सोमवार, 14 मार्च 2016

धीरज श्रीवास्तव का गीत- "ढूंढ रहा उल्लास"

मौत कहाँ तू छिपकर बैठी
आ जा मेरे पास!
इधर जिन्दगी दगा दे रही
बस है तेरी आस!
**
जितने भी थे सच्चे साथी
धीरे धीरे बिछड़ गये!
हम इस जग के स्वार्थ दौड़ मेँ
धीरे धीरे पिछड़ गये!
धूप जेठ की तन झुलसाती
गुजर गया मधुमास!
**
अब तो सर्दी बनी बहुरिया
रह रह सुई चुभोती है!
और कामना हरदम मेरी
बच्चोँ जैसी रोती है!
खुद अपने ही साये से अब
टूट गया विश्वास!
**
आये दिन चिकचिक के चलते
बेटो ने है बाँट दिया!
बिस्तर विस्तर दिया एक ने
और एक ने डाँट दिया!
लिखना पढ़ना देख मुहल्ला
कहता कालीदास!
**
मौका मिलते मुझे चिकोटे
पसरा है सन्नाटा जो!
दिल पर पत्थर रखकर सहता
वक्त लगाये चाटा जो!
रोज रोज मन मरघट जाकर
ढ़ूँढ रहा उल्लास!
**

रचना - धीरज श्रीवास्तव
मनकापुर, गोंडा, उ.प्र.

चित्र गूगल से साभार

डॉ. दिनेश भट्ट की रचनाएँ और उनपर प्रतिक्रियाएं-काव्य शिल्पी

(गीत)

गीत खुशी के कैसे गाऊँ
रोता दिल कैसे बहलाऊँ

जीवन में पग पग पर मुझको ,
मिली सदा पथरीली राहें ,
फूलो ने भी घाव किये हैं ,
सुनो कभी इस दिल की आहें
अंतर्मन जब हार मानता,
राह जीत की कैसे पाऊँ ।
गीत खुशी के........

सावन आया छलिया बनकर ,
फिर से मेरे जख्म दुखाने ,
महक उठे सारे वन उपवन ,
हरे हुए सब वृक्ष पुराने
अन्तस में जब पतझड़ हो तो,
बाहर कैसे पुष्प खिलाऊँ।
गीत खुशी के........

घुट घुट कर बीता है यौवन
दस्तक देता खड़ा बुढ़ापा
बना नहीं है वह पैमाना
जिसने सुख दुःख को हो मापा
जीवन भर बस पीड़ा सहकर
मन अपना कैसे हरषाऊँ।
गीत खुशी के........

निश्छल निर्मल प्यारा बचपन ,
काश लौट के फिर आ पाता
ऊंच नीच सारी मिट जाती,
सारा जग अपना हो जाता
गुजर गया वो प्यारा जीवन , उसको कैसे वापस लाऊँ ।
गीत खुशी के..........

कुण्डलिनी छन्द

विधा-कुण्डलिनी छन्द(दोहा+अर्द्ध रोला)
********************************
1-
दुनियाँ में आतंक अब, छाया है विकराल
शैतानों का खौफ है, हाल हुआ बेहाल
हाल हुआ बेहाल, देखकर रोती मुनिया
युक्ति सुझाओ आज, बचे कैसे ये दुनिया।

2-
जग में सबसे प्यार कर,प्यार जगत का सार
प्यार हार सकता नहीं , प्यार जीत का द्वार
प्यार जीत का द्वार,दिखाता है पग-पग में
प्यार खिलाये सदा,फूल खुशियों के जग में।

3-
नेता भारत के हुये,अब तो रिश्वतखोर
जनता के सेवक नहीं, धन दौलत के चोर
धन दौलत के चोर,बने क्रेता विक्रेता
आओ मिलकर सभी,हरायें ऐसे नेता।

गीतिका

आधार छन्द-विधाता
*********************

चलें अब दूरियाँ पाटें,दिलों को पास लाना है
हमें अपना वतन का बाग, फूलों से सजाना है।

