बुधवार, 2 मार्च 2016

डॉ गंगाप्रसाद गुणशेखर-'धीरज श्रीवास्तव प्रेम और संवेदनाओं के गीतकार'

अपनों से पराजित मन वाले  मीत के गीत
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          एक दार्शनिक के लिए संसार क्षणभंगुर हो सकता है।वीतरागी के लिए निरर्थक हो सकता है। लेकिन एक अभिनेता के लिए  संसार एक रंग रँगीला  रंगमंच है,जिस पर वह अपने जीवनानुभवों  को कलात्मकता के साथ सबसे साझा करता है।संगीतज्ञ के लिए इस संसार के झरनों और नदियों  के कल-कल छल-छल तक मे एक सुरीला राग समाया हुआ रहता है।खग कुल के कुल-कुल में एक मोहक नाद उसे सुनाई पड़ता है। यही संसार योद्धा के लिए युद्ध क्षेत्र है तो प्रेमी के लिए वासंती पुष्पबाण चढ़ाए मदन- शिकारी का 'नाद रीझ तन देत मृग ' वाला  उन्मादक वसंत राग जिसमें  वह एक कुशल योद्धा की तरह जीतने के लिए नहीं हारने के लिए उतरता है। शिकार करने के लिए नहीं, शिकार होने के लिए प्रत्यक्ष होता है-

"इन नयनोँ के युद्ध क्षेत्र मेँ
तुमसे मैँ हारा कैसे!
जीवन का सर्वस्व तुम्हीँ पर
मैँने यूँ वारा कैसे!
आज पराजय लिख दूँ अपनी
और तुम्हारी जीत लिखूँ!" 

       दृश्य भले एक हो पर  दृष्टि कभी एक ही नहीं होती। एक ही दृश्य को कई-कई रूपों में चित्रित किए जाने के पीछे यही दृष्टि की भिन्नता होती है। उसे देखने वालों की  दृष्टि अपनी-अपनी होती है। अतः दृश्य एक होकर भी हमेशा और हर एक के लिए एक ही नहीं रहता।इसी दृष्टि भेद के चलते प्रकृति के नाना रंग-रूप अपनी सम्मोहक छटाओं के साथ ललित कलाओं के कैनवास पर बिखरे मिलते हैं। चित्रकला के बाद गीत -संगीत को प्रकृति ने आलंबन और उद्दीपन दोनों  प्रकारों से ऐसे आलिंगन बद्ध किया है कि वह ऊष्मा सामवेद से लेकर अब भी नहीं छीजी है-

"प्राण कहाँ पर बसते मेरे
जग कैसे ये चलता है!
किसका रंग खिला फूलोँ पर
कौन मधुप बन छलता है!
एक एक कर सब लिख डालूँ
अंतर का संगीत लिखूँ!"

            प्रेम शाश्वत है। जब उसे देशकाल में नहीं बांधा जा सकता तो भला उसके प्राचीन उपमानों  को यह कर त्याग देना कहाँ तक उचित है  कि ये मैले हो गए हैं।इसीलिए गीतकार धीरज श्रीवास्तव के गीत जायसी से लेकर रीतिकालीन कवियों के प्राकृतिक उद्दीपन तक को अपनाने में गुरेज नहीं करते।इनका चाँद भी विरहाग्नि को धधकाकर जलाता है-

"शरद चाँदनी क्योँ तपती है
क्योँ बदली ये रीत लिखूँ!"

       आज भी जब कवि-प्रिया पद्मावती की तरह अपने घने काले केश खोलती  है तो उसकी नागिन-सी लटकती लटों के खुलते ही घने अंधेरे के साथ बदली भी घिर आती है-

"लिख दूँ हवा महकती क्योँ है?
क्योँ सागर लहराता है!
जब खुलते हैँ केश तुम्हारे
क्योँ तम ये गहराता है!"

