो गया है।ऐसे में कवियों के कहने का तरीका और सलीका भी बदल गया है।ऐसे भी सपाट बयानी साहित्य को कभी स्वीकार नहीं रहा , प्रस्तुत में अप्रस्तुत की दमदार उपस्थिति के चमत्कार से उत्पन्न रस हमें सदा ही आनंदित करता रहा है और यह प्रयोग ही कवि-छवि गढ़ता है पाठकों के मन मस्तिष्क में। रचना को पढ़ते हुए भाव-अर्थ का खुलासा ही पाठक को वाह की स्थिति में लाता है।
नवगीत को अपनी सुविधानुसार व्याख्यायित, स्थापित करने के अघोषित प्रतिस्पर्द्धा के साक्षी इस काल में समीक्षकों के महिमा मंडन,खंडन,प्रति-मंडन से अलग हटकर मेरे सामने है अवनीश त्रिपाठी जी की पुस्तक 'दिन कटे हैं धूप चुनते' जिसमें इनके कुल अड़तालीस नवगीत संकलित हैं।यह एक ऐसा संकलन है जिसके बारे में यह कहना कि इसे एक सांस में पढ़ लिया गीत पाठ से प्राप्त आनंद से नाइंसाफी होंगी,वास्तव में इनका हर गीत पाठक को विवश करता है कि पाठोपरांत आंखें बंद कर उस पढ़े को गुने,सुने उन शब्दों को,भावों को, फिर आगे बढ़ें।कम से कम मेरा तो यही अनुभव रहा,हर गीत मुझे बढ़ने से,पढ़ने से, रोकता रहा,छानता रहा, इसलिए इस पुस्तक के बारे में इतना तो कह ही दूँ कि इनके गीत-सुधा-सर में डूबने का आनंद अनिर्वच है।
हम तो समय को जीते हैं। हमारी सफलता असफलता समय और उसकी मांगों के साथ कदमताल करती है ऐसे में हम खुद के लिए कम और जरूरतों के लिए अधिक जीते हैं।यह विवशता किसी एक की नहीं कमोवेश सबकी है,ऐसे में जो आदमी बनकर जीना चाहता है उसके जीवन की कठिनाइयां और बढ़कर चुनौती देती है और ऐसे में आरंभ होता है एक संघर्ष--दृश्य का अदृश्य के साथ,सोच का साकार के साथ,इच्छा का परेच्छा के साथ, भावना का भूख के साथ और जैसा कि हम सब जानते हैं कि ऐसे संघर्षों में भावनाएं ही आहत होती हैं, लहूलुहान होती है,हारती है। अवनीश जी के संग्रह के गीतों में हारी भावना के उठने,ठगने,चलने,भागने की छटपटाहट हर जगह देख सकते हैं और अपनी अभिव्यक्ति में पूरी सफलता इन्हें कार्य की श्रम प्रस्तुति से मिली है, इसीलिए तो इन्होंने नवगीत को सार्थक किया है।
गीत हाशिये पर है, गीतों के दिन लदे,गीत भावना के भार से इतना दब जाता है कि विचार पीछे छूट जाते हैं,गीत अपनी वैयक्तिकता के चलते लोक रंजक नहीं हो सकता जैसे तर्कों के सहारे हम वस्तुत: गीत की सर्वव्यापकता और प्रभावोत्पादकता को ही नकारने की कोशिश करते हैं वास्तव में ऐसा यदि कुछ हुआ होता तो गीत लिखे पढ़े गाये ही नहीं जाते।