हवाओं को बताना मत,ठिकाने उन चरागों के
धरा से अंधकारों को,जिन्हें जलकर मिटाना है।

कभी जुगनू,कभी चंदा,कभी सूरज,कभी तारे
उजालों के सहारे बन,यहाँ जीवन बिताना है।

जिगर में आग पैदा कर, वतन पर जान देने की
जला कर खाक कर देंगे,ये' दुश्मन को बताना है।

गरीबी,भूख,लाचारी,न जाने धर्म किसका क्या
भुला नफरत जमानें की, क्षुधा को बस मिटाना है।

उजाले ही उजाले हों,शमन हो अंधकारों का
हमें बन प्यार के दीपक, हमेशा जगमगाना है।

मुक्तक

आधार छन्द-विधाता पर आधारित तीन मुक्तक

मुक्तक-1
*********************
हथेली की लकीरों को, कभी किस्मत नहीं मानो
बदलता भाग्य मेहनत से, अटल ये सत्य पहचानो
कभी इतिहास के पन्नें, पलट कर देख लो प्यारे
बना जो कर्म से योद्धा, सिकंदर है वही जानो।

मुक्तक-2
*********************
लहू पीते गरीबों का, वतन का कर रहे सौदा
हमारे राजनेता अब, चमन का कर रहे सौदा
भगत,आजाद,विस्मिल का, भुला बलिदान ये पापी
यहाँ अब कोयला,चारा,कफन का कर रहे सौदा।

मुक्तक-3
*********************
हमें तो दर्द गॉंवों का, शहर वाले बताते हैं
सदा रहते जो' गॉंवों में,उन्हें तो गॉंव भाते हैं
ये' कैसा आज आडम्बर, दिखाई दे रहा मित्रों
व्यथा हमको गरीबी की, महल वाले सुनाते हैं।

कविता

छन्द मुक्त काव्य रचना
"अाज का माडर्न आदमी" 

भौतिकता की अन्धी दौड़ में/
सरपट दौड़ती जिन्दगी की पटरियों पर/
मशीनों जैसी चपलता से/
अन्तर में लिए भूख,वासना, तनाव व शून्यता /
भौतिक सुखों की चाहत लिए/
कहाँ जा रहा है आज का मनुष्य? /
दिल के किसी कोने में दबी मानवता /
लेती है हिलोरें /
पर लौट जाती है मूल में/
खाकर ठोकर पाश्विकता की दृढ़ चट्टानों से/
कौन समझाएगा इसे मिलेगा कुछ नहीं/
सिवाय अवसाद, बेचैनी अौर पतन के/
पर नहीं मानता अपनी मूढ़ता/
फिर भी भागे जा रहा है कुछ पाने की ललक लिए/
जबकि यह तय है कि इस खातिर लुटा देगा अपना सब कुछ/
वासनाओं के क्रूर पाश में इस कदर जकडा़ है ये/
कि भूल गया रिश्ते, सीमाएँ एवं बन्धन /
अौर मानता है अपने आप को आज के दौर का माडर्न आदमी/
पर सत्य यह है कि अर्जित है असभ्यता,
पूँजी, नकलीपन ,स्वाँग,धोखा अौर बेईमानी /
विकास के नाम पर स्थापित करता है मानक/
चुका कर नैतिक मूल्यों की कीमत/
बैठा है खोखली नींव की बुलन्द इमारत पर/
जिसके गिरते ही हो जाएगा अन्धी दौड़ का अन्त
/मंजिल तो दूर न मिलेगा पछतावे का भी वक्त/
फिर सृजित होगी नयी सृष्टि/
मानवता होगी जीवन्त/
यह आश लिए हम शामिल हों/
इस नयी सृष्टि की मानवता की दौड़ में/
जिसका गन्तव्य हो भगवान का दर......