        'मेरे गाँव  की चिनमुनकी' सूर की तरह इस कवि के मन  की भी "लरिकाई कौ  प्रेम कहौ अलि  कैसे छूटै" एक ईमानदार  आत्मस्वीकृति है। यादों में पायल के 'छनकने'और कंगन के 'खनकने' जैसे श्रव्य बिंब एक सुमधुर नाद  के साथ तन-मन को झनझना देने के सामर्थ्य के साथ गीत की आत्मा के भीतर कुंडली मारे बैठे हुए मिलते हैं-

"यादोँ मेँ  पायल  छनकाकर
और कभी कंगन खनकाकर
आ पीछे से कभी कभी वह
आँख बंद कर लेती है!
नहीँ देखता कोई फिर तो 
बाँहोँ  मेँ  भर  लेती है!"

प्रेम की दैहिक क्रियाएँ भी यहाँ कितनी निश्छल और पावन  हैं कि उन्हें कहने में कवि को कोई संकोच नहीं होता। यही वे मीठी-मीठी हरारत और शरारत से भारी हरकतें भी हैं ,जिन्हें कवि मन दूर जाकर भी भुला नहीं पाता और जिनके कारण वह स्मृतियों की चिकोटी काट-काट कर बराबर आकुल -व्याकुल करती अपनी प्रिया को धड़कनों के  संग-संग चलती हुई पाता है-

"धड़कन संग  चला करती है
मेरे'  गाँव  की  चिनमुनकी!"

       कवि के बचपन की 'चिनमुनकी' भी बड़ी होकर समय  के साथ बदल गई है।इसका दर्द कविमान को बहुत आहत कर रहा है। शायद इसमें गीतकार को  स्वयं की भी गलती प्रतीत होती हो । इसीलिए वह  अपनी प्रिया को सीधे दोषी तो नहीं ठहरा पाता लेकिन बदले समय के दबाव में आई प्रिया को  भले इशारों में ही सही वह छली कह अवश्य लेता है-

"मोहक ऋतुएँ नहीँ रही अब
साथ तुम्हारे चली गईँ!
आशाएँ भी टूट गईँ जब
हाथ तुम्हारे छली गईँ!
बूढ़ा पीपल वहीँ खड़ा पर
नहीँ रही वो छाँव प्रिये!"

           अपनी प्रिया को अपने से दूर देखकर निराश है।उसे मंज़िल तो क्या रास्ता ही नहीं सूझता। इसके लिए उसकी प्रिया को उससे ज़ुदा करने वाले जमाने को कोसे बिना वह नहीं रहता-

"दूर तलक है गहन अँधेरा
और जमाना हरजाई!
फिर भी चलता जाता हूँ मैँ
भले थके हैँ पाँव प्रिये!"

वह  थका होकर इसलिए हिम्मत नहीं हर रहा है कि शायद उसे उसकी मंज़िल मिल जाए।वह निराशा के घने  अँधेरों को चीरकर उनमें से आशा की किरण खोज ही लेता है। भले ही वह अपने को ठगा और हारा हुआ पाता है लेकिन जिनसे वह ठगा गया है वे कोई और नहीं हैं। उसकी प्रिया को उससे अलग ले जाने वाले उसके अपने ही हैं,जिनमें उसकी प्रिया भी शामिल है। इसलिए वह अपने ही गाँव में अपने को गैर जैसे पाता है-
"चिट्‌ठी लाता ले जाता जो
नहीँ रहा वो बनवारी!
धीरे धीरे उज़ड़ गये सब
बाग बगीचे फुलवारी!
बैठूँ जाकर पल दो पल मैँ
नही रही वो ठाँव प्रिये!"
लेकिन फिर भी वह गाँव छोडता नहीं है । क्योंकि वह अपनों से हारकर भी उन्की जीत की खुशी में खुद की  जीत की-सी खुशी  का अनुभव करता है और गाँव के ठोकर मारने वाले पथरीले रास्तों पर ही चलता रहता है----
"पथरीले रस्तों के ठोकर
जाने कितने झेल लिए!
सारे खेल हृदय से अपने
बारी बारी खेल लिए!
कदम कदम पर जग जीता हम
हार गये हर दाँव प्रिये!
बदल गये हैँ मंजर सारे
बदल गया है गाँव प्रिये!"
गाँव से इतनी शिकायतें होते हुए भी वह गाँव  नहीं छोड़ता क्योंकि -
"महक उठा है तुम्हेँ याद कर
फिर  से  वो संबंध!-"
और,
बरसों से प्रीति की प्रतीति वश उन्हीं पत्थरों पर चलकर उन्हें प्रतिठोकर मार रहा है। शायद कुरेद-कुरेद कर कंकड़ -कंकड़ से अपनी प्रिया का पता पूछ रहा है-

" बीत  गये हैँ  बरसोँ  लेकिन
जाने  कैसा  नाता  है!
प्रिये आज भी उसी गली से
पागल आता जाता है!"

