【ग़ज़ल】
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कौन सी मुश्किल है साहब आदमी के सामने ।
अब कोई पत्थर नहीं है इस नदी के सामने ।।
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हौसलों से मात खाकर रुक गया है वक़्त भी ;
मौत भी बेबस खड़ी है ज़िन्दगी के सामने ।
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रौशनी से बेख़बर गुमनाम इक इन्सान है ;
झुक गया था जो कभी ख़ुद तीरगी के सामने ।
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खुशनुमा अहसास ओढ़े दर्द पर हँसता हुआ ;
एक लम्हा ही बहुत है अब सदी के सामने ।
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ग़म को खुशियों की तरह जीने का देखा जब हुनर,
नाखुदा भी हँस पड़ा ऐसी ख़ुशी के सामने ।
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चाँद भी फीका पड़ा औ गुल भी' मुरझाने लगे ;
सब हुए कुर्बान तेरी सादगी के सामने ।
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वक़्ते-रुख़्सत बारहा मुड़ मुड़ के तेरा देखना ;
रो पड़े पत्थर भी' आँखों की नमी के सामने ।
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इश्क के इक जाम ने मदहोश इतना कर दिया ;
कुछ नहीं महफ़िल का जादू बेखुदी के सामने ।
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आँख दिखलाने लगे हैं खार भी अब शाख को ;
और मुश्किल आ पड़ी है हर कली के सामने ।
-------राहुल द्विवेदी 'स्मित'
अवनीश त्रिपाठी जी को हृदय तल से आभार मेरी ग़ज़ल को स्थान देने हेतु
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