परिचय---------
नाम-डॉ.दिनेश चंद्र भट्ट
जन्म-01-03-1973
शिक्षा-M.Sc.-Physics,B.Ed. & Ph.D.
व्यवसाय-प्रवक्ता(भौतिकी)
पता-गौचर(चमोली)उत्तराखण्ड
Email-dineshbhatt550@gmail.com
उपलब्धियाँ-पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित।

प्रतिक्रियाएं------------

डॉ.दिनेश चन्द्र भट्ट चमोली----
काव्य-शिल्पी मंच के सभी विद्वतजनों को मेरा सादर प्रणाम!
सर्वप्रथम मैं आदरणीय अवनीश त्रिपाठी जी का दिल की गहराइयों से आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने आज के कार्यक्रम में मेरा परिचय कराया और मेरी रचनाओं को पटल पर स्थान दिया।साथियों मेरा साहित्यिक सफर अभी बहुत छोटा है ।मुझे लिखते हुये अभी एक साल भी नहीं हुआ है।कवितालोक जैसे मंच के सभी विद्वान साथियों से बहुत कुछ सीखने को मिला।अभी भी बहुत सारी कमियाँ हैं जो आपके उचित मार्गदर्शन से ही दूर होंगी।साथियो कमियाँ बतायें तभी सुधार कर पाऊँगा।आपके स्नेह का आकांक्षी.....
🙏🏼डॉ.दिनेश चंद्र भट्ट🙏🏼

डॉ रघुनाथ मिश्र सहज:---------सभी रचनाओं में सकारात्मक सन्देश -मौजूदा  दशा का सजीव चित्रण -विधा का कुशलता पूर्वक निर्वहन-कुन्डलिनी छन्द अति रुचिकर।बधाई डा०दिनेश चन्द्र भट्ट जी।👍👍👍👍👍👍👍डा०रघुनाथ मिश्र 'सहज'

डॉ अर्चना गुप्ता:---------आद दिनेश भट्ट जी आपकी सभी रचनाएं बहुत सुन्दर लगी  । आपका विषय भी फिजिक्स रहा है ये जानकार भी अच्छा लगा । मेरा सबसे प्रिय विषय ।बहुत2 बधाई आपको

नीलम श्रीवास्तव:-------------आज काव्य  शिल्पी  में  डॉ दिनेश चन्द्र भट्ट  जी की रचनाएं  पढ  कर  आनंद  आ गया
गीत,कुंडलिनी ,गीतिका ,मुक्तक और मुक्त छन्द  कविता -----सारी  रचनाएं  अपने  आप  में  पूर्ण  लगीं
कवि  ने  आज के   जीवन  की  सामाजिक और राजनैतिक  स्थिति  का  बड़ा  ही  यथार्थ चित्रण  किया  है  साथ  ही  आधुनिक  मानव  जीवन का  जो   चित्र उपस्थित किया  है , अति प्रशन्सनीय  है
  भाव और शिल्प दोनों  ही  उत्तम  हैं  पूर्ण सम्प्रेषनीयता  के  साथ    रचना धर्मिता का  निर्वाह  कवि  की अनुभूतियों और कल्पनाओं  का  सहज  चित्रांकन  है
     समयाभव  के  कारण  में थोडे  में  ही डॉ दिनेश चन्द्र  भट्ट  जी  को हार्दिक  बधाई  और  अनंत  शुभ  कामनाओं  के  साथ  अपनी  समीक्षा  समाप्त  कर  रही  हूँ

👌👌👌👌

अरविन्द अनजान:-----------डॉ दिनेश चंद्र भट्ट जी की लेखनी काव्य की सभी विधाओ पर अच्छी पकड़ रखती है ,,, छन्द, मुक्तक, गीत, गीतिका, गजल, कुण्डलिनी ,, सभी विधाओ पर उत्तम सृजन किया है आपने ,,,माँ शारदे ने आपको वाणी भी बहुत मधुर दी है ,,
👌👍👏👏👏👏👍👌👌👍🙏🙏🙏

मित्रो डॉ दिनेश जी मेरे बहुत अच्छे प्रेमी मित्र रहे हैं ,,,,
👇👇👇
आपको इनके बारे में आपको एक बात और भी बताना चाहूँगा ,,, आप चैस के बहुत अच्छे खिलाड़ी हैं ,, और कई नेशनल, और इंटरनेशनल कॉम्पिटीशन में प्रतिभाग कर चुके हैं ,,,
,,
साहित्य के क्षेत्र में भी आप बहुत आगे जायेंगे ,,, माँ शारदे से यही कामना है जी
,,
👍👍👍👍👏👏👏👌🙏🙏🙏
सादर
अरविन्द, उनियाल, 'अनजान