गीतकार धीरज की प्रिया घरेलू काम-काज से निबटकर प्रीतम से बतियाने वाली जिम्मेदार स्त्री है। इसीलिए वह अपनी प्रिया को  वह सब कुछ याद दिलाना चाहता है जो उसका कर्म क्षेत्र रहे हैं-

"कहना  हाल  जरा   बाबा  का/
पीड़ा  गठिया   की  कैसी  है?
अम्माँ को  खाँसी आती  क्या/
वो छुटकी  बिटिया  कैसी  है?
अब  साथ  निभाना  तुम  मेरा/
प्रिय रखना  सँग  सदा  अपने!
तुम   जबसे   दूर  हुई   मुझसे/
दिन  रात   बहुत  आते  सपने!
मन  बहुत  सोचकर   घबराता/
धीरज अन्दर तक हिल  जाये!"

             धीरज श्रीवास्तव के गीतों का शिल्प पारंपरिक है।यहाँ पारंपरिक शब्द का प्रयोग किसी कमी के अर्थ में नहीं हुआ है।यहाँ ऋजुता है। कोमलता है।इनके गीतों में  भरपूर गेयता है,जो गीत का प्राण तत्त्व है। शायद इसीलिए इनके गीत सायास बिंब बोझिल गीत नहीं हैं। बस वे उर-प्रपात से नदी की तरह फूट निकलते हैं । यह अच्छा ही है कि सायास गढ़े गए नए-नए बिंब, प्रतीक और उपमानों की ईंट ,रेत और सीमेंट से बंधी नहर की तरह पक्की दीवारों के बीच इन्हें बहना नहीं आता-

 "चल सकते थे जितना भी हम
साथ  तुम्हारे  चले बहुत!
नर्म चाँदनी मेँ भी तुमको
सोच सोचकर जले बहुत!
मजबूरी मेँ मगर सभी हम
भूल गये सौगंध!"

            गीतकार केवल मन की अंधेरी कोठरी में ही नहीं बैठा रहता । वह अपने साथ-साथ गाँव के दुख-दर्द भी महसूसता है। बदले परिवेश में आचरण बदल चुके गाँवों को देखकर हतप्रभ है। वह बदले आचरण की भर्त्सना  करता है----
"कैसे भला कली मुस्काये/करते भौँरे तंग!
अपना अपना राग छेड़ते/लगना चाहेँ अंग!
ताके झाँकेँ कीट पतंगे/बिन माली का बाग!"

स्त्री के लिए कंटक बनते समाज को देखकर वह  व्यभिचारियों और बलात्कारियों के प्रति आवेश से भर जाता  है। वह  स्त्री समाज कोउनके विरुद्ध खड़ी होने के लिए सचेत करता है  -

"देख गाँव का भ्रष्ट आचरण/
कमली चली गई!
मुखिया जी सब जान रहे थे
किसने अस्मत लूटी थी!
और बिचारी क्योँकर आखिर
अन्दर से वह टूटी थी!
देशी दारू थी पहले ही
मछली तली गई!.....
थोड़ा सा वह हिम्मत करती
और बजाती जो डंका!
रावण तो मरता ही मरता
खूब जलाती वह लंका!
कैसे कह दूँ ठीक किया औ
पगली भली गई!"
     उत्तर आधुनिक समय में कैसी तरक्की आई कि सारे रिश्ते-नाते भुला दिए गए। विकास देहरी तक पहुंचा भी नहीं कि चरित्र पहले ही घर छोडकर चला गया। शील पर्दा उठाकर निकला और देखते-देखते आँखों से ओझल हो गया। संकोच न जाने कहाँ लुप्त  हो गया। कवि का मन इसी लिए आकुल है कि आज कोई किस पर और कैसे विश्वास करे जब -