सात सुरों से सजे जीवन के हर प्रसंग-उमंग के लिए गाए जाने वाले गीतों की पारम्परिकता ने अपना रूप जरूर बदला है लेकिन अपनी पहचान नहीं ,बल्कि कहना तो यह चाहिए कि गीत ने वर्ण्य बदला ,शैली बदली,सलीका बदला ।ऐसे में अहं भाववश इसकी रुग्णता की घोषणा मनवाने वालों के पेटदर्द का कारण तो समझा ही जा सकता है।नव्यता के साथ हमारे आपके बीच गाते पढ़े जा रहे गीतों की सद्य स्नात् पवित्र छवि का अवलोकन आस्वादन की इच्छा रखने वालों को कम से कम एक बार अवनीश जी के गीत अवश्य पढ़ने चाहिए।
मुझ पर अतिरंजन होने के किसी भी संभावित प्रश्न का उत्तर भी पूर्व ही इस प्रश्न से दे दूं कि क्यो न होऊं?भावों का सारस्वत प्रवाह जब मन भावोंं को झकझोरने लगे तो क्यों न रीझा जाए ? अपनी तरंग से गीत आनंदित ही नहीं करते, कसौटी पर खरे भी उतरते हैं। गीत के लिए हृदय पहले आता है और विचार बाद में दूसरे शब्दों में विचार भावोद्रेक के पीछे चलता है,हृदय स्पष्टत:सामने होता है बुद्धि नेपथ्य में जिसे अवनीश जी के गीतों को सामने रखकर भली भांति समझ सकते हैं।।
हृदय निष्कलुष होता है, पवित्र होता है,प्रेम से भरा होता है,स्वच्छ होता है,ऐसे में मानवीय संवेदनाओं के प्रतिकूल परिस्थितियां अवसाद देती है, यही अवसाद कलात्मक रूप में इनके पठित संग्रह के गीतों में देखने को मिलता है।मुझे प्राय:हर जगह ऐसा प्रतीत हुआ कि गीतकार मर्म को बेध रहा है लेकिन जानने लायक यह भी तो है कि ऐसी मर्मबेधी बातों के लिए बिधना तो पड़ा होगा,यह चाहे-अनचाहे परिवेश में छटपटाती विवशता ही है जो कवि "समझौते कर रही समस्या चीख चीख कर लिख देना" कहता है।
गीतों में आत्मा ढलती है तो समय पिघलता है और लोक जीवन घुलता है।हम आज की विषम और विकट चुनौतियों को झेलते हुए भी यदि किसी तरह स्वयं को संभाल या बचा पा रहे हैं तो इसमें सबसे बड़ा योगदान जीवन के उस राग तत्व को ही जाता है जो हमें हमारे हर्ष विषाद,सुख दुख को अभिव्यक्त करने की क्षमता देता है तो संघर्ष की ऊर्जा भी।भले ही युग के भारी भरकम मशीनों को देखकर पलती बढ़ती पीढ़ी को आज यह बात अटपटी लगे लेकिन दस बीस मजदूरों को मोटी रस्सी के सहारे बड़ी शिला को खिसकाते समय राग में जिसने 'जोर लगा के__हैं सा' और जरा सा __हैं सा' गा गा कर काम करते देखा और सुना है उन्हें यह समझने में कठिनाई नहीं होगी। इनके गीतों में समय को जीने का तुलनपत्र भी देखने को मिलता है।
गीत नवगीत के विमर्श पर चल रहे विरोधी सम्पोषी वक्तव्यों के बीच अपनी पहचान के प्रश्नों पर विधा की
विशेषताओं का संकेत देते जब ये कहते हैं__
नव प्रयोगों की धरा पर
छटपटाता हूं निरंतर
गीत हूं, नवगीत
या जनगीत हूं
क्या हूं बता दो ?