हेमन्त कुमार कीर्ण:----------आज आदरणीय डा• दिनेश चंद्र भट्ट जी की रचनाओं से साक्षात्कार हुआ।
आदरणीय सर्वप्रथम आपका गीत "गीत ख़ुशी के …………" मानव जीवन के विविध रंगों को दिखाती है।
कुंडलिया छंद में सृजित रचनाएँ बहुत ही सुंदर हैं समाज के साथ साथ राजनीतिक व्यवस्था पर सटीक वार करतीं हैं।
आपकी गीतिका बहुत ही मनोहारी है। देशप्रेम की भावना जागृत करती गीतिका के लिए हार्दिक बधाई।
आपके मुक्तक बेहतरीन है।"कभी इतिहास के पन्नें,पलट कर देख लो प्यारे
बना जो कर्म से योद्धा, सिकंदर है वही जानो।" वाह वाह…… बहुत ही उम्दा भाव।
छंद मुक्त रचना हमें भावुक बनाती है  और साथ ही आइना भी दिखाती है।
आपके बेहतरीन रचनाओं के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
शिल्प तो आपका लाजवाब है ही।
हेमन्त कुमार "कीर्ण"

राहुल द्विवेदी स्मित:------------आदरणीय डॉ.दिनेश चन्द्र भट्ट जी की रचनाओं से परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला ।
आपकी बहुमुखी प्रतिभा का कायल तो मैं पहले से ही था किन्तु आज आपके विषय में और अधिक जानकार आपके व्यक्तित्व व साहित्यिक स्वरूप का और अधिक मुरीद हो गया ।
आपकी रचनाएँ आपका व्यक्तित्व स्वतः खोलकर सामने रख देती हैं । आपकी लेखनी को नमन करते हुए बहुत बहुत बधाई प्रेषित करता हूँ ।
सादर🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

दिनेश कुशभुवनपुरी :------------ -वाह्ह्ह्ह्ह् वाह्ह्ह्ह्ह् आदरणीय डॉ.दिनेश भट्ट जी आपकी रचनाएँ तो सदैव ही दिल की छूने वाली रहती हैं एवं आज तो आपके सतरंगी(काव्य के प्रत्येक विधाओं में पारंगत) एवं शतरंजी प्रतिभा के बारें में जानकर अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है एवं गर्व हो रहा है कि हमें भी आपसे बहुत कुछ सिखने को मिलेगा आपको कोटि-कोटि बधाई एवं शुभकामनाएं 👏🏻👏🏻💐💐🙏🏼🙏🏼
दिनेश कुशभुवनपुरी

मनोज मानव :-------------आदरणीय दिनेश भट्ट जी को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है
आज ज्यादा समय पटल पर नहीं दे पा रहा हूँ
लेकिन एक नजर सभी रचनाये पढ़ी सभी रचनाएँ शानदार
समीक्षात्मक कुछ नहीं कह पाऊँगा क्योकि सही ये है कि उस नजर से आज रचना पढ़ने का समय भी नहीं है मेरे पास
बहुत बहुत बधाई आद0 दिनेश भट्ट जी को
🙏�🙏�🙏�🙏�🙏�🙏