" बिटिया अपनी व्याहे कैसे/
और बचाये लाज!
संघर्षो मेँ सूख चली है/
आँखोँ की भी झील।
देखे जो लाचारी इसकी/
ताक लगाये बाज!
व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर/
खाँस खाँस कर चील।
.....
भाग रही है बचती बचती/
घिरी हुई है आग!
देख भयावह स्वप्न रात मेँ/
अक्सर जाती जाग! "
        धीरज के यहाँ एक बात बहुत धीरज बँधाती है कि गरीब के यहाँ रिश्ते के इस संक्रमण काल में भी माँ के लिए संवेदना बची है-

"ठोक रही बीमारी माँ की
छाती मेँ बस कील।"
       कवि के भाव जगत में स्त्री के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं है। लेकिन ग्राम्य जीवन  में आज भी पुरुषत्त्व चूड़ियों की खनक पर रीझता भले हो पर उन्हें कामकेलि  के बाद घृणा की नज़रों से ही देखता है। उसी का सहज प्रभाव धीरज के अचेतन पर  भी बाकी है-
"पहन चूड़ियाँ लीँ तुमने या
मुँह पे कालिख पोत लिया!
जबरन उसने खेत तुम्हारा
पूरब वाला जोत लिया!"
          लेकिन यह कवि का स्वभाव नहीं है। स्त्री के प्रति उसमें करुणा की अंतर्धारा भी प्रवाहित है-

" चाची भी है दुख की मारी
बैठ अकेले रोती है!
छूट गया है खाना पीना
आकर दवा कराते भाई! "
             कभी गीतों के केंद्र में रहे ख़त अब गायब हो गए हैं। गाँव के हाल -चाल वाले खत लेकर उड़े कबूतर न जाने कहाँ बिला गए। घर-घर मोबाइल हैं। संदेश कबूतर नहीं टावर से बेतार के तार  उतार ले जाते हैं। अब तो बस इसी तरह के गीतों ,कविताओं और कहानियों मे मिलेंगे खत। इनके गीत में  उस खत का भी ज़िक्र है,जो अब अतीत हो रहा है। यह प्रयोग भले ही सायास न हो पर पत्रों के महत्त्व के प्रति कवि की सचेत निष्ठा अवश्य बता रहा है-

            'और ठीक पर तुम चल देना
             फौरन खत को पाते भाई!"
            अपनी तरक्की के लालच में गाँवों ने शहरों की नकल करने में अपनी पहचान गंवा दी और तरक्की नहीं कर पाए ।शहरों जैसा दहेज-दानव  गाँवों को भी निगलने आ गया। इसलिए गाँव की खुशहाली की अन्य चिंताओं के साथ-साथ दहेजप्रथा भी कवि की चिंता का विषय है-
"भाग्य छिपा है अँधियारे मेँ/
हुए न पीले हाथ!
काट रही है भरी जवानी/
भारी मन के साथ!"
            इसीलिए कवि अपने गाँव आकर पुरानी स्मृतियों में खोकर उदास हो जाता है-

"जब जब घर आता मै अपने/
दिखता बहुत उदास!
चौखट करने लगती मेरी/
सुधियोँ से परिहास!"
            जहां उसे नयों से निराशा होती है,वहीं पुरानों में बची आत्मीयता उसे लुभाती है ---

"देख मुझे बूढ़ी दीवारेँ
हो जाती हैँ दंग!
राख दौड़कर पुरखोँ की भी
लग जाती है अंग!
कुर्सी चलकर बाबू जी की
आ जाती है पास!"

       गीतकार की स्मृतियों में गाँव अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ मौजूद है। वह इन सबके बावजूद गाँव को बड़ी आत्मीयता से अपनाता है। शायद वह मानता है कि यह गाँव ही है जहां बाबा,बाबा ,दादी और बुआ के साथ वाला संयुक्त परिवार प्रेम से रह सकता है-
"बाबा दादी और बुआ का/
होता है आभास!"
गाँव में संवेदना के स्रोत पूरी तरह सूखे नहीं हैं। इन्हीं कारणों से गाँव उसे बसने  के लिए रास आता है-

 "बैठ रुआँसा कहे ओसारा
यहीँ करो अब वास!"
       कुछ प्रयोग कवि के  बिंबधर्मी होने का संकेत भी देते हैं-
" बूँद पसीने की लेकर मैँ
गूँथ रहा कर्मो का आटा!
और जरूरत सिर पर चढ़कर
हरदम एक पटाखा दागे!
........किन्तु गरीबी बैठ हमारी
उलझन की बस कथरी तागे!"