तो वास्तव में साहित्य जगत में चल रही मठ-परिपाटी के बीच उठाया गया एक समीचीन प्रदर्शन ही उभरता है जहां परंपरा को नकार कर खुद को आधुनिक कमाने के मोह की विज्ञ चालें चली जा रही हैं वहां तुलसी बाबा तो पंडिताई करते,चंदन घिसते ,कबीर के राम रहीम यही प्रश्न पूछते रह जाएंगे कि ज्ञानी कहां गये,नीर-क्षीर का विवेक कहां गया लेकिन परिस्थिति तो बदलती रहेगी,बद से बदतर होती रहेगी,जब "गले फाड़ना/फूहड़ बातें/और बुराई करना/इन सब रोगों से पीड़ित हैं/नहीं दूसरा सानी" सामने दिखे तो कवि की निर्मल विकलता ध्यान खींच ही लेती है।
हमारा जीवन समष्टि के साथ चलता है।हम चाहकर भी ऐकान्तिक नहीं हो सकते, हमारी विवशता है कि हमें सबके साथ रहना है। लेकिन ऐसी स्थिति में रहना टिन हो जाता है जब उजली सफेद झकझकाती रेत की अस्मिता का सौदा वह मरुस्थल ही करें जो स्वामी हैं और जिनकी पहचान भी इन्हीं क्षेत्रों की पवित्र उपस्थिति में है,जब ज्ञान कहीं कोने में चुपचाप खड़ा रहने,छुपे रहने के निर्देश पर रख दिया जाये और हर द्वार पर ठूंठ,शुष्क,नीरस,कठोर सम्बोधन खड़ा हो,प्रदशर्न की मौलिकता छिपाकर उसे अनुत्तरित छोड़ दिया जाये,शब्द की अर्थी उठाकर खुद अर्थ चल दे,प्रयास नदी के घाट पर (धार तक नहीं) उलझकर रह जाये यानी बुझ न पाए और नींद न समझे टूटी खाट वाली हकीक़त चरितार्थ करते विवश होकर सो जाये तो कल्पनाएं कहां जायें? प्रश्न है कि इन विपरीत परिस्थितियों में क्या किया जाये? जब पालक ही संहारक की भूमिका में हो,कहार जब डोली लूटने को तैयार हो जाते ? यहां कवि कर्म जागता है और कह देता है कि सिसक कर कैद होने की जगह "मृत्यु का अनुवाद लिख दो चुप्पियों"। मृत्यु का अनुवादकर्ता हो सकता है ? चाहे जिस भाषा में अनूदित हो, मृत्यु का अर्थ तो मृत्यु ही होगा न! प्रत्यक्षत: अवनीश जी ने "सिसकियों ने तोड़ दी है व्यंजनाएं" कहकर क्रांति का बीज ही तो बोया है।
इस घिसती पिटती ज़िन्दगी की विवशता से परित्राण के लिए आगे बढ़कर कुछ करने की परिकल्पना करते इनका विषय भले ही विसंगतियों के इर्द गिर्द घूमता है लेकिन रस , श्रृंगार की भी जरूरत जीवन को है। इसीलिए तो वह चुपके से फागुन की पगडंडी पर चढ़कर आ रहा है, प्रकृति का ऐसा सामाजीकरण करते हुए कवि कह बैठता है मौसम के बदले मिजाज को देखकर आह्लादित हो,क्यो ? क्योंकि इन्होंने महसूसा है "झूमती डाली लता की महमहाई रात भर"। फागुन आनेवाला है।हवा धूप की गुनगुनाती गर्मी लेकर सरसराकर बह रही है,मौसम जैसे ही दिन भर चलते चलते थकने को होता है शाम की नशीली हवा अंधेरों पर एक अजीब सी प्यास जगा जाती है,दिशाएं महमहा उठती है और ऐसे में-"प्रीति अवगुंठन उठाकर/खिलखिलाई रात भर" प्रेम को प्रस्तुत कवि का यह रसिक मन पाठकों को भला क्यों न मोहे!