गुरुवार, 10 मार्च 2016

हेमन्त कुमार कीर्ण की रचनाएँ और उन पर समीक्षाएँ- काव्य शिल्पी

शीर्षक:- हम बेहतर कल बनायेगें

युवा भारत की युवा शक्ति हैं
युवा हमारी राहें हैं
युवा तन है युवा मन है
युवा हमारी बाहें हैं
अपने दम पर अपने बल पर
अपनी राह बनायेगें।
पर विश्वास हमें इतना है
हम बेहतर कल बनायेगें।।
छू देगें गर मिट्टी को
मिट्टी सोना हो जायेगी
जला देगें गर दीपक
मिलकर
जगमग दुनिया हो जायेगी
उजड़ा पड़ा है जो यह गुलशन
फिर से इसे सजायेगें।
पर विश्वास हमें इतना है
हम बेहतर कल बनायेगें।।
क्यों कुंठित हो मेरे यारों
क्या खुद पर विश्वास नहीं
गढ दोगे तक़दीर नई
क्या तेरे आगे राह नहीं
मन में ठानो अडिग प्रतिज्ञा
हम सबको दिखलायेगें।
पर विश्वास हमें इतना है
हम बेहतर कल बनायेगें।।
उड़ने दो नभ में जहाजें
सबसे ऊँची उड़ान होगी
जिस पर गर्व करेगी दुनिया
वैसी अलग पहचान होगी
अपने दम पर अपने बल पर
विकसित राष्ट्र बनायेगें।
पर विश्वास हमें इतना है
हम बेहतर कल बनायेगें।।

व्यंग रचना:-
1•
अंदर हर कर्मचारी
घूसखोरी में लुप्त है,
और बाहर लिखा है
यह कार्यालय
भ्रष्टाचार मुक्त है।
2•
केन्द्र से लेकर प्रदेश तक
सरकारों में साझा
गठबंधन है,
मतलब
मुँह में गोस्त
और
माथे पर चंदन है।
3•
सत्ता की ख़ातिर
अजीब जोड-तोड़ है,
यानी
सौ मीटर की दौड़ में
नब्बे मोड़ है।

शीर्षक:- मैं कविता लिखता हूँ।

भावों में उद्गारों में
बेबस की चीत्कारों में
बन कबीर सा फक्कड
गलियों में बाजारों में
ले कलम अपनी हाथों में
फिरा फिरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।
मैं ही मीरा बन
भाव लिखा सिंगार लिखा
मैं ही बहन सुभद्रा बन
लक्ष्मीबाई का हुंकार लिखा
पर समाज की नज़रों में
गिरा गिरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।
मैं सुर तुलसी जायसी की
एक लम्बी परम्परा हूँ
मैं निराला की लेखनी हूँ
महादेवी सा बिखरा हूँ
गहन विचारों की पीड़ा में
भरा भरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।
अंधकार के सन्नाटो में
टिमटिमाता दीप हूँ मैं
जिसे सुन देश रो पड़ा
वह कवि प्रदीप हूँ मैं
अपनों की आलोचनाओं से
घिरा घिरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।
जीवन के हर सुख दुख का
मैं परछाईं दिखता हूँ
समाज के हर तबके का
बस सच्चाई लिखता हूँ
सदियों से पीता गरल
मरा मरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।

मुक्तक

1:-
ठंड है……अलाव की बात कर
तब आ…… बदलाव की बात कर
जरा देर में…… समझूँगा मैं
पहले…… लगाव की बात कर।
2:-
मेरे देश का आज मंजर देखो
मेरे दोस्त के हाथ खंजर देखो
हम आपस में लडें बिल्लियों की तरह
रोटियाँ बॉट रहे बंदर देखो।
3:-
गमों में भी यारों मुस्कराना तो सीखिए
मुकद्दर की तरह खुद को सजाना तो सीखिए
दिल की बात दिल में ही न रह जाये दोस्तों
दिल की बात जुबाँ पर भी लाना तो सीखिए।
4:-
कब जीवन का अधिकार मिलेगा
कब सपनों का संसार मिलेगा
कब तक पूछूँगा लोगों से यूँ
कब प्यार के बदले प्यार मिलेगा।

संक्षिप्त परिचय:-
हेमन्त कुमार "कीर्ण"
जन्म:-06/01/1987
शिक्षा:- एम•ए•(अंग्रेज़ी), बी•एड•
पेशा:- शिक्षक
पता:- चंदौली उ•प्र•
Email:- hemantkmr386@gmail.com
उपलब्धियाँ:- अनेकों पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित,
आकाशवाणी वाराणसी से रचनाएँ प्रसारित