समाज की गरीबी और भुखमरी गीतकार को दुख देती है। वह आँसुओं की न टूटती लड़ी को देखकर उन्हें बेशर्म तक कह देता है। लेकिन करुणा मे भरकर  उन्हें बेशर्म कहता है,घृणा से नहीं -

" पत्थरोँ के बीच रहकर
हो  गये  बेशर्म   आँसू!
         किसी संवेदनशील गीतकार की तरह सांप्रदायिकता  के प्रति भी वह सजग है-

"किसने घोला जहर हवा में/
भड़काया किसने दंगा?
धर्म सेतु का चलो देख लें/
कौन रहा है तोड़?"
        गरीबी के बीच माँ की स्मृति और उस पर दार्शनिक भाव से चिंतन वाली पंक्तियाँ बड़े सहज भाव से ध्यान खींचती हैं -

"बैठ करे पंचायत दिन भर
सजती और सँवरती है!
जस की तस है बहू तुम्हारी
अपने मन का करती है!
कभी नहीँ ये राधा नाची
कभी न नौ मन तेल रहा!
.....खेल खिलाता वही सभी को
और जगत ये खेल रहा!"
         गीतकार धीरज श्रीवास्तव के गीत 'अपनों से पराजित मन वाले  मीत के गीत'हैं। इनमें आकुल मन की पीड़ा तो है ही साथ में आकुलों के मन की पीड़ा भी चोरी-छिपके नहीं सीना तान के समा गई है। इन्हें पढ़ते हुए पता ही नहीं चलता कि वे कब कविता मे ढल जाते हैं । यह भी आभास नहीं हो पाता कि कब गीत की कथ्य मुक्तता कब प्रबन्धात्मकमकता की आत्मा मे प्रवेश कर जाती है या फिर  कब गेय  कविताएँ गीत का रूप ले लेती हैं । इसका आशय यह नहीं कि यहाँ सबकुछ गड्डमड्ड है। यह विषय की विविधता के कारण है। कवि का प्रगतिशील मन कब दूसरों की पीड़ा पर भावुक हो उठे यह कवि के ही वश मे नहीं है। इसलिए उसका आत्म कब विस्तृत हो जाता है इसका उसे  होश ही नहीं रहता । शिल्प में भी कुछेक स्थलों पर बहाव की जगह ठहराव या तुक मिलाने की विवशता में बिठाए गए शब्द भी खोजे जा सकते थे,लेकिन अतिपरिश्रम के साथ,जो मैंने खोजे ही नहीं। कुछ काम पाठकों पर भी छोड़ देना चाहिए । आलोचक के धर्म -कर्म कितने निभे मैं नहीं जानता पर यह ज़रूर कह सकता हूँ कि मैंने तो जिन गीतों का पाठ किया उनमें आनंद आया।मैं तो  धीरज श्रीवास्तव को उनके साहित्यिक जीवन के सुखद साफल्य की अभी हार्दिक बधाई देता हूँ।
हार्दिक शुभकामनाएँ।
शुभमस्तु।

-डॉ. गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर '
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष (हिन्दी पीठ ),
क्वाङ्ग्चौ वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय,क्वाङ्ग्चौ ,चीन। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक समीक्षा हुई आदरणीय गीतकार धीरज श्रीवास्तव जी के लिए।नमन😊💐

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  2. So weighty discussion of Mr.Dheeraj’s compositions. Thank you Dr.Ganga Prasad Sharma Sir. Feels like falling for his songs once again. A compassionate human being, as I know him, with a great command over language and a thorough understanding of deepest emotions. Always look forward towards his new composition.

    -Pradnya K.

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    1. Very very thankx to u Pradanya ji.As I know I am agree with u and yours thought for Mr Dheeraj srivastwa ji.He is the best human being also.
      Thanx alot.😊

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