समाज का ताना-बाना संबंधों पर है जो मन को मन से जोड़कर आदमी को आदमी बनाकर आदमी के सामने लाता है।परापर संबंधों का यह ढांचा जो आदमियत की पहचान है,जो हमारी भारतीयता की पहचान है लेकिन स्केल विश्व बाजार के काल्पनिक उत्साह में हम विश्व परिवार,बसुधैव कुटुम्बकम् को नकारते जा रहे हैं। अर्थतंत्र के कठोर स्वार्थी बंधनों में हम कुछ इस तरह जकड़ गये हैं कि हमारा भाव तंत्र बिल्कुल शिथिल हो गया है भावना की शिराओं में बहता प्रेम द्रव कुछ इस तरह अवरुद्ध हो गया है कि सारी शिराएं सूखती जा रही हैं जिसके कारण विकृतियां आई हैं,कहीं सूखी,कहीं सूजी और कष्टदाई।कछुए के खोल के अंदर घुसे छिपे मनुष्यों पर घटनाओं, दुर्घटनाओं का,हर्ष-विषाद का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। कामना की नुकीली सूई से अर्थ लेकर जारी बेजार तार तार फटी देह पर पेबंद टांकते अवनीश जी इन स्वप्नों को, छली-बली-निर्दयी सपनों को समिधा बनाकर अभिशप्त नैतिकता के घर वैदिक मंत्रों से हवन का आह्वान करते प्रतीकों विम्बों के माध्यम से वर्तमान के शापित अनुरोध (अनुरोध शापित होकर खारिज हो गया, अनुरोध न रहा) को निष्पादन की जड़ होती प्रवृत्ति पर एक बार फिर आज के मतिभ्रष्ट वुद्धिवादियों का आह्वान करते हुए कह उठते हैं--"संस्कृति सूक्ति/विवेचन दर्शन/सूत्र न्याय संप्रेषण/नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था/ बौद्धिक यजन करें" क्योंकि हमें यह भी ज्ञात है कि व्याकरण जो भाषाई शुद्धि का आयोजन करता है जब तक नैसर्गिक नहीं होगा तब तक उसके द्वारा अनुशासित यह लौकिक व्यवहार इसी तरह अराजक रहेगा इसलिए निर्यात सूत्र की डोर पकड़कर संस्कृति की सूक्तियों का विवेचन, दर्शन के बाद ही, नैसर्गिक व्याकरण व्यवस्था की देख रेख में बौद्धिक यजन की जरूरत है और जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा तब तक स्थिति ऐसी ही प्रतिकूल रहेगी और मुंगेरीलाल सो नहीं पाएगा,हसीन सपने देखते बार बार नींद की चादर ओढ़े विषपान के जलते दर्द से छटपटाता पड़ा रहेगा। प्रतिकूल जगत व्यवहार पर कवि की छटपटाहट का अंदाजा लगाया जा सकता है, महसूसा जा सकता है।कवि के सुकोमल हृदय ने जीवन में दावानल का दौर जिया,भावों को,निष्ठुर नियोग का घूंट चीख चीखकर विवशता में अनिच्छा से पिया,जिसके जीवन का नीरव वसंत,कलरव,आह्लाद, उन्मुक्तता की चाह में मरूस्थल हो गया,जिसे दुनिया की भीड़ ने किनारा कर दिया उसे कविता की जीवंत जीवनी ने रससिक्त,लय ताल युक्त,अर्थ फल से लदा गीत बनाया कहकर गीत लेखन की प्रक्रिया को उचित आयाम दिया है। जिसके बारे में बार बार कहा जाता है कि लेखन के पहले लिखने वाला रोता है। बिना भोगे मन प्राण को अनुप्राणित करने वाला गीत का बनना कठिन है और जब एक गीतकार बुनियादी दर्दों को सिद्दत से जीता है तो यही कहता है__
हे कविता! जीवंत जीवनी
तुमने मुझको गीत बनाया।