दिनेश पाण्डेय बरौंसा:------
हम बेहतर कल बनायेंगे
युवा भारत की युवा शक्ति हैं
.......आज के युवा क्या नहीं कर सकते बस स्वयं पर विश्वास होने भर की देरी है,  युवाओं के शक्ति को आवाहन देती एक लाजवाब रचना हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीय हेमंत जी,👍
वाह्ह्ह्ह् शानदार हास्य व्यंग😊👌
मैं कविता लिखता हूँ....
. एक कवि के भावों को अत्यंत खूबसूरत तरीके उकेरा है आपने अपनी यशस्वी लेखनी से,  बहुत बहुत बधाई💐👌
एवं सभी मुक्तक भी बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण हैं बस सभी मुक्तकों में मात्राभार एक बार अवश्य देख लेवें क्षमा सहित सादर
कुल मिलाकर आपकी रचनाओं में भावनाओं का बहुत ही सुंदर प्रवाह है आपको बहुत बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनायें आदरणीय हेमंत  कुमार जी 😊💐👏🏻👍🏻

सागर प्रवीण भदोही:------
आज पटल पर युवा रचनाकार आदरणीय हेमंत जी की रचनाओं को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ!!!
हेमंत जी की सभी रचनाएँ बहुत ही सुन्दर व् प्रभावशाली लगी
परन्तु आपने जी व्यंग लिखा है वो काबिले तारीफ़ है!!!

मैं कविता लिखता हूँ
भावों में उद्गारों में
बेबस की चीत्कारों में
बहुत ही सुन्दर कविता है पढ़कर भावविह्वल हो उठा
आपके सभी मुक्तक  भी बहुत सुन्दर व् हृदयस्पर्शी हैं!!
सम्प्रति इस सुन्दर व् श्रेष्ठ सृजन हेतु हार्दिक बधाई!!!

अरविन्द अनजान:--------
सबसे ऊँची उड़ान होगी
जिस पर गर्व करेगी दुनिया
वैसी अलग पहचान होगी
अपने दम पर अपने बल पर
विकसित राष्ट्र बनायेगें।
पर विश्वास हमें इतना है
हम बेहतर कल बनायेगें।।
वाह्ह्ह्ह्
सुन्दर देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम ,,,राष्ट्र के प्रति अगर देश के 5% लोगो में भी ये भावना आ जाये तो देश विश्व में सबसे आगे हो जायेगा ,,
बहुत सुन्दर भाई ,,,हेमन्त कुमार 'कीर्ण'~जी
👌👌👏👏👏👍👍👍🌹🌺🌷

नीलम श्रीवास्तव-----
आज युवा कवि हेमंत जी  की रचनाओं  को  पटल पर पढने का अवसर मिला  .
पूरी रचनाएं  पढी  
भाव प्रवणता से लेकर शब्द सन्योजन  अति सुंदर और प्रभावशाली  हैं
हम बेहतर कल बनाएँगे --युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली  बहुत  ही  प्रेरणास्पद  रचना  है
मैं कविता लिखता  हूँ-  में एक भाउक  और यशस्वी   कवि का हृदय  बिम्बित  होता  है
व्यन्ग्य रचनाएं  बेहद प्रभावशाली हैं
मुक्तक भी  बहुत  saarthak  है
अन्यथा  न   लें  शिल्प  की dreshti  से मुक्तक  कुछ कमियाँ  हैं बस  मात्रा  भार से  संबंधित .
अंत में  यही कहूँगी कि हेमंत जी  की रचनाएं सत्यं शिवं एवं सुन्दरं  की अनुभूति  कराती हुई  आनन्दित  करने वाली  हैं
इस खूबसूरत प्रस्तुति हेतु  हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ.

विनोद चन्द्र भट्ट गौचर:----
👏👏👏🙏🏻🙏🏻🙏🏻
वाह्ह्ह्ह्ह्ह!!!
आदरणीय हेमन्त कुमार 'कीर्ण' जी की सभी रचनाएँ बहुत ही सुन्दर व भावपूर्ण हैं।वाकई आपकी रचनाओं को पढ़कर आनन्द आ गया।भाव सम्प्रेषण लाजवाब है।व्यंग्य रचना तो बहुत ही उम्दा है। शिल्पबद्ध मुक्तक भी बहुत सार्थक हैं।
थोड़ा मापनी में त्रुटि अवश्य है।अभी आप युवा हैं तो निश्चित ही ये कमियाँ दूर हो जायेंगी। आपका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है।
आपकी भावाभिव्यक्ति को नमन
आपको हार्दिक बधाई व अनन्त मंगलकामनाएं।
     सादर नमन
विनोद चन्द्र भट्ट,गौचर(उत्तराखण्ड)

सुनील त्रिपाठी-------
Vaaaaaah👌👌👌👌👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏
व्यंग रचना:-
1•
अंदर हर कर्मचारी
घूसखोरी में लुप्त है,
और बाहर लिखा है
यह कार्यालय
भ्रष्टाचार मुक्त है।
2•
केन्द्र से लेकर प्रदेश तक
सरकारों में साझा
गठबंधन है,
मतलब
मुँह में गोस्त
और
माथे पर चंदन है।
3•
सत्ता की ख़ातिर
अजीब जोड-तोड़ है,
यानी
सौ मीटर की दौड़ में
नब्बे मोड़ है।
Bahut khoob vyangya likhen hai aaderniya Hemant saader badhaai👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍👍
अंधकार के सन्नाटो में
टिमटिमाता दीप हूँ मैं
जिसे सुन देश रो पड़ा
वह कवि प्रदीप हूँ मैं
अपनों की आलोचनाओं से
घिरा घिरा सा रहता हूँ।
हाँ मैं कवि हूँ, मैं कविता लिखता हूँ।।
Bahut sunder rachna hui aapki 👍👍
Badhaaai sang naman lekhni ko
!!Sunil Tripaathi !!
Lucknow U.P.

राहुल द्विवेदी स्मित: -----
हेमंत कुमार जी की व्यंग रचनाएँ सटीक वार करती हैं भ्रष्ट तंत्र पर ।
वहीं आगे बढ़ते बढ़ते रचनाओं में भाव तो दीखते हैं किन्तु शिल्प कहीं भ्रमित सा दीख पड़ता है ।
मैं ही मीरा बन
भाव लिखा सिंगार लिखा...
अब इस स्वरूप में मैं भ्रमित हूँ यह हिंदी की कौन सी शैली है । मैंने यह लिखा तो सुना किन्तु मैं यह लिखा अलग व नया प्रयोग है जो हिंदी को भी चौंकने पर विवश करेगा ।
अलाव,बदलाव् के साथ लगाव काफिया भी समझ नहीं आया ।
मंजर, खंजर के साथ बन्दर समांत/काफिया भी विचलित है ।
प्रयास अच्छा है किन्तु साहित्य यात्रा का यह पहला पड़ाव जहां से अभी आपको बहुत दूर जाना है । अहंकार से दूर हर पल सीखने की इच्छा आपको मंजिल तक अवश्य पहुंचाएगी ।
👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

मनोज मानव------
हेमन्त जी की रचनाएँ एक नई उम्मीद जगाती हैं
प्रथम रचना थोड़े से प्रयास में ही 16,14 मात्राभार के साथ लावणी छंद में ढल सकती है और एक बेहद शानदार गीत का रूप ले सकती है
दूसरी रचना - सुंदर छंद मुक्त  व्यंग
तीसरी रचना -- सुंदर भावपूर्ण प्रयास
मुक्तक
पहला मुक्तक -- मात्राभार सभी पंक्ति में एक नही है
दूसरा मुक्तक - मंजर खंजर के कारण समांत अंजर हो गया जो बन्दर में नही निभाया गया
तीसरा मुक्तक -- मुक्तक एक लय / मापनी / छंद में हो तो अति उत्तम
चौथा मुक्तक - सुंदर प्रयास
आपके भाव बहुत ही सुंदर है बस इन भावों को शिल्प मिलने की देर है आदरणीय हेमन्त जी में भविष्य की बेहतरीन सम्भावनाएं नजर आती है