संग्रह के सारे गीत एक से बढ़कर एक अर्थ गंभीर,धीर-पीर से भरे पूरे हैं,हर गीत की चर्चा यूँ तो विस्तृत रूप से होनी चाहिए।कभी अवसर मिला तो अपनी क्षमतानुसार अवश्य करना चाहूंगा। मगर यहां इतनी बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपनी भाषाई बुनावट और विमर्शों के आयोजन से अवनीश जी ने गीत के संक्षिप्त और सार्थक होने के गुणों को भी गंभीरता से निभाया है।अपने जीवन को जीते,भोगते औरों के जीवन का दुख दर्द चुरा लेने की कला में अवनीश जी ने अपने गीतों को वह ऊंचाई दी है जिस तक पहुंचने की कोशिश में गीतकार बना जा सकता है।
विभिन्न विषयों पर अपनी कलम चलाते इन्होंने जीवन के मर्म को हमारे सामने प्रतीकों के सहारे सफलता पूर्वक रखा है।इनके देखने और सोचने का ढंग इनके शीर्षक गीत को पढ़कर हम आसानी से समझ सकते हैं जिसमें ये जनवादी वुद्धिजीवी से प्रतीत होते हैं।जरा गौर करें,हम अपनी विपन्नता को कैसे जीते या पार लगाते हैं। दिन भर अहर्निश श्रम करते हैं और कठोर श्रम का पुरस्कार जब अभावों को भर नहीं पाता तो थके शरीर की गीली आंखों को नींद के उनींदे सपनों के हवाले कर देते हैं।अगर हमारे जीवन में ये सपने न होते तो शायद हम जीने भर को भी जी नहीं पाते। यही सच है । भारतीय गरीबों की गरीबी सपनों के सहारे ही कटती है जहां निपट वेदना और थोथे मुखौटे चस्पा दिए जाते हैं।एक तो मुखौटा वह भी थोथा, खाली, दंतहीन।ऐसी स्थिति में दुख रोज ब रोज गाढ़ा होता जा रहा है, लेकिन ,सुखों में घुन लग गया है,कैसे जिया जाये।आम आदमी का दर्द ही तो है जो--
रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते।
कैसी विकट परिस्थिति है।जब सहायता के लिए उठता हाथ असहाय हो जाता है और सुविधा की आती खेप दलालों,चाटुकारों,बटमारो द्वारा लूट ली जाती है "धुंध कुहरे/धूप को फिर/राह में घेरे खड़े" सूरज तो चला अपनी किरणों, उजालों के साथ पर धुंध छंटने का नाम ही नहीं ले रही।आम आदमी की वस्तुस्थिति का इससे सहज चित्रण और क्या हो सकता है भला !
गीत के गुणों की चर्चा करते हुए इसकी रागात्मक अन्विति को विशेष रूप से चिन्हित किया जाना चाहिए।इनके गीतों को पढ़ते हुए इसके गठन और कहने का स्पष्ट अंदाज लगता है।पूर्वापर जुड़ाव अप्रतिम है।संग्रह के गीतों में भावना का प्रवाह निर्वाध पाठकों में प्रवेश करता है,जो नि:शब्द कर देता है।
इन गीतों ने नवगीत को सिर्फ सार्थक ही नहीं किया बल्कि अपनी विशिष्ट शैली से मानक भी गढ़े। शैली की विशिष्टता इनके व्यक्तित्व को आभासित भी करती है।
भाषा की दृष्टि से यद्यपि कथ्य के संप्रेषण के लिए शब्द चयन पर विशेष सतर्कता बरती गई है तथापि पाठकों को कोश के सम्पर्क में रहने की अनिवार्यता ने एवं छायावादी लाक्षणिकता ने पाठकीय आस्वाद को थोड़ा धीमा तो अवश्य किया है जिसे राहुल शिवाय ने इन शब्दों में कहा है "तत्सम शब्दों का प्रयोग देखते ही नवगीतों को छायावादी गीतों की संज्ञा दी जाने लगी है।"(पृष्ठ 26) लेकिन इनके गीतों को मैं लिखा हुए से अधिक जिये हुए गीत ही मानना चाहता हूं और मधुकर अष्ठाना जी के शब्दों में कहना चाहता हूं कि "अवनीश जी के गीत भविष्य की आहटों से अलंकृत हैं।"
समीक्षक- अनिल कुमार झा
जिला-देवधर,झारखण्ड
7488358521
पुस्तक- दिन कटे हैं धूप चुनते
विधा-नवगीत
कवि-अवनीश त्रिपाठी
प्रकाशन- बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली
पृष्ठ-128 हार्डबाउंड
मूल्य-200
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