स्व. रामानुज त्रिपाठी जी का नवगीत

ठीक है मरुस्थल में मेघों को बो देना,
किन्तु आँधियों के पदचिह्न खो न जाएँ।


सागर मंथन के
बाद जिसे पाया है
बूढा दिन धूप की
तस्वीर साथ लाया है।

जड़ देना कील से नंगी दीवार पर
जीवित हैं इसमें अमृत की कथाएं।

रह गए अधूरे
जिनके अकथ किस्से
बांधकर पंखों में
दुःख दर्द के हिस्से

लौटेंगे नीड़ पर भूले भटके पंछी
लेकर नूतन उड़ान की प्रथाएं।

महाकाल ने सौंपी
संभ्रम की सत्ताएं
मरघट में जुट आईं
किन्तु अर्थवत्तायें

पढ़कर मौत का भूगोल खोलकर पन्ने
हंस हंस के मानचित्र रच रहीं चिताएं।

स्व रामानुज त्रिपाठी।
नवगीत संग्रह- यादों का चन्दनवन से साभार।

पूनम सिंह की कविता

तुम्हारे बिना अधूरी है दुनिया
लाती तुम्ही हो जीवन में खुशियाँ
इस विश्वरूपी जलाशय में 
कमल दल के जैसी खिलती हो। 
तितली के पंखों सी कोमल
नदिया के जैसी बहती हो।
घरकी बुलबुल
माँ की आँखो की ठंडक
पिता का अभिमानतुम
सम्मान सबका करती हो ।
बनकर अर्धांगिनी
पति का साथ देती हो।
बनकर तुम वज्र सी
कठिनाइयों को सहती हो।
सावित्री बनकर तुम
यम से भी लड़ती हो ।
सींचती हो रक्त से
अपनी संतान को
पोसती आँचल में
भरकर पियूष ।
ममता से भरे नयनों
में तुम्हारे
लहराता है स्नेह
का सागर
कभी बनकर दुर्गा
असुरों को जीत लेती हो ।
पुत्री हो पत्नी हो या माँ
संसार में तुम्हारी 
नही कोई तुलना
लाती तुम्ही हो
जीवन में खुशियाँ ।
तुम्हारे बिना अधूरी
है दुनिया ।


पूनम सिंह सुलतानपुर उत्तर प्रदेश 
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 8 मार्च 2016

स्पृहा सिंह - "सुरक्षा क्षेत्र में महिला" गीत

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर ' सुरक्षा क्षेत्र में महिला' विषय पर एक गीत रचना-------

रोक नहीं मुझको अब मैया , मुझे फ़ौज में जाने दे
इस बेटी को नाम गगन में , मैया तू चमकाने दे

आज देश की बेटी मैया , सभी क्षेत्र में आगे हैं
जिम्मेवारी से ये अपनी , नहीं कभी भी भागे है
बेटी फौजी बन भारत में , आज कमीशन पाती है
अपने बलबूते पर वह फिर , अफसर भी बन जाती है
मुझको सेना में अफसर बन , जौहर तू दिखलाने दे
रोक नहीं मुझको ---

आज सुरक्षा का भी जिम्मा , इसने हाथ लिया अपने
मत पूछो कितनी बेटी जो , सच करती अपने सपने
राज्य पुलिस या केंद्र पुलिस में , लाखों बेटी जाती हैं
अपराधी काँपे थर थर जब , रोद्र रूप दिखलाती हैं
इस अबला को सबला बनकर ,चण्डी रूप दिखाने दे
रोक नहीं मुझको -----

क्या मैया तू ये चाहेगी , बुजदिल हो तेरी बेटी
या फिर मुझको ये बोलेगी , मर मर कर तू जी बेटी
जब अफसर बन जाऊंगी तो , लोग कहे तेरी बेटी
पापा भी दुनिया से बोले , देखो वो मेरी बेटी
देख किरन बेदी के जैसे , मुझको नाम कमाने दे
रोक नही मुझको -----

    स्पृहा सिंह पुत्री मनोज मानव,कक्षा --9
                बागपत,उत्तर प्रदेश